Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | मीडिया की मर्यादा- सुशील कुमार महापात्र

मीडिया की मर्यादा- सुशील कुमार महापात्र

Share this article Share this article
published Published on Apr 3, 2014   modified Modified on Apr 3, 2014
मीडिया की समाज में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी देश और लोगों की समस्याओं को सामने लाने के साथ-साथ सरकार के कामकाज पर नजर रखना भी है। लेकिन पिछले कुछ दिनों में मीडिया की कार्यप्रणाली और रुख पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। सवाल यह है कि क्या मीडिया बदल रहा है? क्या मीडिया के नैतिक पक्ष पर ऐसे सवाल जायज हैं?

इसमें दो राय नहीं कि मीडिया के काम करने के तरीके और चरित्र में बहुत बदलाव आया है। लेकिन यह बदलाव कितना सही और कितना गलत, यह बता पाना मुश्किल है।

आजादी से पहले की तुलना में देखें तोमीडिया के स्वरूप में एक बुनियादी फर्क आया है। पहले मीडिया को आज की तरह आजादी हासिल नहीं थी। जेम्स आॅगस्टस ने भारत का पहला समाचार पत्र ‘द बंगाल गजट’ 1780 में शुरू किया था। उस वक्त के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की पत्नी की आलोचना करने के बदले में उन्हें चार महीने जेल की सजा काटने के साथ-साथ पांच सौ रुपए जुर्माना देना पड़ा था। तब अंग्रेज अपनी हैसियत से प्रेस को संचालित करते थे। लेकिन आजादी के बाद बहुत कुछ बदलाव आया है। प्रेस को आजादी मिली। सरकार और प्रेस के बीच जो दूरियां थीं, वे काफी कम हुई हैं। आजादी के समय भारत में करीब तीन सौ समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे थे। लेकिन अब इनकी संख्या तेरह हजार से भी ज्यादा है।

जहां तक मीडिया की आजादी का सवाल है, दुनिया में एक तिहाई से ज्यादा लोग ऐसे देशों में रहते हैं जहां मीडिया अपनी दिशा तय करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। सर्वेक्षणों की रिपोर्टों के मुताबिक मीडिया की आजादी के मामले में भारत का स्थान एक सौ चालीसवां है। हालांकि यह आकलन सीधे-सीधे भरोसा करने लायक नहीं लगता। थोड़ा करीब से देखें तो ऐसा लगता है कि भारत में मीडिया की आजादी पर फिलहाल कोई ज्यादा गंभीर खतरा नहीं है। दूरदर्शन और आकशवाणी जैसी सरकारी संस्थाओं को छोड़ दें तो किसी भी निजी चैनल पर सरकार का दबदबा नहीं रहता।

यहां अगर हम दूसरे देशों की बात करें तो फिनलैंड, नार्वे और नीदरलैंड मीडिया की आजादी के मामले में सबसे ऊपर हैं। इस कसौटी पर इरीट्रिया, उत्तर कोरिया और सीरिया जैसे देश सबसे निचले पायदान पर हैं। इन देशों में मीडिया को अपने हिसाब से मुद््दों पर खबरें देने या बात करने की कोई आजादी हासिल नहीं है। वहां मीडिया एक तरह से सरकार के अधीन काम करता है। हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इरीट्रिया में सबसे ज्यादा पत्रकार जेल में बंद हैं।

सवाल यह उठता है कि मीडिया की आजादी को कैसे आंका जाए। भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति के अधिकार की गारंटी दी गई है। प्रेस की स्वतंत्रता उसी का हिस्सा है, इसलिए इसकी अलग से चर्चा नहीं है। आखिर मीडिया की आजादी का मतलब क्या है? क्या सिर्फ सरकार के नियंत्रण से बाहर रहने को हम उसकी आजादी मान लें? आमतौर पर मीडिया को सरकार नियंत्रित नहीं करती। लेकिन क्या मीडिया सरकार और कॉरपोरेट जगत के स्वार्थ के लिए काम करता है?

