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न्यूज क्लिपिंग्स् | महंगाई पर नजर, विकास पर असर- शंकर अय्यर

महंगाई पर नजर, विकास पर असर- शंकर अय्यर

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published Published on Sep 24, 2014   modified Modified on Sep 24, 2014
हम मुद्रास्फीति को अपनी अर्थव्यवस्था पर असर न डालने देने के बारे में प्रतिबद्ध हैं- सात अगस्त, 1966
हमें मुद्रास्फीति की चुनौती के खिलाफ एकजुटता से और लक्ष्यबद्ध होकर लड़ना होगा- 25 जुलाई, 1974
यह याद रखना होगा कि मुद्रास्फीति गरीब और कमजोर तबके पर करारा वार करती है- 13 जनवरी, 1981
- इंदिरा गांधी

मुद्रास्फीति से भारत का युद्ध कभी न खत्म होने वाला धारावाहिक है, जो हर दशक के टेलीविजन स्क्रीन पर अपने इतिहास के साथ अवतरित होता है। ऐसा कोई बजट नहीं, जिसमें मुद्रास्फीति पर चिंता न जताई गई हो, ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना नहीं, जिसमें इस बारे में संदेश न रहा हो, ऐसा कोई चुनाव नहीं, जिसमें यह मुद्दा न बनी हो, और ऐसी कोई सरकार नहीं, जिसने इस पर अंकुश लगाने के लिए जद्दोजहद न की हो। मुद्रास्फीति के साथ हमारी लड़ाई को प्रतिबिंबित करने के लिए इंदिरा गांधी के इन तीन उद्धरणों से बेहतर उदाहरण दूसरे नहीं हो सकते।

सिद्धांत के मुताबिक, उच्च मुद्रास्फीति गरीबों को सर्वाधिक चोट पहुंचाती है, क्योंकि यह उनके उपभोग पर अघोषित कर जैसी होती है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए इसे नियंत्रण में रखना बहुत जरूरी है। पारंपरिक ज्ञान मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए ब्याज दर बढ़ाने की बात करता है, ताकि महंगा कर्ज और पूंजी की कम उपलब्धता मांग पर रोक लगाए। भारत का अनुभव कुछ और है। यहां ऊंची ब्याज दर मांग कम करती है, जिससे विकास दर भी घटती है, पर इसके जरिये मुद्रास्फीति पर अंकुश लगने के उदाहरण कम मिलते हैं।

मार्च, 2010 से सितंबर, 2014 तक पचपन महीनों में भारतीय रिजर्व बैंक ने सोलह बार रेपो दर बढ़ाई। क्या इसका मुद्रास्फीति पर कोई असर पड़ा? जाहिर है, नहीं। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (जो आम उपभोक्ता से जुड़ा होता है) 2010-11 में 10.5 फीसदी 2011-12 में 8.4 फीसदी, 2012-13 में 10.2 फीसदी, 2013-14 में 9.5 और इस साल अप्रैल से अगस्त के बीच औसतन 7.9 फीसदी रहा। 2010 से 2011 के बीच रिजर्व बैंक ने सात बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी की, फिर भी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक औसतन दोहरे अंकों में बना रहा। इसने विकास को प्रभावित किया, लगातार दो वर्षों तक आर्थिक विकास दर पांच फीसदी से नीचे रही। इस व्यर्थता ने षड्यंत्रकारी विकृति को जन्म दिया। बड़े कॉरपोरेट घरानों को सस्ता कर्ज मिला-चाहे वे भारत में कर्ज लें या विदेश में। इसका सुबूत डॉलर की उधारी में हुई बढ़ोतरी में मिला। सरकार साढ़े आठ फीसदी ब्याज की दर से कर्ज लेती है। होम लोन लेने वाले साढ़े दस फीसदी से अधिक ब्याज चुकाते हैं। ऑटो लोन प्रति लाख 1,800 रुपये पड़ता है, छात्रों के ऋण की दर सोलह प्रतिशत से अधिक है। छोटे कारोबार करने वालों को, जिसमें छह करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है, 15 प्रतिशत से अधिक की दर से कर्ज लेना पड़ता है, और लघु वित्त संस्थानों से कर्ज लेने वाले गरीबों व किसानों को 25 फीसदी से अधिक की ब्याज दर चुकानी पड़ती है। जबकि घरेलू निवेशकों की प्राप्ति कई बार नकारात्मक होती है।

