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न्यूज क्लिपिंग्स् | बेलगाम महंगाई के पोषक- विकास नारायण राय

बेलगाम महंगाई के पोषक- विकास नारायण राय

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published Published on Aug 25, 2014   modified Modified on Aug 25, 2014
जनसत्ता 22 अगस्त, 2014 : वित्तमंत्री अरुण जेटली के अनुसार आम लोगों के लिए बवालेजान बनी महंगाई का सीधा संबंध बाजार में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति से है। भारतीय शासकों का यह जाना-माना तर्क रहा है, जो जनता को बरगलाने वाले अगले पाखंड की जमीन भी तैयार करता है। शासकों का अगला तर्क होता है कि आम लोगों की जरूरत की चीजों की आपूर्ति जमाखोरों ने रोक रखी है और सरकार उनके विरुद्ध कड़े कदम उठा कर महंगाई पर रोक लगा देगी। जेटली भी चाहते हैं कि लोग उनके ऐसे ही आश्वासन पर विश्वास करें और चुपचाप ‘अच्छे दिन' की प्रतीक्षा करते रहें।

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तो यहां तक कहा करते थे कि जमाखोरों को नजदीकी बिजली के खंभे से लटका देना चाहिए। जेटली ने इसी सुर में बयानबाजी करते हुए साथ में यह ‘साफगोई' भी जोड़नी शुरू कर दी है कि उनकी सरकार के त्वरित उपायों के चलते ही इस वर्ष महंगाई के मौसम में भी कीमतें उतनी नहीं बढ़ने पाई हैं, जितनी पिछले दस वर्षों के कांग्रेस शासन के दौर में बढ़ जाया करती थीं। इस तरह अपने पूर्ववर्तियों से एक कदम आगे बढ़ कर उन्होंने ‘महंगाई का मौसम' नाम की एक अबूझ आर्थिक अवधारणा ईजाद कर डाली है। हालांकि उन्होंने यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि जब महंगाई के मौसम की इतनी सटीक भविष्यवाणी संभव है तो जमाखोरों की मुनाफाखोरी के विरुद्ध समुचित कदम कीमतें बढ़ने से पहले क्यों नहीं उठाए जा सकते।

अब बाजार में रोज महंगाई के खाते में लुटती जनता के सामने विकल्प क्या है? यही कि घर वापसी में रास्ते के खंभों पर लटकते मुनाफाखोरों की कल्पना से खुश हो ले या फिर महंगाई के मौसम के बदलने के इंतजार का लुत्फ उठाती रहे। तेल और गैस के निरंतर बढ़ते दाम से जुड़ी महंगाई को तो जेटली अंतरराष्ट्रीय बाजार से नत्थी कर अपनी सरकार को मुक्त कर ही चुके हैं। इसी अंदाज में मोदी सरकार रेल भाड़े में वृद्धि को यात्रियों के लिए बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने की मुहिम से संदर्भित कर सेवा और सुरक्षा की अपनी तमाम जिम्मेदारियों से पहले ही पल्ला झाड़ चुकी है।

तो क्या आम आदमी की कमर तोड़ने वाली महंगाई का कुल मामला इतना ही है? सब कुछ आलू, प्याज, टमाटर के तुलनात्मक बाजार भाव तक सिमट गया है? पूंजी खेमे के विशेषज्ञ और टिप्पणीकार भी विकास के आह्वान के साथ जनता को ही कमर कसने का संदेश दे रहे हैं। मनमोहन काल के मुकाबले आज उनकी आवाज सरकारी नीतियों में कुछ ज्यादा ही प्रतिबिंबित होती दिख रही है।

उनकी भंगिमाओं से लगता है कि सरकारों की नीतियों और प्राथमिकताओं की महंगाई को बढ़ाने में कोई भूमिका ही नहीं है। जैसे जेटली और मोदी को वास्तव में जनता के हितों की ही एकमात्र चिंता सता रही हो!