दरअसल, मीडिया पर आज जो सवाल उठ रहे हैं, उसके लिए शायद कुछ स्थितियां जिम्मेदार हैं। अगर मीडिया के दबाव में काम करने की बात पर विचार करें तो यह साफ होना अभी बाकी है कि आखिर वह दबाव किस तरह का है, और क्या उसका असर विषय-वस्तु पर भी पड़ रहा है! मीडिया के कवरेज को लेकर आज सबसे ज्यादा सवाल राजनीतिकों की ओर से उठाए जा रहे हैं। कुछ राजनेता अपने अंदाज में मीडिया को चलाना चाहते हैं। अगर मीडिया उनके पक्ष में सकारात्मक खबरें दिखाता है तो उसे वे अच्छा कहते हैं और ऐसा नहीं होने पर मीडिया को कठघरे में खड़ा करने लगते हैं।

इस मामले में अरविंद केजरीवाल सबसे आगे निकल गए और यहां तक कि हड़बड़ी में पत्रकारों को जेल भेजने की बात भी कह गए। सच यह है कि अगर मीडिया के जरिए सबसे ज्यादा फायदा किसी को हुआ तो वह अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी को। पिछले एक साल में मीडिया ने सबसे ज्यादा प्रचार आम आदमी पार्टी और इसके नेताओं का किया है। अण्णा के आंदोलन से लेकर अब तक मीडिया ने इन लोगों को हीरो बनाया है। केजरीवाल कहते हैं कि मीडिया मोदी और भारतीय जनता पार्टी का प्रचार करता रहता है। लेकिन 2002 के गुजरात दंगों के बाद अगर मीडिया ने किसी पर सबसे ज्यादा सवाल उठाए और  सबसे ज्यादा किसी की आलोचना की तो वे नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार है। कांग्रेस के भ्रष्टाचार और महंगाई को भी मीडिया ने काफी जगह दी।

बहरहाल, अरविंद केजरीवाल अब यह सफाई दे चुके हैं कि उनकी प्रतिक्रिया कुछ चैनलों के संदर्भ में थी। सवाल है कि क्या केजरीवाल की इस तरह की प्रतिक्रिया राजनीतिक नहीं है? चुनाव के समय ही राजनेताओं को मीडिया की याद ज्यादा क्यों आती है। देश में और बहुत सारी समस्याएं हैं, उन्हें लेकर राजनेता मीडिया को क्यों नहीं घेरते हैं? केजरीवाल ही नहीं, दूसरी तमाम पार्टियों

के नेता भी मीडिया की आलोचना करते रहते हैं। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया पर उठे सवालों में कहीं न कहीं सच्चाई है। क्या मीडिया अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल कर रहा है? ‘पेड न्यूज’ की जो बात उठाई जा रही है, उसमें कितनी सच्चाई है? क्या मीडिया के अपने दायरे में भी भ्रष्टाचार है? जो हो, हर किसी को एक ही तराजू में तौलना शायद ठीक नहीं है। बहुत-से ऐसे समाचार चैनल और अखबार हैं जो अपनी ईमानदार रिपोर्टिंग और विश्लेषणों से मीडिया की छवि  अच्छी बनाए रखने की कोशिश करते हुए समाज के व्यापक हित के लिए काम करते हैं।

आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक, मीडिया के दोनों माध्यमों के सामने अपनी विश्वसनीयता बचाने की बहुत बड़ी चुनौती है। इंटरनेट के जमाने में इनकी लोकप्रियता में कमी आई है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका और उन पर निर्भरता लगातार कम होती जा रही है। आज भारत में दस प्रतिशत से ज्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगे हैं और इसका दायरा धीरे-धीरे और बड़ा हो रहा है। इंटरनेट के जरिए लोगों के पास खबरें जल्दी पहुंच जाती हैं। इस मामले में सोशल मीडिया भी काफी अहम भूमिका निभा रहा है। दूसरी ओर, एशिया से ज्यादा पश्चिमी देशों में समाचार पत्रों की हालत खराब है। जहां पश्चिमी देशों में अखबारों के प्रसार में कमी आई है, वहीं एशिया में बढ़ोतरी हुई है। चीन और भारत जैसे देशों में दुनिया के सबसे ज्यादा लोग रहते हैं, लेकिन यहां इंटरनेट तक पहुंच के मामले में अभी काफी लंबा सफर तय करना है।

