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न्यूज क्लिपिंग्स् | मर रहे हैं मनरेगा मजदूर-ब्रजेश कुमार झा

मर रहे हैं मनरेगा मजदूर-ब्रजेश कुमार झा

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published Published on Feb 21, 2014   modified Modified on Feb 21, 2014
पार्वती देवी की बात सुनकर कोई भी सन्न रह जाएगा। वह कहती है, “मनरेगा की वजह से मेरे पति की जान चली गई।”

पार्वती देवी दत्ता मघादे की विधवा है। उम्र 45 साल है। गरीबी में डूबी है। इसके बावजूद आगे कहती है, “मैं जिंदगी में दोबारा मनरेगा मजदूरी नहीं करुंगी।” पार्वती देवी जो बता रही है, उससे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की हकीकत बेपर्दा होती है। हालांकि, इसी योजना के बाबत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दावा करते रहे हैं, “मनरेगा संप्रग सरकार की सबसे लोकप्रिय और सफल योजनाओं में से एक है।” यह संप्रग सरकार का विचित्र सच है कि उसकी सबसे सफल और लोकप्रिय योजना ही जानलेवा हो गई है। लोग उससे घृणा करने लगे हैं।

बात 7 जुलाई, 2013 की है। वह एक सामान्य सुबह थी, लेकिन पार्वती देवी के लिए भारी विपदा लेकर आई। उसके पति दत्ता मघादे ने गले में फंदा लगाकर जान दे दी थी। यह घटना महाराष्ट्र के बुलधाना जिले के टिटवी गांव की है। यह भूमिहीन परिवार मनरेगा मजदूर था। उसके जीने का यह आधार बना चुका था। हां, मुश्किलें उस वक्त बढ़ गईं, जब आठ महीने के आस-पास काम करने के बावजूद बतौर मजदूरी चवन्नी भी नहीं मिली। दूसरी तरफ कर्ज का दबाव था, जो बढ़ता ही जा रहा था। पार्वती ने कहा, “कर्ज का बोझ और अपमान बर्दास्त नहीं कर पाने की वजह से उसने आत्महत्या कर ली।” यह एक घटना नहीं है। इसकी सूची है, जिसमें उन मजदूरों का नाम-पता है, जिसने मनरेगा मजदूरी न मिलने की वजह से आत्महत्या कर ली। पत्रकार संदीप पाई ने छानबीन कर इस बाबत खबर दी, जिसे 29 दिसंबर, 2013 को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने छापा।  

इस खबर में लक्ष्मी की भी चर्चा है। वह महज 13 साल की है। मनरेगा मजदूरी न मिलने की वजह से लक्ष्मी के पिता प्रह्लाद कोकटे ने जहर खाकर जान दे दी थी। यह घटना 14 अक्टूबर, 2012 की है। 38 साल का प्रह्लाद महाराष्ट्र के बुलधाना जिले के टिटवी गांव का निवासी था। इस घटना के बाद मां संगीता के लिए परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया था। तब पढ़ाई छोड़कर लक्ष्मी को मजदूरी करनी पड़ी। संदीप से बातचीत में लक्ष्मी कहती है, “यदि मेरे पिता जीवित होते, तो मुझे अपनी पढ़ाई नहीं छोड़नी पड़ती।” खोज-बीन के बाद जो बातें सामने आई हैं, उसका सार यही है कि उचित समय पर मनरेगा मजदूरी की रकम न मिलने से तंग आकर प्रहलाद ने आत्महत्या कर ली। इस बाबत जो रिपोर्ट दर्ज हुई है, उसकी प्रारंभिक जांच में जिले से पुलिस अधिकारी ने माना है कि योजना के सही तरीके से क्रियान्वयन न होने की वजह से यह घटना घटी।