दूसरी तरफ, आम आदमी के लिए महंगाई के इस कमरतोड़ दौर में भी कारों के दाम स्थिर हैं, इसके लिए मोदी सरकार ने भी अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकार की तर्ज पर कारों पर एक्साइज की कटौती जारी रखी है। दरअसल, आर्थिक रूप से संपन्न वर्गों के लिए भारतीय ही नहीं, विश्वव्यापी बाजारों को भी सुलभ रखने की जद्दोजहद मोदी सरकार में भी उसी शिद्दत से जारी रखी गई है जैसे मनमोहन सरकार के समय में होती थी। परिणामस्वरूप, भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक संचालन कवायदों के चलते अमेरिकी डॉलर उत्तरोत्तर सस्ता हुआ है। जिन अमीर तबकों के मतलब को साधने का काम डॉलर का यह सस्तापन करता है, उन्हीं के लिए मुनाफा कूटने वाले शेयर बाजार रिकार्डतोड़ ऊंचाई पर पहुंचे हुए हैं।

यह है सरकार की नीयत का असली गोरखधंधा। गरीब के लिए बयानबाजी और रईस को ठोस सहूलियतें! एक बुनियादी सवाल यह भी बनता है कि आखिर ‘महंगाई' है क्या? क्या सिर्फ चीजों की कीमतें बढ़ना महंगाई है? या इसका संबंध अनिवार्य रूप से लोगों की खरीद क्षमता से भी है? पूंजीवादी बाजार-व्यवस्था में बेजरूरत चीजें उपभोक्ता के गले मढ़ने के अलावा, कीमतों का बढ़ते रहना भी विकास की सतत प्रक्रिया का एक स्वाभाविक हिस्सा होता है। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं के दाम स्थिर रखने के लिए सरकारें सबसिडी का सहारा लेती हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में दशकों से खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने नहीं दी गई हैं। पर अपने किसानों की आमदनी में वृद्धि के लिए अमेरिकी सरकार हर वर्ष उनकी फसलों पर सहायता राशि जरूर बढ़ाती रही है। यानी सरकार की पहल से जहां किसान की जेब में अतिरिक्त पैसा आना तय रहता है, वहीं सामान्य उपभोक्ता के लिए उसकी जेब के मुताबिक खाद्यान्न की बाजार में उपलब्धता भी।

कीमत स्थिर रखने का एक अन्य तरीका करों में कमी का है, जैसा कि भारत में कारों के मामले में फिलहाल लागू नजर आता है। दोनों तरीकों से संबंधित उपभोक्ता समूह की खरीद क्षमता का बाजार की कीमतों के साथ संतुलन बनाया जाता है।

भारत में सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन को मूल्य सूचकांक से जोड़ कर उनके लिए महंगाई से संतुलन हासिल करने का मॉडल भी बखूबी चल रहा है। कॉरपोरेट क्षेत्रों में भी कर्मियों के वेतन और बोनस में वृद्धि आम बात है। गृह ऋण, निजी ऋण, शिक्षा ऋण, चिकित्सा भरपाई, छुट््टी भरपाई जैसी सुविधाएं भी सरकारी और कॉरपोरेट क्षेत्रों में उपलब्ध कराई जाती हैं, जो कर्मियों पर बढ़ती कीमतों के असर को रोकने में आर्थिक कवच का काम करती हैं। लिहाजा इन वर्गों के लिए बढ़ती कीमतों का मतलब कमरतोड़ महंगाई न होकर पहुंच भरा विकास होता है। कालाधन भी इन वर्गों की पहुंच का हिस्सा है, जो मौजूदा अर्थतंत्र में इनके लिए सोने में सुहागे जैसी स्थिति बन जाता है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दो माह से ऊपर के शासनकाल में मोदी सरकार ने कालेधन के नाम पर एक रुपया भी पकड़ने की मंशा नहीं दिखाई है। उनकी एक भी आर्थिक कवायद ऐसा कोई संदेश नहीं देती कि सरकारी नीतियों/ प्राथमिकताओं के निशाने पर देश के भीतर रोजाना पैदा होने वाला सैकड़ों-हजारों करोड़ का कालाधन भी आता है। जबकि कालाधन न सिर्फ महंगाई का मुख्य स्रोत है, बल्कि मेहनत के दम पर की जाने वाली वैध कमाई की खरीद-क्षमता में ह्रास का प्रमुख कारक भी। सर्वोच्च न्यायालय के दबाव में विदेशों में जमा कालेधन पर विशेष जांच दल गठित किया गया है। पर अगर सरकार की नीयत वास्तव में कालेधन को समाप्त करने की होती तो अब तक तमाम ज्ञात अपराधी जेलों में होते। बेशक, संबंधित विदेशी सरकारों की शर्तों के अनुसार उनके नाम सार्वजनिक न किए जाएं, पर उनसे पूछताछ कर कालेधन की प्रणाली को तो ध्वस्त किया जा सकता था। इससे महंगाई के मौसम में भी अपेक्षित बदलाव की शुरुआत हो जाती।

