Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | माओवाद को लेकर मतिभ्रम- विनोद कुमार

माओवाद को लेकर मतिभ्रम- विनोद कुमार

Share this article Share this article
published Published on May 31, 2013   modified Modified on May 31, 2013
जनसत्ता 31 मई, 2013: झारखंड, छत्तीसगढ़ सहित देश के वनक्षेत्र वाले इलाकों में माओवादी गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। हाल में झारखंड से सटे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन रैली पर हमला कर माओवादियों ने तीन दर्जन लोगों को मार डाला। इस हमले में मारे जाने वाले कुछ सुरक्षाकर्मियों सहित कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता हैं। आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां अगर ‘विकास रैली' और ‘परिवर्तन रैली' निकालें तो जनता को लगता है कि यह उनके जले पर नमक है। इसलिए इस जघन्य घटना के बाद भी आम जनता की सहानुभूति नेताओं के प्रति नहीं। व्यावहारिक पहलू यह है कि अब सत्ता द्वारा जवाबी कार्रवाई होगी।
माओवादी तो छापामार युद्ध के माहिर खिलाड़ी हैं और वे घटनास्थल से कब के तिरोहित हो चुके होंगे। मारे जाएंगे और उत्पीड़न के शिकार होंगे निरीह आदिवासी। माओवादियों और उनके समर्थकों को लगता है कि यह एक जनयुद्ध है और इसमें यह सब होना ही होना है। कुछ वर्ष पहले झारखंड के गिरिडीह में माओवादियों ने उन्नीस ग्रामीणों को भून डाला था। वे उन्हें मारने नहीं आए थे। लेकिन जिसे मारने आए थे, वह नहीं मिला तो निर्दोष ग्रामीणों को मार डाला। उन्हें इसका कोई विशेष अफसोस भी नहीं है। वे मानते हैं कि क्रांति के रास्ते में गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है।
लेकिन इस तरह की घटनाओं का अंतिम परिणाम क्या होगा, इसे लेकर मतिभ्रम की स्थिति है। क्योंकि झारखंड सहित आदिवासी बहुल राज्यों में लगभग पैंतीस वर्षों से माओवादी सक्रिय हैं। दावा यह किया जाता है कि इन राज्यों के अधिकतर जिलों के ग्रामीण क्षेत्र उनके प्रभाव में हैं जिन्हें वे अपना ‘मुक्तक्षेत्र' मानते हैं। लेकिन उनके प्रभाव क्षेत्र वाले जिलों में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है, सरकारी स्कूलों में मास्टर नहीं जाते, स्वास्थ केंद्रों से चिकित्सक नदारद रहते हैं।
उनके पास लेवी से वसूला गया इफरात पैसा है, जनता के समर्थन का दावा है, बावजूद इसके प्रभावित क्षेत्र में वे विकास का कोई वैकल्पिक मॉडल खड़ा करने में विफल रहे हैं। अपने शुरुआती दिनों से वे चिल्लाते रहे हैं कि संसद गपबाजी का अड््डा और चुनाव एक धोखा है। लेकिन अपने मुक्तक्षेत्र के लोगों को भी वे अब तक यह बात समझा नहीं सके हैं और इसलिए हर बार चुनाव बहिष्कार कराने के लिए उन्हें बड़े पैमाने पर हिंसा का सहारा लेना पड़ता है।
