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न्यूज क्लिपिंग्स् | मैकाले के मायाजाल से मुक्त होता देश-- आर सुकुमार

मैकाले के मायाजाल से मुक्त होता देश-- आर सुकुमार

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published Published on Oct 3, 2016   modified Modified on Oct 3, 2016

पिछले सप्ताहांत में मैं मुंबई में था। एक स्कॉलरशिप के लिए देश के प्रतिष्ठित बिजनेस स्कूलों के बेहतरीन बच्चों का इंटरव्यू लेने की खातिर मुझे बुलाया गया था। मेरे साथ इंटरव्यू-बोर्ड में दो और सदस्य थे। उनमें से एक मशहूर वैश्विक कन्सल्टिंग कंपनी के चेयरमैन थे, तो बोर्ड के दूसरे सदस्य और मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई साथ-साथ की है। यह अलग बात है कि उसने टॉप किया था और मेरा प्रदर्शन अपेक्षाकृत बीच का रहा।

बहरहाल, दिन भर में 37 छात्रों का इंटरव्यू मुझे सीख भरे अनुभव दे गया। वह पूरी कवायद थकाने वाली तो थी, मगर उबाऊ नहीं थी। हमने हर छात्र के साथ करीब 15-20 मिनट बिताए। बेशक उन छात्रों में से कुछ के लिए यह समय काफी न रहा हो, मगर हमारे लिए इतना वक्त देश में सामाजिक, कारोबारी, मानसिक और व्यवहार के स्तर पर हो रहे बदलावों के बारे में उनके नजरिये को परखने के लिए पर्याप्त था।

इंटरव्यू देने वाले अलग-अलग किस्म के छात्र थे, मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा। होते भी क्यों नहीं, आखिर इन्हें भारतीय प्रबंधन संस्थानों, एक्सएलआरआई और फैकल्टी ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के श्रेष्ठ 20 फीसदी छात्रों (दाखिले के अनुसार) में से चुना गया था। एक समय था, जब ऐसे बिजनेस स्कूलों में पहुंचने वाले ज्यादातर बच्चे समान होते थे। वास्तव में, उनका अकादमिक ज्ञान एक समान होता था, जिसे वे बहुत गंभीरता से नहीं लेते।

इंटरव्यू में आईं दो लड़कियां लिंगानुपात के मामले में देश के बदहाल राज्य हरियाणा के छोटे शहरों से थीं। ये ऐसे परिवारों की बच्चियां थीं, जो महिलाओं को शिक्षित करने में परंपरागत रूप से विश्वास नहीं करता। हम जितने भी छात्रों से मिले, उनमें से कम से कम एक तिहाई दूसरे या तीसरे दर्जे में गिने जाने वाले शहरों, यानी छोटे शहरों के बच्चे थे। इनकी पृष्ठभूमि बहुत साधारण थी। एक किराना सामान बेचने वाले का बेटा था, तो दूसरा अपने परिवार का पहला ग्रैजुएट। दो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तो ऐसे स्कूलों में हुई थी, जहां अंग्रेजी की पढ़ाई दसवीं कक्षा में आकर शुरू हुई थी। सरकारी स्कूलों में पढे़ बच्चों की तादाद भी कम नहीं थी।

यकीनन, विकास की राह पर हमारे निरंतर आगे बढ़ने के ये सबूत हैं, जो आज के भारत की विशेषता है। इनमें से ज्यादातर बच्चे एक दशक पहले उस मुकाम की बात सोच भी नहीं पाते, जहां वे आज खड़े हैं।

