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न्यूज क्लिपिंग्स् | मिटाना होगा तीन तलाक का अभिशाप - कुलदीप नैयर

मिटाना होगा तीन तलाक का अभिशाप - कुलदीप नैयर

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published Published on Nov 3, 2016   modified Modified on Nov 3, 2016
कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामिया की एक साप्ताहिक पत्रिका है - 'रेडियंस"। इसने अपने पहले पन्न्े पर एक लेख छापा, जो कहता है कि 'पहले तुम हमें अपना हिसाब दो।" साफ तौर पर यहां 'तुम" से आशय हिंदुओं से है। हिंदू पर्सनल लॉ देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप के बाद अस्तित्व में आया था। विवाह जीवन भर के लिए पवित्र-बंधन होता था और किसी बीमार या नि:शक्त को भी बिना किसी राहत के इस बंधन का सख्ती से पालन करना पड़ता था। यह नेहरू ही थे जो हिंदू धर्म में पहली बार तलाक की अवधारणा लेकर आए। तब उन्हें संविधान सभा के सभापति और देश के सम्मानित नेता डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जबर्दस्त विरोध का भी सामना करना पड़ा था। लेकिन आखिरकार नेहरू की ही चली।

मुसलमानों ने लंबे समय तक इसी तरह की चुनौती का सामना किया है। तीन तलाक को कुरान की स्वीकृति नहीं है, लेकिन यह लंबे समय से मौजूद है। कुछ औरतों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो उसने कहा कि औरत और मर्द में बराबरी होनी चाहिए। केंद्र सरकार ने इस मसले पर आमजन की राय जानने के लिए एक प्रश्नावली जारी करने की सोची थी, लेकिन बाद में उसने ऐसा नहीं किया।

लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस कदम का जोरदार विरोध किया था। गौरतलब है कि इस बोर्ड में एक भी महिला सदस्य नहीं है और वह महिलाओं की राय लिए बगैर अपनी शर्तें लागू करता रहा है। औरतों ने इसका विरोध किया भी है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी बनाई नीतियों पर ही चल रहा है, जिसमें औरतों की राय नहीं ली जाती।

यह सवाल संसद के सामने आना तय है, क्योंकि मुस्लिम समुदाय के विभिन्न् तबके और यहां तक कि दूसरे लोग भी इसको लेकर उत्तेजित हैं। मुस्लिमों में पुरुष अभी भी हावी हैं, जबकि वे मानते हैं कि पैगंबर औरत और मर्द की बराबरी के पक्षधर थे। हालांकि जब इस विचार को नियम में बदलने की बात आती है तो पर्सनल लॉ बोर्ड इसकी परवाह नहीं करता। पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों ने तीन तलाक पर पाबंदी लगा दी है, लेकिन भारत में पुरुषवादी सोच इतनी मजबूत है कि इस विषय पर बहस करना भी मुमकिन नहीं। यहां तक कि बहस की सुगबुगाहट को भी सीधे खारिज कर दिया जाता है। यही वजह है कि तीन तलाक की गूंज जारी है और पुरुष की प्रधानता कम नहीं हुई है। हैरत है कि समस्या पर बहस करने के बजाय 'रेडियंस" का लेख तीन तलाक के मसले से ध्यान भटकाने की कोशिश करता है। 'पहले उन्हें हिसाब देने दो" कहकर वह मामले को हिंदू बनाम मुस्लिम बना देता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। संविधान ने समान नागरिक संहिता को नीति निर्देशक सिद्धांत में शामिल किया है ताकि इस पर एक दिन अमल हो सके। अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मसले पर लोगों की राय मांगने वाली प्रश्नावली का मुखर विरोध करता है तो कोई बहस कैसे हो सकती है?

