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न्यूज क्लिपिंग्स् | मनमाने उपचार से बढ़ता मर्ज --- मोनिका शर्मा

मनमाने उपचार से बढ़ता मर्ज --- मोनिका शर्मा

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published Published on Aug 18, 2016   modified Modified on Aug 18, 2016

हाल ही में अपने ‘मन की बात' कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने एक सामान्य-सी बात कही, जो सेहत के लिहाज से न केवल हमारे आज, बल्कि आने वाले कल के संदर्भ में भी बेहद जरूरी बात है। उन्होंने कहा कि ‘‘डॉक्टर के कहने पर ही एंटीबायोटिक लें, चिकित्सकों के निर्देश के बिना एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन न करें। एंटीबायोटिक दवाएं लेने की आदत एक बड़ी समस्या उत्पन्न कर सकती है। यह कुछ देर के लिए आपको राहत दे सकती है, लेकिन चिकित्सकों के निर्देश के बिना आपको एंटीबायोटिक दवा कभी नहीं लेनी चाहिए।'' प्रधानमंत्री की यह अपील वाकई महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे यहां इन दवाओं के दुष्प्रभावों को जाने-समझे बिना ही लोग खुद डॉक्टर बन बैठते हैं और इन दवाओं का अंधाधुंध और असावधानीपूर्वक सेवन करते हैं। यह वाकई एक चिंतनीय बात है कि आज की भागमभाग भरी जीवन-शैली में हर आयु वर्ग के लोग इन दवाओं का बेझिझक सेवन कर रहे हैं।


गौरतलब है कि कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एंटीबायोटिक दवाओं के इसी अंधाधुंध इस्तेमाल पर चिंता जताते हुए भारत समेत दक्षिण पूर्वी एशिया के सभी देशों को आगाह किया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से चेताया गया था कि अगर एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल को सीमित नहीं किया गया तो आने वाले समय में माइक्रोबियल प्रतिरोध के कारण होने वाली मौतों में भारी इजाफा हो सकता है।

दरअसल, इन औषधियों से जुड़ी एक अहम चिंता यह है कि एंटीबायोटिक दवाएं या तो बैक्टीरिया को खत्म कर देती हैं या उनकी वृद्धि को रोक देती हैं, लेकिन इनका लगातार इस्तेमाल करते रहने से बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन के कारण प्रतिरोध क्षमता पैदा हो जाती है। इसके चलते ऐसी दवाएं असर करना ही बंद कर देती हैं। इसी को माइक्रोबियल प्रतिरोध कहा जाता है। इसके लिए एंटीबायोटिक औषधियों के अंधाधुंध इस्तेमाल को सबसे अधिक जिम्मेदार माना जाता है। देखने में आता है कि कई बार छोटी-छोटी बीमारियों के लिए भी एंटीबायोटिक दवाएं ले ली जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों में चूंकि बीमारी गंभीर नहीं होती, इसीलिए इलाज भी अधूरा ही रह जाता है, जिसके चलते बैक्टीरिया उस दवा के प्रति प्रतिरोध पैदा कर लेते हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि इन दवाओं के सेवन के मामले में बरती जा रही ऐसी लापरवाहियों के चलते आने वाले वर्षों में सामान्य उपचार से ठीक हो सकने वाली कुछ बीमारियां भी लाइलाज हो जाएंगी, क्योंकि एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल से उनके खिलाफ तेजी से प्रतिरोधी माइक्रोबियल पैदा हो रहे हैं। सोचने वाली बात है कि इन दवाइयों का असर खत्म हो जाने से हम हमेशा के लिए उपचार का एक बेहतर जरिया खो देंगे। क्योंकि कई व्याधियों के लिए बनाई गई एंटीबायोटिक दवाएं ऐसी हैं, जिनका अभी तक हमारे पास कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। ऐसे में इन औषधियों का बेअसर होना वाकई चिंता की बात है। वह भी इनके अधिक मात्रा में सेवन किए जाने के चलते। अगर इस पर उचित कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक दुनिया में एंटी माइक्रोबियल प्रतिरोध से मरने वालों की संख्या एक करोड़ तक पहुंच जाएगी, जिसका एक बड़ा हिस्सा भारत समेत दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में होगा। इससे भारी जनक्षति तो होगी ही, सकल घरेल उत्पाद का 2 से 3.5 फीसद तक का नुकसान हो सकता है। निस्संदेह जिस स्तर और दर से एंटीबायोटिक दवाएं अपना असर खो रही हैं, यह भारत के लिए भी चिंता का विषय है।

कुछ समय पहले इंग्लैंड की हेल्थ प्रोटेक्शन एजेंसी नाम की संस्था ने भी चेतावनी देते हुए कहा था कि एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो रही है, जो सेहत के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। इस संस्था का भी यही कहना था कि छोटे-मोटे संक्रमण के लिए भी एंटीबायोटिक का बेवजह इस्तेमाल हो रहा है, जिससे बैक्टीरिया इनके प्रति तीव्रता से प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रहे हैं। स्वास्थ्य से जुड़ी इस चिंता के ऐसे हालात आज दुनिया भर के देशों में सामने आ रहे हैं। बावजूद इसके, इन दवाओं के दुरुपयोग से विकसित देश भी नहीं बच पाए हैं। हालांकि वहां के हालात इतने भयावह नहीं हैं।