दरअसल, माओवादियों के बारे मेंआम जनता से लेकर राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों तक में मतिभ्रम की स्थिति है। सभी हिंसा की राजनीति को लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा तो मानते हैं, लेकिन अपने-अपने कारणों से माओवादियों के बारे में कोई स्पष्ट रुख तय नहीं कर पाते हैं। भ्रष्टाचार, शोषण-उत्पीड़न से आक्रांत जनता जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपनी मुक्ति नहीं पाती तो माओवादियों के पीछे उनके रास्ते पर चल पड़ती है। राजनीतिकों को माओवादियों से कोई खतरा नहीं है। खतरा तभी है जब वे उनका सक्रिय विरोध करें।
कामरेड महेंद्र सिंह और झामुमो सांसद सुनील महतो ने यह खतरा उठाया और मारे गए। वरना उग्रवादी खतरे के नाम पर उनकी सुरक्षा बढ़ती है, उन्हें बेशकीमती गाड़ियां मिलती हैं, सुरक्षा गार्ड मिलते हैं। उनसे सांठगांठ कर वे अपने पक्ष और विरोध में चुनाव बहिष्कार का इस्तेमाल करते हैं। कभी-कभी तो अपने पक्ष में वोट डलवाने में भी सफल होते हैं। सत्तारूढ़ पार्टी को उग्रवादी समस्या से निबटने के नाम पर केंद्र से इफरात पैसा मिलता है। इसके अलावा सरकार की अकर्मण्यता को छिपाने का एक बहाना भी। वह यह कि विकास-कार्य ठप है या धीमी गति से चल रहा है तो इसलिए कि माओवादी विकास नहीं होने दे रहे हैं।
बुद्धिजीवियों को माओवादियों का समर्थन कर एक खास तरह का आत्मतोष मिलता है। उन्हें लगता है कि वे गरीब जनता के मुक्तिसंग्राम का हिस्सा हैं। अधिकतर बुद्धिजीवियों को जनता के वास्तविक संघर्ष से कोई खास वास्ता नहीं रहता और न ग्रामीण क्षेत्र में चल रहे हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर से किसी तरह का मानवीय सरोकार। वे महानगरों-शहरों के सुरक्षित वातावरण में रहते हैं और उनके लिए माओवादियों को लेकर एक तटस्थ और उदारवादी दृष्टि बनाए रखना आसान होता है। इसलिए उन्हें यह सवाल कभी नहीं मथता कि अपने विरोधी का गला काटना सही है या गलत।
यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि हिंसा और अहिंसा या शांतिमयता को लेकर एक लंबी बहस सामाजिक कार्यकर्ताओं में चल चुकी है। जिन लोगों ने एक रणनीति के तहत भी हिंसा का रास्ता कभी स्वीकार किया था, वे भी ‘इंडीविजुअल टेररिज्म', ‘इंडीविजुअल एनहेलेशन' और माओ की ‘थ्री वर्ल्ड थ्योरी' को पूरी तरह नकार चुके हैं। जनांदोलनों के बीच जन-कार्रवाई (मास एक्शन) के दौरान हिंसा और दुश्मन के रूप में किसी को चिह्नित कर उसे किसी खास मौके पर घेर कर पाशविक ढंग से उसकी हत्या करना, दो अलग-अलग बातें हैं। लेकिन बुद्धिजीवियों को इन बातों से कुछ लेना-देना नहीं रहा। उन्हें तो बस इस बात का संतोष है कि वे मुक्तिकामी जमात का हिस्सा हैं।
राजनीतिकों और बुद्धिजीवियों की इस मन:स्थिति का माओवादी भरपूर फायदा उठाते रहे हैं। एक रणनीति के तहत वे जिस इलाके में घुसपैठ करते हैं, सबसे पहले उस क्षेत्र के किसी दबंग नेता से सांठगांठ करते हैं। वह नेता उनकी अपनी नजर में बेईमान-धोखेबाज भी हो तो कोई बात नहीं। मसलन दिवंगत विनोद बिहारी महतो के बारे में माओवादियों

