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न्यूज क्लिपिंग्स् | बिजली की राह में सब्सिडी का झटका- नूर मुहम्मद

बिजली की राह में सब्सिडी का झटका- नूर मुहम्मद

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published Published on Aug 10, 2015   modified Modified on Aug 10, 2015
मोदी सरकार ने वायदा किया है कि अगले पांच वर्षों में हर घरों में चौबीस घंटे बिजली पहुंचाई जाएगी। इसके लिए उन्होंने पारेषण (ट्रांसमिशन) संबंधी बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए मेगा योजना की शुरुआत भी की है। लेकिन बिजली वितरण कंपनियों की अनिश्चित वित्तीय हालत इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य की राह में बड़ी रुकावट साबित हो सकती है। स्थिति यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के ऋणदाताओं से 1.93 लाख करोड़ के बेलआउट पैकेज मिलने के बाद भी विद्युत वितरण क्षेत्र आगामी तीन वर्षों के अंदर खस्ता होने की राह पर है। रिजर्व बैंक ने भी इस क्षेत्र को आगे उधार देने को लेकर सजगता बरतने की सलाह दी है। मार्च में वित्तीय पुनर्गठन पैकेज (एफआरपी) के तहत मूलधन कर्ज अदायगी पर स्थगन के बाद विद्युत वितरण क्षेत्र में बहुप्रचारित सुधार का मिथक हालिया आर्थिक स्थिरता रिपोर्ट के आने के बाद टूट-सा गया है। इस रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा गया है कि बिजली वितरण करने वाली कंपनियों (डिस्कॉम्स) को दिए गए 53,000 करोड़ रुपये के कर्ज की वापसी कठिन है।

विनियामक परिसंपत्तियों के निर्माण के संबंध में बहुत स्पष्ट राष्ट्रीय टैरिफ नीति के होने के बावजूद राज्य विद्युत नियामक आयोग इस सुविधा का उपयोग बिजली दरों में वृद्धि के विकल्प के रूप में कर रहे हैं। इससे विनियामक परिसंपत्तियां (अप्राप्त राजस्व) बढ़ रही हैं। अनुमान है कि संयुक्त विनियामक परिसंपत्तियां तीन करोड़ रुपये से पार चली गई हैं, जिसमें से 28,000 करोड़ रुपये दिल्ली में बिजली आपूर्ति करने वाली तीनों निजी कंपनियों पर ही बकाया है। सरकार बिजली वितरण में प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने के लिए विधायी बदलाव लाने पर जोर दे रही है। पर प्रस्तावित बदलाव राज्य सरकारों को बिजली दरों में हस्तक्षेप करने से रोकने में सफल होगा, यह आश्वासन इसमें कम दिखता है।

बेलआउट के बाद भी अगर डिस्कॉम्स की आर्थिक सेहत बिगड़ रही है, तो इसकी वजह है, बिजली की आपूर्ति में आने वाली लागत और राजस्व वसूली में भारी अंतर का होना। कृषि क्षेत्र से आने वाला राजस्व इस क्षेत्र को आपूर्ति की जाने वाली बिजली की, जो पूरे देश के कुल बिजली खपत का लगभग 20 फीसदी हिस्सा है, लागत से काफी कम है। यह अंतर राज्य सरकार सब्सिडी देकर और औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ताओं पर बिजली की अतिरिक्त दरें लादकर पूरा करती है। विद्युत अधिनियम, 2003 में यह निर्धारित किया गया था कि वर्ष 2010-11 तक क्रॉस-सब्सिडी को बिजली की आपूर्ति में आने वाली औसत लागत के 20 फीसदी के भीतर लाया जाएगा। यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है। विद्युत क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने का मूल मंत्र है, ओपन एक्सेस प्रावधानों (सब तक निर्विरोध पहुंच संबंधी प्रावधान) का क्रियान्वयन। लेकिन यह व्यवस्था इसलिए विफल रही है, क्योंकि वाणिज्यिक उपभोक्ताओं से महंगी क्रॉस-सब्सिडी वसूली जाती है।

सच यह है कि राज्य विद्युत नियामक आयोग राजनीतिक आकाओं के निर्देश पर बिजली दरों का निर्धारण करते हैं, जबकि उनसे स्वतंत्र काम करने की अपेक्षा होती है। विनियामक आयोग बनाने का विचार राज्य सरकारों के हाथों से बिजली दरों के निर्धारण संबंधी शक्तियां हासिल करने के लिए था। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो न सका। वित्तीय संकट से जूझ रही डिस्कॉम्स बिजली की कमी पूरी करने के लिए खुले बाजार से बिजली खरीदने के बजाय लोडशेडिंग का सहारा लेती हैं। इन परिस्थितियों में भला अनवरत बिजली आपूर्ति का सपना कैसे पूरा हो सकता है?


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/subsidy-jolt-in-way-of-electricity-hindi/


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