जैसा कि आमतौर पर होता है, छात्रों के उस ग्रुप में कई इंजीनियर थे। और मैं तो हमेशा यह कहता रहता हूं कि ये इंजीनियर ही हैं, जो दुनिया पर राज करते हैं! खैर, इनमें से कई इंजीनियरों ने ग्रैजुएशन पूरा करने के बाद काम-धंधा शुरू कर दिया था। दिलचस्प यह था कि ज्यादातर ने हार्डवेयर और सेमीकंडक्टर कंपनियों में काम किया था। सिर्फ एक इंजीनियर मुझे ऐसा मिला, जिसने सॉफ्टवेयर सर्विस कंपनी में काम किया था। जाहिर है, जब श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली बच्चे इस मुल्क में ही रहने का फैसला कर लें, तो फिर इस तरह की कंपनियों में उनके लिए ज्यादा काम ही कहां है?
उन तमाम छात्रों में कई ऐसे थे, जिनके पास काम का अनुभव था और वे अच्छी-साखी कंपनियों का साथ छोड़ चुके थे। ये बिजनेस स्कूल में दाखिले से पहले कुछ समय के लिए एक स्टार्ट-अप के लिए भी काम कर चुके थे। कुछ ने अपना खुद का स्टार्ट-अप शुरू कर दिया था। एक तो बिजनेस स्कूल के दरम्यान भी अपना स्टार्ट-अप चलाता रहा। इन 37 उम्मीदवारों में से ज्यादातर ने कहा कि वे इससे बेहतर कुछ शुरू करना चाहते हैं, हालांकि कई का कहना था कि ऐसा करने से पहले वे कुछ वर्षों तक किसी वैश्विक कन्सल्टिंग कंपनी के साथ काम करने को इच्छुक हैं। यह नजरिया बताता है कि भारत में स्टार्ट-अप को लेकर जो लहर है, वह आगे भी बनी रहेगी। नैस्कॉम की 2015 की रिपोर्ट भी कहती है कि स्टार्ट-अप के मामले में हम दुनिया में तीसरे सबसे बड़े देश हैं। यहां 4,200 के करीब स्टार्ट-अप कंपनियां हैं।

इन युवक-युवतियों ने सामाजिक व विकासपरक कार्यों में अपनी भागीदारी के बारे में भी हमें बताया। हालांकि अपनी योग्यता साबित करने के लिए आमतौर पर रिज्यूमे में ऐसी कुछ अतिरंजित जानकारियां दी जाती हैं, जो ज्यादातर इंटरव्यू में होता है। मगर यदि इनके काम को परखें, तो समाज को लेकर उनकी कुछ चिंताएं और उपलब्धियां वास्तविक दिखीं।
बावजूद इसके वहां सब कुछ अच्छा नहीं था।

बेशक इंटरव्यू में शामिल कई युवाओं का रुझान शिक्षा से इतर भी था, मगर उनमें से ज्यादातर समसामयिक मामलों से बेखबर या यूं कहें कि अनजान थे। बिजनेस स्कूल के छात्र होते हुए भी उन्हें मौजूदा आर्थिक विकास और नजरिये की बहुत मामूली जानकारी थी। कई ने माना कि वे अखबार, न्यूज वेबसाइट, पत्र-पत्रिकाएं या कथेतर साहित्य नहीं पढ़ते। जिन कुछ उम्मीदवारों ने माना कि वे उपन्यास पढ़ते हैं, वे भी कुछ सवालों पर बगले झांकते दिखे। मसलन, कविता में रुचि रखने वाले को आयरिश कवि डब्ल्यू बी यीट्स की द सेकंड कमिंग के बारे में कुछ भी पता नहीं था। इसी कविता की एक चर्चित पंक्ति है- थिंग्स फॉल अपार्ट, द सेंटर कैननॉट होल्ड। इसी तरह, जापानी कॉमिक्स मंगा को शौक से पढ़ने वाला शख्स उसके पिता ओसामु तेजुका के नाम तक से अनभिज्ञ था। शायद रिज्यूमे में ऐसी ही तमाम अतिरंजित जानकारियां रही हों।

फिर भी इसे कोई बहुत बड़ा मसला नहीं कहेंगे। इन 37 बच्चों से मुलाकात के बाद एक ऐसे युवा भारत की बड़ी तस्वीर उभरकर सामने आई, जो जल्दी ही मैकाले के अभिशाप से मुक्त हो सकता है। ऐसा इसलिए कि कई उम्मीदवार अंग्रेजी बोलने में दक्ष नहीं थे, जबकि यहां पहुंचा हर छात्र मुखर था। अच्छी बात यह भी थी कि ये पारंपरिक करियर विकल्पों की जकड़न से मुक्त और समाज में अपना योगदान देने को उत्सुक थे।

हर पीढ़ी यही सोचती है कि वह अपने से पहले और आने वाली पीढ़ी की तुलना में ज्यादा होशियार है। मुंबई की इस यात्रा के बाद मैं अब अपनी पीढ़ी के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूं।


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-country-free-from-macaulay-clutches-570337.html


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