एशिया को समाचार पत्रों के बाजार का ‘राजा’ माना जाता है। दुनिया की सौ से भी ज्यादा बेहतरीन खबरें ऊपरी एशिया में छापी जाती हैं। प्रिंट मीडिया भी ज्यादा से ज्यादा कंप्यूटरीकृत होता जा रहा है। समस्या यह है कि डिजिटल से ज्यादा फायदा नहीं होता है, क्योंकि इसके जरिए वांछित प्रचार मिलना संभव नहीं है। प्रिंट के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हालत भी काफी खराब है। चैनलों की संख्या बढ़ती जा रही है और लोग एक चैनल से दूसरे चैनल की ओर रुख कर रहे हैं। यही वजह है कि आज टीआरपी चैनलों के लिए तनाव का कारण बनती जा रही है। हालांकि टीआरपी के बरक्स चैनलों की गणना और गुणवत्ता को लेकर सवाल उठते रहे हैं।

मीडिया के कवरेज में काफी बदलाव आया है। कई बार ऐसा लगता है कि मीडिया व्यक्ति-केंद्रित हो चुका है। कुछ नाटकीयता और अतिरंजना के साथ कार्यक्रम परोस कर दर्शकों को लुभाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा लगता है कि मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भाग रहा है। सामाजिक खबरें कम दिखाई देती हैं। आजकल टीवी चैनलों पर नेता ही दिखाई देते हैं। टीवी पर नेताओं के भाषणों और बयानों से ही समाचार के वक्त भरे रहते हैं, वहीं अखबारों में विज्ञापन ज्यादा और खबरें कम दिखाई देती हैं। मीडिया की पहुंच का विस्तार हुआ है, पर यही बात कवरेज के बारे में नहीं कही जा सकती। वह गांवों के लोगों की समस्याओं से अछूता नजर आता है।

देश में बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन मीडियो को शायद उनसे कोई सरोकार नहीं है। चाहे हम किसानों की आत्महत्या की बात करें या फिर महिलाओं परहोने वाले अत्याचारों या अपराधों की, मीडिया में ऐसे मामलों को जगह देने में या तो कंजूसी दिखाई जाती है या फिर जरूरी संवेदनशीलता नहीं बरती जाती। फिर एक और चिंताजनक पहूल मीडिया का दोहरा रवैया है; वह सिर्फ शहरों की घटनाओं और समस्याओं को लेकर गंभीर दिखता है। शहरों में भी, मध्यवर्ग की समस्याएं ही उसे अधिक परेशान करती हैं। मसलन, बारिश से घंटे-दो घंटे भी यातायात जाम हो जाए तो टीवी चैनलों पर चीख-पुकार शुरू हो जाती है, मगर जिन इलाकों के लोग बरसों से पानी के लिए तरसते रहते हैं उनकी सुध नहीं ली जाती।

ऐसा नहीं कि मीडिया कोई अच्छा काम नहीं करता। देश में हुए बड़े-बड़े घोटालों को मीडिया ने ही उठाया है, चाहे वे राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से जुड़े रहे हों या 2-जी और कोयले के आबंटन से संबंधित। कई ऐसे समाचार चैनल और अखबार समाज की समस्याओं के प्रति सचेत हैं और उन्होंने कुछ विशेष अभियान भी शुरू किए हैं। कन्या बचाओ, पहाड़ बचाओ या निर्भया कांड जैसे मामलों में हमने मीडिया को नए रूप में देखा है। उसकी सक्रियता और मुखरता की वजह से ही निर्भया कांड पर उपजा नागरिक आक्रोश जन-आंदोलन का रूप ले सका और आखिरकार यौनहिंसा विरोधी कानूनों में संशोधन हुए। हालांकि बीरभूम सामूहिक बलात्कार मामले में मीडिया में जितनी खबरें आर्इं, वे बताती हैं कि मीडिया भी शायद वर्गीय आग्रहों से संचालित होता है। उसे लेकर उचित ही मीडिया और उन खबरों पर सवाल उठे। मीडिया के ऐसे रूप को देख कर जोसेफ स्टालिन का एक उद्धरण याद आता है- ‘सिर्फ एक मौत शोकांत है और असंख्य मृत्यु आंकड़ा!’

http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=63378:2014-03-31-05-55-03&catid=20:2009-09-11-07-46-16


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close