महंगाई बढ़ाने में बेलगाम मुद्रास्फीति की भूमिका को मोदी सरकार भी उसी तरह स्वीकार करती है जैसे मनमोहन सरकार करती रही थी। पर दोनों सरकारें इसे कीमतों में वृद्धि से ही जोड़ कर देखती हैं न कि खरीद क्षमता के कम होने से। लिहाजा, खाद्य पदार्थों में महंगाई के आरोपों से घिरने पर इन सरकारों का एक जैसा ‘मासूम' तर्क होता है- इस क्षेत्र में मुद्रास्फीति का रोना। यह ढोल पीटना कि किसान की फसलों के समर्थन मूल्य भी हर वर्ष बढ़ाने पड़ रहे हैं और इसी तरह कृषि और दूसरे श्रमिकों की मजदूरी भी बढ़ाई जा रही है, लिहाजा खाद्य पदार्थ तो महंगे होंगे ही।

आखिर किसानों और मजदूरों का भी तो खयाल रखना है। पर पूंजीशाहों की जेब में बैठी सरकारों के इन दावों की असलियत कुछ और होती है। दरअसल, किसानों और मजदूरों पर भी महंगाई की मार वैसे ही पड़ रही है जैसे समाज के अन्य वर्गों पर। कारण भी वही है- उनकी खरीद क्षमता में उत्तरोत्तर कमी हुई है। सीधा-सा समीकरण यों बनता है कि उनके लिए समर्थन मूल्य या मजदूरी की दर उस अनुपात में नहीं बढ़ाए जा सकते, जिस अनुपात में बाजार में कीमतें बढ़ती हैं।

सरकारी आकलन में खाद्यान्न क्षेत्र की मुद्रास्फीति पर हमेशा प्रश्नचिह्न लगाने को आतुर सरकारें, शासन चलाने के नाम पर की जा रही बेहद फिजूलखर्ची (ताजातरीन उदाहरण- साठ हजार करोड़ रुपए की बुलेट ट्रेन) या सुरसा के मुंह की तरह निरंतर बढ़ते रक्षा व्यय पर कभी अपव्यय का सवाल खड़ा नहीं होने देतीं। न लाखों करोड़ के बट््टे-खाते में पड़े बैंक कर्जों की उगाही की कोई ठोस योजना लेकर सामने आती हैं, न वे धनाढ्य वर्गों से कर उगाहने में अपनी आपराधिक कोताही को ठीक करना चाहती हैं।

करों की उगाही में छूट का धंधा और टैक्स हैवन का तिलिस्म क्या बिना सरकारों की मर्जी के चल रहा है? मुद्रास्फीति के ये आयाम ही आम आदमी के लिए महंगाई के असली आयाम बनते हैं। कालाधन और मुद्रास्फीति की बेलगाम दौड़ में हर मेहनतकश की खरीद क्षमता का उत्तरोत्तर पिछड़ते जाना स्वाभाविक है। ये वे दीमक हैं, जो मेहनत की कमाई के पैसे की खरीद क्षमता को निरंतर चट करते रहते हैं। महंगाई सिर्फ प्याज, आलू और टमाटर की बढ़ती कीमतें नहीं हैं, जिनका रोना कॉरपोरेट मीडिया जोर-शोर से इसलिए उठाता है कि मुद्रास्फीति के व्यापक मुद्दे को खाद्य क्षेत्र तक समेट कर रखा जाए। सरकार की क्रोनी कॉरपोरेट नीतियों ने आम आदमी के लिए आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें भी सपना बना दी हैं। तमाम सरकारें इन क्षेत्रों में अपनी संतुलनकारी भूमिका को मुनाफाखोरों के हवाले करती गई हैं। महंगाई की इन प्रणालियों पर विचार तो दूर, चर्चा भी नहीं होती।

देखा जाए तो उन सीमित वर्गों को छोड़ कर, जिनकी आमदनी में वृद्धि की दर बढ़ती कीमतों से तेज है या वे जो मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार से निर्मित कालेधन की सुरक्षित दुनिया में मुद्रास्फीति के कुचक्र से अछूते बने हुए हैं, शेष भारतीयों की खरीद क्षमता में, उनकी जेब में रुपयों की सांकेतिक वृद्धि के बावजूद, निरंतर ह्रास ही हुआ है। गरीब और निम्न-मध्यवर्गों में ज्यादा और मध्यवर्गों में कुछ कम। तभी उत्तरोत्तर वे जीवन की बुनियादी जरूरतें जुटा पाने में असमर्थ होते गए हैं। उनके जीवन में महंगाई एक कभी न सुलझने वाली पहेली बना दी गई है।


http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=76346:2014-08-22-05-51-33&catid=20:2009-09-11-07-46-16


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