समस्या रोग के निदान में नहीं है, बल्कि इसके नुस्खे में है। मुद्रास्फीति का कारण प्रायः इससे तय होता है कि सरकार आय और व्यय में कैसे संतुलन बिठाती है। पारंपरिक सिद्धांतवादियों के मुताबिक, मुद्रास्फीति वह स्थिति है, जिसमें बाजार में धन तो बहुत होता है, पर उस अनुपात में खरीदने के लिए वस्तुएं कम। भारत में मुद्रास्फीति को भारी उधारी की तुलना में कम प्राप्ति के तौर पर भी देख सकते हैं। वर्ष 2010 से 2014 के बीच सरकार की कुल उधारी 1.46 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 5.97 लाख करोड़ हो गई, जबकि ब्याज के तौर पर प्राप्ति 2.34 लाख करोड़ से बढ़कर 4.27 लाख करोड़ ही हुई। इसने राजकोषीय घाटे, पूंजी की लागत, मजदूरी और महंगाई के मोर्चे पर स्थिति भयावह बना दी।

लेकिन सरकार शायद ही कभी अपने खर्च घटाकर मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की कोशिश करती है। मुद्रास्फीति को नियंत्रण में लाने का मुख्य दायित्व रिजर्व बैंक का है। पर खाद्य या ईंधन मुद्रास्फीति को अंकुश में लाने के लिए रिजर्व बैंक के तरकश में तीर कम ही हैं। इसके पास ब्याज दर में बढ़ोतरी का अचूक हथियार जरूर है, पर यह ऐसा औजार है, जो अंततः सबको घायल करता है।

भारत में मुद्रास्फीति कम कृषि उत्पादन और खराब वितरण व्यवस्था का नतीजा है, जो खाद्यान्न की कमी और मूल्यवृद्धि के रूप में सामने आता है। फलों, सब्जियों और दूध के दाम में तेजी के कारण विगत अगस्त में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मामूली कम होकर 7.8 फीसदी रहा। इस सूचकांक में खाद्यान्न, पेय पदार्थ और तंबाकू लगभग आधी जगह घेरते हैं। फिर देश में कृषि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा और फुटकर बाजार असंगठित क्षेत्र में हैं। इसीलिए यह सवाल उठता है कि रिजर्व बैंक द्वारा उठाए गए कदम क्या मांग और उपभोग पर अंकुश लगा पाने में सक्षम हैं। केंद्रीय बैंक और वित्त मंत्रालय को सोचना चाहिए कि क्या मुद्रास्फीति कम करने के उपाय कारगर साबित हो पा रहे हैं। क्या अकेले रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति कम कर सकता है? अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में मौद्रिक नीति और ब्याज दर बढ़ाकर मुद्रास्फीति कम करने के तरीके की सीमाओं पर पहले ही चर्चा हो चुकी है। रिजर्व बैंक एक तो सरकार का बैंकर है, दूसरे-वह रुपये का प्रबंधक है, ऐसे में मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने का उसका तीसरा काम स्वतः ही उतना प्रभावी नहीं रहता।

यह बहस का विषय है कि मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने का काम क्या दीर्घावधि में संभव है। लेकिन क्या पांच साल पर्याप्त समय नहीं है? और क्या सरकार व रिजर्व बैंक को अपनी सफलता या विफलता की समीक्षा नहीं करनी चाहिए? अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र के हर भागीदार को सरकार की गलती की कीमत क्यों चुकानी चाहिए? अमेरिकी फेडरल रिजर्व के एक पूर्व चेयरमैन ने एक बार यही सवाल किया था कि दो या तीन बच्चों की बदतमीजी की सजा सभी बच्चों को क्यों दी जाए।

(अर्थशास्त्र की राजनीति के विशेषज्ञ और एक्सीडेंटल इंडिया के लेखक)


www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/eye-on-inflation-effect-on-development-hindi/


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