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न्यूज क्लिपिंग्स् | महंगाई की आग- परंजय गुहाठाकुरता

महंगाई की आग- परंजय गुहाठाकुरता

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published Published on Nov 23, 2011   modified Modified on Nov 23, 2011
महंगाई की समस्या आज विकराल होती जा रही है, तो इसके लिए सरकार और उसकी नीतियां ही जिम्मेदार हैं। हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का लोहा दुनिया मानती है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक कह चुके हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने में मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां मददगार साबित हो सकती हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि वही मनमोहन सिंह अपनी अर्थव्यवस्था को मंदी के भंवर से बाहर निकालने में सक्षम नहीं हो पा रहे। केंद्र में एक वाणिज्य मंत्रालय है, वित्त मंत्रालय है, कृषि मंत्रालय है, उपभोक्ता मामले का मंत्रालय है, योजना आयोग है और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार भी हैं। इतने सारे मंत्रालय और विशेषज्ञ मिलकर भी अर्थव्यवस्था को सही दिशा नहीं दे पा रहे। असल बात तो यह है कि इनमें कोई आपसी तालमेल ही नहीं है। कभी सरकार मूल्यवृद्धि के लिए प्राकृतिक कारणों को जिम्मेदार ठहराती है, कभी राज्य सरकारों को जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहती है, तो कभी वह महंगाई का ठीकरा अपने गठबंधन सहयोगियों पर फोड़ती है। इससे इस मोरचे पर उसकी असहायता का साफ-साफ एहसास होता है। खाद्य-पदार्थों की महंगाई का असर गरीबों पर सबसे अधिक होता है। उसकी पूरी आमदनी खाद्यान्नों की खरीद में ही चली जाती है। लिहाजा बढ़ती महंगाई का सीधा असर उसके पेट पर पड़ता है।
सरकार की आयात-निर्यात नीति को ही देखें, तो पता चल जाएगा कि वह किस तरह की गलतियां करती जा रही है। वर्ष २००९ में जब हमारे पास चीनी इफरात में थी, तब सरकार ने उसके निर्यात का फैसला ले लिया। और आज हम उसका आयात करने के लिए मजबूर हैं। डेढ़-दो साल पहले जिस दर पर हमने चीनी दूसरे देशों को भेजी थी, आज उससे दोगुने दाम पर बाहर से मंगा रहे हैं। प्याज के साथ भी यही हुआ। यह सच है कि नासिक में हुई बारिश के कारण प्याज का उत्पादन घटा है, जिससे उसके भाव बढ़े हैं। लेकिन थोड़े दिनों पहले हमने प्याज का निर्यात किया था, जबकि आज उसके आयात की मजबूरी है। यह विसंगति ही है कि जिस दौर में हम खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर हो चुके हैं, जब सरकारी गोदामों में सैकड़ों टन गेहूं सड़ते रहते हैं, ठीक उसी दौर में हमें गेहूं के आयात के लिए विवश होना पड़ता है। इससे यही पता चलता है कि हमारा कृषि उत्पादन चाहे जितना भी बढ़ गया हो, हम अपने कृषि उत्पादों के रख-रखाव और उसके प्रबंधन में बुरी तरह विफल हुए हैं। यही नहीं, खाद्यान्नों के मोरचे पर न तो हमें हमारी शक्ति या उपलब्धि की पहचान है और न ही अपनी कमी का एहसास।
बढ़ती महंगाई के लिए एक तर्क यह दिया जाता है कि मध्यवर्ग की आय बढ़ने के कारण खाद्य-पदार्थों की मांग बढ़ी है और उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ा है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सचाई यह है कि मध्यवर्ग की आय बढ़ी नहीं है, बल्कि कम हुई है। खाद्यान्न मुद्रास्फीति आज १६ फीसदी है। बेशक इसमें थोड़ी कमी आई है, लेकिन यह समझना होगा कि मुद्रास्फीति के कम होने का मतलब जिंसों के दाम घटना नहीं है। सच तो यह है कि खाद्य पदार्थों की निरंतर बढ़ी हुई कीमत के कारण मध्यवर्ग की आय का बड़ा हिस्सा भी उसी पर खर्च हो रहा है। इस तरह से उसकी वास्तविक आय कम हो रही है। गरीबों के विपरीत मध्यवर्ग की आय का बड़ा हिस्सा खाद्य पदार्थों पर ही खर्च नहीं होता। लेकिन पिछले काफी समय से खाद्य पदार्थों में मूल्यवृद्धि के कारण मध्यवर्ग भी अपनी आय का बड़ा हिस्सा इसी में झोंक रहा है, जिससे दूसरी मदों में मांग कम होने लगी है। अभी औद्योगिक उत्पादन का ताजा आंकड़ा आया है। नवंबर, २००९ में औद्योगिक उत्पादन की दर ११.३ प्रतिशत थी, जो नवंबर, २०१० में गिरकर २.७ फीसदी रह गई। जिस मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का औद्योगिक उत्पादन की ऊंची उड़ान के पीछे सर्वाधिक योगदान रहता है, वह क्षेत्र आज बदहाल है। ऐसा क्यों हुआ? साफ है कि खाद्य पदार्थों की खरीदारी में ही आय का बड़ा हिस्सा खर्च कर देने वाले मध्यवर्ग के पास दूसरी चीजों की मांग नहीं रह गई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी स्वीकार किया है कि मुद्रास्फीति की ऊंची दर ही औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के लिए जिम्मेदार है। लिहाजा खाद्य पदार्थों की महंगाई केवल गरीबों और मध्यवर्ग के लिए नहीं, बल्कि हमारी पूरी अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चिंताजनक है।
ऐसे में, बेहतर यही है कि मूल्यवृद्धि पर अंकुश लगाने के लिए सरकार जरूरी कदम उठाए। हालांकि रिजर्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दर बढ़ाकर महंगाई को थामने का संकेत दिया है। इस तरह के मौद्रिक उपाय से तरलता जरूर थोड़ी कम हो जाएगी, लेकिन यह कदम दीर्घावधि में हमारी अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक हीहोगा। इसलिए उचित यह होगा कि सरकार आर्थिक मोरचे पर मंत्रालयों के बीच तालमेल बनाए। यह नहीं होना चाहिए कि प्रधानमंत्री तो महंगाई पर चिंता व्यक्त करें और कृषि मंत्री दो टूक कह दें कि कीमतों में कमी अगले दो महीने तक संभव नहीं। इस बीच वित्त मंत्रालय में फेरबदल की भी सुगबुगाहटें हैं, क्या इससे महंगाई पर अंकुश लग जाएगा? सरकार को चाहिए कि वह बेलगाम होती जा रही महंगाई को थामने के लिए जमाखोरी-सट्टाबाजारी के खिलाफ कठोर कार्रवाई करते हुए अपनी आयात-निर्यात नीति को दुरुस्त करे। केवल कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी करने और खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर होना ही काफी नहीं है, बल्कि उसके रख-रखाव और प्रबंधन में भी कुशलता जरूरी है। महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए वायदा बाजार पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी लंबे समय से की जा रही है, लेकिन सरकार के कान में जूं नहीं रेंग रही। महंगाई को थामने के लिए अगर अब भी सरकार सक्रिय नहीं हुई, तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी।

http://www.amarujala.com/Vichaar/columnist/pranjay/Inflation-fire-44-128.html


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