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बढ़ती अशांति और भ्रांति से बेचैन - मृणाल पांडे

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published Published on Dec 4, 2017   modified Modified on Dec 4, 2017
साल 2017 समाप्ति पर है, लेकिन नई सदी के उपजाए सरदर्द घट नहीं रहे। पाकिस्तान में हर दो-तीन महीनों के भीतर कट्टरपंथी गुट उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों को मानव बम से उड़ा रहे हैं। म्यांमार में बौद्ध बहुसंख्य जनता द्वारा रोहिंग्या मुस्लिमों को जबरन भेड़-बकरियों की तरह देश से बाहर हांक दिया गया है और वे हर पड़ोसी देश की सीमा पर बेघर बने डांय-डांय डोल रहे हैं। पहले से ही बड़ी आबादी के तले पिस रहे देशों में से मानवीय आधार पर उनको स्थायी नागरिकता कोई देश नहीं देना चाहता, मुस्लिम देश भी नहीं। म्यांमार से लेकर सीरिया तक एशिया में तनाव है। हर कहीं धार्मिक अल्पसंख्यक गुटों तथा रिफ्यूजियों की आवक को लेकर एक हिंसक गुस्सा फनफना रहा है, जिसके पीछे अपनी पहचान धुंधली होने और सीमित संसाधनों को नई भीड़ के साथ जबरन साझा करने का डर है। लिहाजा कहीं आतंकवाद निरोध के नाम पर नस्ली हिंसा तो कभी बहुसंख्य आबादी की कथित सांस्कृतिक पहचान कायम रखने के नाम पर गुंडागर्दी और दमन के अलोकतांत्रिक शासकीय तरीके खुलकर अपनाने के पैरोकार गुट चुने जा रहे हैं। क्या इसी दिन के लिए सत्रह बरस पहले दुनिया ने 2000 में पटाखे छुड़ाकर नाचते-गाते हुए इस नई सदी का अभिनंदन किया था?

 

 

सबसे अधिक अस्थिरता और भगदड़ का मंजर पश्चिम एशिया में है। तानाशाहों के उजाड़े अफ्रीकी देशों और आतंकी दस्तों तथा अमेरिकी सेना के बीच गोलाबारी से तबाह हो गए देशों से रबर की डगमग नावों पर भेड़-बकरियों की तरह ठुंसकर लाखों बेघर शरणार्थी किसी तरह सर छुपाने को यूरोप का रुख कर रहे हैं। कई तो बीच समंदर में ही डूबकर मर जाते हैं। जो किसी तरह बचकर यूरोप तट तक जा पहुंचे, वे वापस भेजने के लिए तटवर्ती सैन्य कैंपों में बंद कर दिए जाते हैं। समृद्ध और अपेक्षया टिकाऊ विशाल खनिज तेल के मालिक सऊदी अरब में भी बूढ़े शाह ने अपने कथित तौर से सुधारवादी युवा छोटे पुत्र को उत्तराधिकारी बना दिया है, जिसने मध्य एशिया के कई दूसरे तानाशाहों की तरह गद्दीनशीन होते ही लगभग सारे शाही प्रतिस्पद्र्धियों को जेल भेज दिया है। अफसोस यह कि इस घड़ी में वहां कमाल अतातुर्क या नासिर सरीखा कोई सर्वस्वीकार्य अनुभवी नेता क्षितिज पर नहीं है। और पैसे से महरूम किए जा चुके तालिबान अथवा अलकायदा जैसे गुट अब आत्मघाती बमों के गुच्छों में दुनियाभर में ऐसे छितरा गए हैं कि उनका पूरी तरह सफाया करना नामुमकिन लगता है।

 

 

उधर सूचना संप्रेषण की दुनिया, जो लोकतंत्र का चौथा पाया है, दरक रही है। पश्चिम में तो खबरों का सारा कारोबार नेट से ही हो रहा है। हमारे यहां भी स्मार्टफोन तथा लैपटॉप की बढ़ती आवक से सूचना देने, पाने के तरीकों में भी बुनियादी बदलाव आया है। यह गौरतलब है कि विश्वव्यापी नेट को चला रही अभियांत्रिकी की दुनिया में कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स की आमद बहुत तेजी से बढ़ रही है। साथ ही दुनिया के हर देश में आर्थिक असमता और मानवीय बेरोजगारी भी। विशेषज्ञों का ताजा आकलन है कि दुनिया की सारी दौलत आज एक फीसदी से कम तादाद के धनकुबेरों के पास सिमट गई है। लिहाजा अमीर, गरीब, विकसित, अविकसित हर देश जनाक्रोश की गिरफ्त में है।

 

 