अकेले यूरोप में हर साल पच्चीस हजार मौतें बैक्टीरिया में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध का सामर्थ्य पैदा करने के कारण ही हो रही हैं। इन दवाओं के अधिक इस्तेमाल के चलते बैक्टीरिया में बढ़ रही प्रतिरोधक क्षमता दुनिया के हर हिस्से में देखने को मिल रही है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन लंबे अरसे से इस समस्या को लेकर दुनिया भर के देशों को चेताने की कोशिश में जुटा है। एंटीबायोटिक दवाओं की बढ़ती खपत और नुकसान को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पहली बार 2011 में सभी देशों से अपील की थी कि सरकारें इन औषधियों के उपयोग पर लगाम लागाएं। क्योंकि दुनिया भर में हर साल चालीस लाख लोग केवल इसलिए अपनी जान गंवा देते हैं कि उन पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर नहीं होता। ध्यान देने वाली बात है कि यह आंकड़ा टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों से होने वाली मौतों से भी अधिक है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार हर भारतीय साल में करीब ग्यारह बार एंटीबायोटिक दवाएं खाता है। यह आंकड़ा वाकई गौर करने वाला है, क्योंकि यहां बात केवल एंटीबायोटिक दवाएं लेने की नहीं है। दवाओं के सेवन को लेकर बरती गई यह असावधानी कई और स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म देती है। दुनिया भर में होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं की खपत का 4.76 फीसद हिस्सा केवल भारत, ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में खप जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समय के साथ एंटीबायोटिक औषधियों का प्रचलन और बढ़ा है। कुछ ही समय पहले एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर भारत के संबंध में डब्ल्यूएचओ ने एक अध्ययन भी करवाया था। उसमें यही बात सामने आई थी कि हमारे यहां आधे से अधिक लोग इन दवाओं के नकारात्मक पक्ष को दरकिनार कर चिकित्सीय परामर्श के बिना ही इनका सेवन करते हैं, जो कि सेहत के लिए बहुत घातक है।
हमारे यहां लोगों का सर्दी-जुकाम और बुखार जैसी छोटी-मोटी तकलीफों में खुद दवाएं खरीद कर खाना खतरनाक साबित हो रहा है। इतना ही नहीं, भारत में ब्रांड के नाम से हजारों दवाइयां बेची जा रही हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गिनती की दवाओं को ही अनुमोदित किया है। यह भी बेहद नुकसानदेह है, क्योंकि इसके चलते बिना गुणवत्ता जांचे ही कई दवाइयां बाजार में बिक रही हैं, जो निश्चित रूप से घातक हैं और आने वाले समय में भी नुकसानदेह साबित होंगीं। इसी अनदेखी का परिणाम है कि कभी स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाली एंटीबायोटिक दवाएं आज स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई हैं।

यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सभी राष्ट्रों को आगाह किया था कि वे एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर नजर रखने के लिए एक तंत्र विकसित करें। ताकि इन दवाओं के उचित इस्तेमाल को लेकर कुछ नियम बनाए जा सकें। ऐसा करने पर एंटीबायोटिक दवाओं को न तो डॉक्टर अनावश्यक रूप से लिख सकेंगे और न मरीज अपनी मर्जी से खरीद कर इनका सेवन कर पाएंगे। साथ ही स्वास्थ्य से जुड़ी इस चिंता से निपटने के लिए एक जन-जागरूकता अभियान की भी आवश्यकता है।

सरकार और समाज दोनों को समझना होगा कि यह स्वास्थ्य से जुड़ा एक अहम मुद्दा है। इसीलिए जरूरी है कि इसके लिए औषधि विक्रेताओं के साथ-साथ मरीजों को भी सचेत किया जाए, ताकि वे बिना डॉक्टर की अनुमति के एंटीबायोटिक दवाएं न बेच सकें और ये दवाएं मनचाहे ढंग से मरीजों तक न पहुंचें। महानगरों तक में लोग दवा विक्रेताओं की सलाह पर या खुद एंटीबायोटिक का सेवन करने लगते हैं। जब महानगरों में यह स्थिति है तो दूर-दराज के गांवों में क्या हाल होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। वहां कई दवा विक्रेता डॉक्टर की तरह परामर्श देते देखे जाते हैं। इससे गरीब लोगों को बिना डॉक्टर की फीस चुकाए आसानी से उपचार मिल जाता है।

ये सभी बातें इसलिए विचारणीय हैं कि एंटीबायोटिक दवाओं के सेवन से जुड़ी लापरवाही न केवल व्यक्तिगत रूप से किसी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि समग्र रूप से समाज के लिए भी बहुत नुकसानदेह है। इसलिए आवश्यक है चिकित्सक, मरीज और दवा विक्रेता सभी समय रहते सचेत हों, वरना आधुनिक चिकित्सा लगभग असंभव हो जाएगी।
ऐसे में एंटीबायोटिक औषधियों के इस्तेमाल को लेकर सतर्कता रखना जरूरी है, क्योंकि भारत में आज भी इन दवाओं के सेवन को लेकर एक गैर-जिम्मेदारी का भाव दिखता है। एक बड़ी चिंता की अनदेखी की जा रही है।

ऐसे में इन औषधियों के नुकसान से बचने का विकल्प यही है कि इनका इस्तेमाल सावधानीपूर्वक किया जाए। इन दवाओं को निष्प्रभावी होने से रोकने के लिए आमजन को इतना जागरूकता तो होना ही होगा कि बेवजह इनका उपयोग न करें। साथ ही हमें स्वस्थ जीवन-शैली अपना कर कई व्याधियों से बचने की सोच भी अपने अंदर लानी होगी। यह समझना होगा कि स्वास्थ्य से जुड़े वे हालात कितने तकलीफदेह हो सकते हैं, जब इन दवाओं का असर न होने पर सर्दी, खांसी या शरीर पर लगी मामूली चोट भी जानलेवा साबित होगी। न जाने कितनी व्याधियों के उपचार के विकल्प ही नहीं बचेंगे।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-editorial-page-man-ki-baat-doctors-prime-minister-modi/132141/


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