मनरेगा को लेकर अंजना गोरे का अनुभव भी कम दर्दनाक नहीं है। वह साफ शब्दों में कहती है, “मैं बंधुआ मजदूरी करने को तैयार हूं, लेकिन मनरेगा मजदूरी नहीं कर सकती। इस योजना ने मेरे पति की जान ले ली है।” घटना 28 अगस्त, 2011 की है। अंजना के पति अमरुत गोरे ने इस तारीख को आत्महत्या कर ली थी। अंजना का दावा है कि वे दोनों 2009-2011 तक महाराष्ट्र के सिलोड तहसील के विभिन्न गांवों में मनरेगा मजदूरी करते थे, लेकिन बतौर मजदूरी हफ्ते में उन्हें सिर्फ 200 रुपए मिलते थे। इससे अमरुत गोरे तनाव में था। सरकारी अमला ने भी स्वीकारा है कि उक्त स्थान पर मजदूरी के भुगतान को लेकर गड़बड़ी थी। महाराष्ट्र से ऐसे दूसरे उदाहरण भी हैं। हालांकि, सूबे में कांग्रेस  पार्टी सत्ता में है। इसके बावजूद वह अपनी योजना को सही तरीके से लागू करा पाने में असफल दिखाई देती है।

मनरेगा मजदूरों की आत्महत्या की खबरें झारखंड से भी मिलती हैं। 8 जनवरी, 2012 को खबर आई थी कि झारखंड के पांकी प्रखंड के होताई गांव में मनरेगा कूप निर्माण में मजदूरी का भुगतान नहीं किए जाने से तंग आकर जग्गू भुइयां ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। बताया जाता है कि अप्रैल 2011 में उसे एक कूप निर्माण का काम मिला था। 10 मजदूरों के साथ मिलकर जग्गू ने इस काम को पूरा किया था। इसकी लागत 1,81,951 रुपए थी, लेकिन मजदूरों को केवल 14,280 रुपए का भुगतान किया गया। इसी दौरान बरसात में कुआं क्षतिग्रस्त हो गया। इस वजह से उसे बची हुई राशि का भुगतान नहीं किया गया। जग्गू महीनों प्रखंड कार्यालय के चक्कर काटता था। दूसरी तरफ अन्य मजदूर उसपर मजदूरी भुगतान के लिए दबाव बना रहे थे। आखिरकार प्रशासनिक लापरवाही और सामाजिक तानों से तंग आकर मनरेगा जॉब कार्ड धारी जग्गू भुइयां ने आत्महत्या कर ली।

सूबे में मनरेगा मजदूर की आत्महत्या का यह पहला मामला नहीं है, बल्कि दूसरे उदाहरण भी हैं। मनरेगा मजूदर तपस सोरेन ने भी मजदूरी के भुगतान प्रक्रिया से तंग आकर आत्महत्या की थी। वह घटना 2 जुलाई, 2008 की है। उसकी पत्नी का दावा है कि वह कई महीने बैंक, पंचायत सेवक और ब्लॉक विकास पदाधिकारी के दफ्तर का चक्कर लगाता रहा। आखिरकार तंग आकर उसने अपनी जान दे दी। आखिर ऐसा क्यों है? इस सवाल का जवाब मनमोहन सरकार नहीं दे रही है। हालांकि, इसे वह अपनी उपलब्धियों में शुमार करती है। पर, सच्चाई यह है कि जिस मजदूरी का भुगतान नियम के मुताबिक 15 दिनों के भीतर होना था, वह तीन-तीन सालों से अटका पड़ा है। ताज्जुब की बात यह भी है कि कई स्थानों में जिन लोगों को मनरेगा मजदूरी मिल रही है, उनकी मृत्यु काफी पहले ही हो चुकी है। लेकिन, उनके नाम से पैसा निकाला जा रहा है। ऐसी खबरें आती रही हैं। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले की सच्चाई ‘सूचना के अधिकार’ के तहत सामने आ चुकी है।

14 जुलाई, 2012 को मनरेगा की समीक्षा रिपोर्ट जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि मनरेगा के तहत हो रहे काम के बाद भुगतान में हो रही देरी चिंता का विषय है। इस खामी को तुरंत दूर किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि इससे बाद भी मजदूरी के भुगतान में देरी की वजह से आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। दिसंबर, 2013 के आंकड़े बताते हैं कि इस योजना के तहत 60 प्रतिशत राशि का ही उपयोग किया जा सका है। वहीं हर तीसरा मजदूर देर से मजदूरी माने को विवश है। 

दीवान ई-मेल से साभार, Deewan


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