की राय है कि वे ‘फ्रॉड' थे। उन्होंने धोखाधड़ी से पैसा कमाया था। लेकिन कोयलांचल में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए उन्होंने विनोद बिहारी महतो का ही इस्तेमाल किया।
इमरजेंसी के बाद शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो में जो अंतर्विरोध पैदा हुआ, उसका लाभ माओवादियों ने उठाया। महतो हिंसा की राजनीति को किस हद तक स्वीकारते थे यह एक अलग प्रश्न है, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि माओवादियों से उनके निकट के संबंध थे और वे उनकी सभाओं-बैठकों में शिरकत करते थे।
शिबू सोरेन से मतभेद के बाद माओवादियों से उनकी निकटता और बढ़ी। खुखरा में हुई माओवादियों की जन-कार्रवाई के बाद यह रिश्ता जगजाहिर भी हो गया। खुखरा कांड 13 अप्रैल, 1990 की घटना है और इस कांड के बाद टुंडी में नारा लगा था: ‘खुखरा की गलियां सूनी हैं, विनोद बिहारी खूनी हैं।'
सर्वविदित है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से माओवादियों के निकटतम संबंध रहे। चुनाव में माओवादियों ने उनका समर्थन किया और ममता भी सत्ता में आने के पहले उनकी समर्थक थीं। लेकिन सत्ता में आने के बाद उन दोनों के रिश्ते बिगड़ गए। ममता उनकी धुर विरोधी हो गर्इं। अपने राज्य में उन्होंने माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाया। उत्तरी छोटानागपुर के कई राजनीतिकों और माओवादियों के बीच सांठगांठ अब रहस्य की बात नहीं रही। यह वैचारिक निकटता नहीं, बस दोनों पक्षों की तरफ से एक अवसरवादी गठजोड़ होता है। भ्रष्टतम नेताओं की निकटता माओवादियों से रही है।
भाकपा (माओवादी) अपने क्षेत्र में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने के लिए उनका इस्तेमाल करती है। वे किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य हो सकते हैं। राजग सरकार के भ्रष्टतम मंत्रियों से उनके निकट के संबंध रहे हैं। हाल तक भाकपा (माओवादी) का कट््टर विरोध करने वाले एक नेता अब भ्रष्टाचार के मुद््दे पर माओवादियों को साथ चलने का आह्वान कर रहे हैं। मजेदार बात यह कि माओवादियों से संभावित खतरे के मद्देनजर ही उन्हें करोड़ों की बुलेट-प्रूफ कार सरकार ने मुहैया करा रखी है। इसे कहते हैं चित भी मेरी और पट भी मेरी।
लेकिन जिस दिन सत्ता प्रतिष्ठानों से माओवादियों का सीधा टकराव होगा, उनका खात्मा तय है। लिट््टे जैसा शक्तिशाली उग्रवादी संगठन जब खेत रहा, तब उनकी क्या औकात? हमें माओवादियों की निष्ठा पर संदेह नहीं, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान जिस कदर शक्तिशाली होते चले गए हैं, उनका मुकाबला इस छापामार युद्ध से नहीं हो सकता। जनता की व्यापक गोलबंदी और सतत संघर्ष से ही व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में बढ़ा जा सकता है।
हमारी चिंता का विषय यह है कि अपने प्रभाव विस्तार के लिए वे धीरे-धीरे परिवर्तनकामी जनांदोलनों में घुसपैठ की कोशिश कर रहे हैं। इससे इन आंदोलनों के बुनियादी चरित्र और स्वरूप में तो बदलाव का खतरा पैदा हो ही गया है, संकट यह भी है कि अब पुलिस और सेना को इन आंदोलनों को कुचलने का अवसर मिल जाएगा। कोयलकारो परियोजना के खिलाफ चला आंदोलन हो या नेतरहाट में फायरिंग रेंज के खिलाफ चला आंदोलन या फिर झारखंड में कई अन्य स्थानों पर चल रहे विस्थापन विरोधी आंदोलन हों, इनकी एक बड़ी खासियत यह रही है कि ये आंदोलन स्थानीय झारखंडी जनता ने अपने बलबूते, किसी राजनीतिक दल की मदद के बगैर, शांतिमय तरीके से चलाए और इन्हें एक मंजिल तक पहुंचाया।
रांची में कुछ वर्ष पूर्व ‘विस्थापन विरोधी समन्वय समिति' के बैनर तले एक रैली का आयोजन हुआ। जानकारों का कहना है कि यह संगठन धुर-वामपंथी संगठनों का समर्थक संगठन है। अखिल भारतीय स्तर पर भी विस्थापन विरोधी मोर्चा बनाने की तैयारी चलती रहती है। इस ‘समन्वय समिति' में शामिल कई लोग वे हैं जो कभी माले-लिबरेशन या अन्य नक्सली संगठनों से जुड़े थे। लेकिन चूंकि माले सहित अधिकतर नक्सली संगठनों की यह हैसियत नहीं रही कि वे वेतनभोगी पूर्णकालिक कार्यकर्ता रख सकें, इसलिए उनका रुझान अब माओवादियों के पक्ष में हो गया है जिनके पास लेवी से उगाहा गया इफरात पैसा है। अगर लंबे अरसे से जमीनी आंदोलन से जुड़े लोग विस्थापन विरोधी आंदोलन में शिरकत करें तो इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन उनकी ताजा मुहिम इसलिए संदिग्ध हो उठी है, क्योंकि माओवादी या कई अन्य वामपंथी संगठन विस्थापन को हाल तक गंभीर मुद्दा नहीं मानते थे। उनकी समझ थी कि सबसे पहले उन्हें सत्ता पर काबिज होना है, उसके बाद इन बातों को दुरुस्त कर लिया जाएगा। कुछ वर्ष पूर्व आदिवासी बहुल इलाकों में विस्थापन और नई औद्योगिक नीति के खिलाफ चले जन आंदोलनों के दबाव के बाद उन्होंने इस बारे में अपना रुख तय किया और मैदान में कूद पड़े। और अब उनकी कोशिश है कि विभिन्न स्वत:स्फूर्त जनसंगठनों को दरकिनार कर इन आंदोलनों पर काबिज हो जाएं।
खतरा इस बात का है कि जनता की व्यापक भागीदारी और शांतिमय तरीके से चलते आंदोलनों की जगह उन इलाकों में सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध न शुरू हो जाए। वैसी स्थिति में पुलिस-सेना को इन आंदोलनों को कुचलने का पूरा अधिकार मिल जाएगा।
इससे लंबे अरसे तक पुलिस-सेना से लुका-छिपी का खेल खेलने वाले प्रशिक्षित माओवादियों को तो कोई खतरा नहीं, लेकिन गरीब आदिवासी जनता मारी जाएगी। यह कपोल कल्पना नहीं। कलिंगनगर और नंदीग्राम में यह हो चुका है। इसका दूरगामी परिणाम यह भी होगा कि जनता की व्यापक भागीदारी वाले आंदोलन खत्म हो जाएंगे और राज्यसत्ता के संरक्षण में चल रहे विश्व-पंूजीवाद के बुलडोजर को रोकना नामुमकिन हो जाएगा।.


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/45921-2013-05-31-04-21-03


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close