देश के कई हिस्सों में औरतों ने विरोध प्रदर्शन किए हैं और मांग की है कि उनकी राय ली जानी चाहिए। मोदी सरकार कोई कदम उठाने से हिचक रही है कि कहीं उसे गलत न समझ लिया जाए, लेकिन चीजों को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। पहले संसद अपने दोनों सदनों में इस पर बहस करे और इसके बाद यह पता लगाए कि मुस्लिम समुदाय, खासकर औरतें इस मुद्दे पर क्या सोचती हैं। साफ है कि चुनावी वजहों से राजनीतिक दल इस मुद्दे पर खामोशी अख्तियार करना चाहते हैं। आखिर उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में अगले साल चुनाव होने हैं और इनमें से कई राज्यों में मुसलमान किंगमेकर हैं। सपा के नेता मुलायम सिंह यादव इसलिए मुस्लिमों का वोट ले पाए, क्योंकि मुसलमानों के बीच उनका सम्मान है, जो कांगे्रस से अलगाव महसूस कर रहे थे। इस बार उत्तर प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर काम करेगी, लेकिन लगता यही है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मुसलमानों में स्वीकार्यता बनी रहेगी, भले ही उनकी कैबिनेट में मंत्री आजम खान लगातार यही दर्शा रहे हों कि एक वे ही मुसलमानों के रहनुमा हैं। कांगे्रस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जो अपने भाषणों में कुछ भी बोल देते हैं, वे भी मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में हैं। पर लोगों में उनकी स्वीकृति नहीं है। शायद बेहतर यही होगा कि सोनिया गांधी खुद ही पार्टी का नेतृत्व करें। उन पर अब इटालियन होने का लेबल भी नहीं रह गया है। वह अभी भी अपने बेटे के मुकाबले ज्यादा भीड़ आकर्षित करती हैं। कांगे्रस के सामने चुनौती है कि उसने राहुल गांधी पर अपना भविष्य दांव पर लगा रखा है, लेकिन पार्टी को लगातार यह भी महसूस हो रहा है कि राहुल जनता के साथ बेहतर ढंग से नहीं जुड़ पाते। उनकी बहन प्रियंका वाड्रा में लोकप्रियता की गमक उनसे ज्यादा है।

एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के लिए यह शर्म की बात है कि वह तीन तलाक जैसी रीतियों के साथ इसलिए जी रहा है कि एक समुदाय नाराज हो जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुस्लिम विधवाओं को भत्ता देने का कानून बनाकर गड़बड़ कर दी। इसने बेकार में अयोध्या आंदोलन को भड़काने का काम किया और पीवी नरसिंह राव के समय अयोध्या स्थित विवादास्पद ढांचा ढहा दिया गया। बाकी तो इतिहास है। इसी तरह तीन तलाक जारी नहीं रह सकता, क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। वास्तव में यह आश्चर्यजनक है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों में समान नागरिक संहिता बनाने की बात होने के बावजूद यह अभी तक कायम है। आजादी के बाद से ही सरकारें इस सवाल से बचती रही हैं। मोदी सरकार भी वैसा ही कर सकती है, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। देरसबेर तीन तलाक को जाना होगा। 'रेडियंस" के लेख ने बेकार ही इसे हम और वे, मुसलमान और हिंदू का सवाल बना दिया। यह मामला मुसलमानों को हल करना है, लेकिन इसे लटकाए नहीं रखा जा सकता। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की जो भी आपत्ति हो, किंतु यह जानने के लिए प्रश्नावली जारी की ही जानी चाहिए कि मुस्लिम समुदाय व दूसरे लोग इस मसले पर क्या सोचते हैं।

शायद संसद के शीतकालीन सत्र में इस मसले पर बहस हो, लेकिन अगर यह विषय बहस की सूची में नहीं भी हो, तो भी बहस होनी चाहिए। बेशक ये समुदाय को तय करना है, लेकिन अभी तक उसने किया नहीं है। एक सेक्युलर लोकतांत्रिक देश में यह अजीब लगता है कि एक वैसी विसंगति को दूर करने में असहाय महसूस किया जाए, जो छह दशकों से ज्यादा समय से मौजूद है। मोदी सरकार इस मसले पर कितनी भी हिचक महसूस करे, किंतु उसे हकीकत का सामना कर समाधान निकालना होगा। यह हिंदू बनाम मुस्लिम का मामला नहीं है। यह एक गुजरे जमाने की सोच है जो संविधान की मूल भावना में फिट नहीं बैठती।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व ख्यात स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 


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