उधर शेष दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की किसी हद तक ढाल बना रहा अमेरिका भी आज चीन की सुरसाकार अर्थव्यवस्था से आतंकित होकर एशिया, यूरोप की सुरक्षा पर सनकी और बदमिजाज तेवर दिखाने लगा है। इसी के साथ वो और चीन अपने-अपने हित स्वार्थों के तहत हमारे महाद्वीप में कुछ नई आक्रामक गुटबंदियां बनवा रहे हैं, जो टकराव होने पर महाशक्तियों से कहीं अधिक छोटे देशों को भारी पड़ेंगी। हाथियों की लड़ाई में नीचे घास ही तो नाहक पिसती है। अगर चुनावी मैदान के बजाय राजनीति कुछेक धार्मिक जनूनी गुटों या फौजी छावनियों में ही आकार पाने लगे, मुख्यधारा का आजाद मीडिया बार-बार कुचला जाए और आजादख्याल बुद्धिजीवियों को जेल भेज दिया जाए, तब कई खतरनाक नई वैचारिक गुटबंदियां और क्रांतियां पनपती हैं, जिसमें सूचना तकनीकी भारी कारक बनती है। पर 2017 में इन सभी देशों में विश्वव्यापी नेट तथा टि्वटर और फेसबुक सरीखे माध्यमों के फेक न्यूज तथा सायास ट्रोलिंग से हो रहे प्रदूषण को लेकर इसीलिए कई शंकाएं पनप रही हैं। नेट की तकनीकी के जानकारों को भय है कि उसकी सर्वसुलभता और स्पीड उसे काली माफिया के हाथों का खिलौना बनाती जा रही है।

 

 

अमेरिका में हालिया शोध ने 2800 ऐसे छायागुटों को चिन्हित किया है जो हैकिंग व नेट की भाषा की जड़, अल्गोरिद्म में महीन तब्दीली लाकर किसी भी ग्राहक को गोपनीयतम सरकारी, कॉर्पोरेट और अमीरों के गुप्त खातों की बाबत खुफिया जानकारियां मोटी फीस के एवज में दे रहे हैं। इसी के साथ वे मुख्यधारा की खबरों में मॉर्फ की गई तस्वीरों, फेक खबरों तथा वीडियो को डलवाकर चुनावी प्रतिस्पद्र्धियों की बाबत जनता में भ्रम फैलाने के लिए भी सुपारी ले रहे हैं। ऐसी सभी संदिग्ध साइटों के ठिकाने मूल देश से दूर किसी छोटे से मुल्क या द्वीप में रखे जाते हैं, जो बड़ी आसानी से बदले जा सकते हैं। अमेरिका के ताजा चुनावों के दौरान और उसके बाद प्रकटे कई गोपनीय प्रकरणों को लेकर कहा जा रहा है कि नेट की इस पाताली सूचनाधारा का फायदा दुनिया का तकरीबन हर चालाक सियासी दल, फौजी नेता या कट्टरपंथी गुट उठा रहा है। ऐसे में इस बात पर सवाल उठना स्वाभाविक है कि भविष्य में आम चुनाव कितने साफ-सुथरेपन और वैधानिक रूप से कराए जा सकेंगे? एक पाठक ने मार्मिक सवाल पूछा है कि इस सर्वव्यापी सूचना प्रदूषण और विश्व्यापी आतंकवाद के दबावों के बीच हमारे सरीखे अर्द्धसाक्षर, पिछड़े देशों में नेतृत्व पर भरोसे का कोई ठोस आधार बचा है, जिसके बूते हम लोकतंत्र की आस का दीया जलाए रख सकें? उनको याद दिलाना होगा कि माओ या लेनिन चीन और रूस में जिस जनता की मदद से सफल क्रांति कर स्थायी बदलाव लाए, वह भी लगभग अपढ़, भाग्यवादी और आज प्रगति मापने के कई पैमानों पर बेहद पिछड़ी थी। 1920 का वह भारत, जिसके आमजन को गांधी ने संगठित कर सदियों से चले आ रहे अंग्रेजी शासन से सफलतापूर्वक लोहा लिया, आज की तुलना में बेहद अजागृत और पिछड़ा ही दिखता है। फिर भी वे क्रांतियां 1857 के गदर , 1967 में फ्रांस के छात्रों की लंबी हड़ताली पहल या थ्येनानमन चौक की क्रांति की तुलना में सफल रहीं। और उसके बाद भी मालवीय, टैगोर, आजाद, होमी भाभा, सीवी रमन और विक्रम साराभाई सरीखे नेताओं ने बेहतरीन उच्चशिक्षा शोध केंद्रों का निर्माण किया।

 

 

स्थायित्व के लिए लोकतंत्र में तीन बातें जरूरी हैं : शिक्षित वृहत्तर समाज (सिविल सोसाइटी) , धार्मिक सहिष्णुता और तरक्कीपसंद अंतरराष्ट्रीय मंचों से जुड़ाव। एक उदारवादी वृहत्तर समाज, जिसमें स्त्री-पुरुष, इस्लामी-गैरइस्लामी, अगड़े-पिछड़े-दलित सभी तरह के नागरिकों के बीच आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समता बने, जो शस्त्र के बजाय तर्क पर आधारित संवाद कर सकें, सिर्फ बड़बोले भाषणों के दम पर बनाना मुश्किल है। एक सार्थक क्रांति के लिए सिर्फ भावनात्मक उफान या बड़ी तादाद में जुनूनी नारेबाज भीड़ से काम नहीं चलता। ठंडे दिमाग और एक साफ दर्शन से प्रेरित, अनुशासित और दीर्घकालिक रणनीति देने वाला नेतृत्व सबसे जरूरी है।

 

 

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं)


बढ़ती अशांति और भ्रांति से बेचैन - मृणाल पांडेhttp://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-restlessness-because-of-increas


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