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न्यूज क्लिपिंग्स् | मौत के खतरे से क्यों मूंदें आंखें? - डॉ. एके अरुण

मौत के खतरे से क्यों मूंदें आंखें? - डॉ. एके अरुण

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published Published on Apr 6, 2015   modified Modified on Apr 6, 2015
रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तंबाकू निर्मित उत्पादों के 60 से 65 प्रतिशत हिस्से पर सचित्र चेतावनी प्रकाशित करने को अपना समर्थन दिए जाने के बाद इससे संबंधित विवाद का काफी हद तक पटाक्षेप तो हो गया है, पर तंबाकू व नशे के इस्तेमाल पर रोक के लिए बनी संसदीय समिति के सदस्यों (खासकर भाजपा सांसदों) की टिप्पणियों कि 'तंबाकू से कोई कैंसर या खतरा नहीं होता" को लेकर पहले ही खासा बवाल मच चुका था। भाजपा सांसद राम प्रसाद शर्मा, दिलीप गांधी तथा श्याम चरण गुप्ता तंबाकू के इस्तेमाल के समर्थक हैं।

सनद रहे कि सांसद श्याम चरण गुप्ता स्वयं बीड़ी कारोबारी हैं। उक्त संसदीय समिति के 15 में से कोई सात-आठ सदस्य सिगरेट-तंबाकू के पक्ष में हैं। वे कह रहे हैं कि भारत में तंबाकू से होने वाले नुकसानों पर कोई प्रामाणिक शोध हुआ ही नहीं और वे विदेशी अध्ययन को नहीं मानते। यह तो साफ हो गया है कि देश में तंबाकू लॉबी सरकार से ज्यादा ताकतवर है। देखना है कि यह हंगामा महज शोर बनकर दफन हो जाएगा या इससे तंबाकू नियंत्रण की दिशा में प्रगति होगी।

तंबाकू को लेकर पक्ष-विपक्ष में किए जा रहे मौजूदा कुतर्क-वितर्क में कुछ भी नया नहीं है। जब भी तंबाकू प्रतिबंध या नियंत्रण की बात उठाई गई है, विवाद भी खड़े किए गए हैं। सन् 1975 में जब पहली बार तंबाकू विरोधी कानून 'सिगरेट (रेगुलेशन ऑफ प्रोडक्शन, सप्लाई एंड डिस्ट्रिब्यूशन) एक्ट 1975" लाया गया, तब भी बहुत बवाल मचा था। इसी कानून के तहत सभी सिगरेट के डिब्बों पर 'सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है" चेतावनी छापना अनिवार्य है।

उस दौर में भी कई फर्जी अध्ययनों के सहारे यह बताने की कोशिश की गई थी कि सिगरेट पीना ज्यादा हानिकारक नहीं है। उस दौर के एक विज्ञापन पर गौर करें। 'हम रेड एंड व्हाइट पीने वालों की बात ही कुछ और है!" सब जानते हैं कि रेड एंड व्हाइट सिगरेट बनाने वाली कंपनी तब बहादुरी का पुरस्कार भी जोर-शोर से बांटती थी। फिर सन् 2003 में जब सीओटीपीए 'द सिगरेट एंड अदर टोबेको प्रोडक्ट्स (प्रोहिबिशन ऑफ एडवरटाइजमेंट एंड रेगुलेशन ऑफ ट्रेड एंड कॉमर्स प्रोडक्शन सप्लाई एंड डिस्ट्रिब्यूशन) एक्ट संसद में पेश किया गया तब भी भारतीय और विदेशी तंबाकू लॉबी ने उसका विरोध किया था।

हालांकि भारत की संसद ने अप्रैल 2003 में उसे पारित कर 25 फरवरी 2004 को गजट में प्रकाशित कर दिया था। इस कानून के प्रावधानों में सिगरेट व अन्य तंबाकू उत्पादों पर सचित्र चेतावनी छापने का निर्देश था। इसमें 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को सिगरेट न बेचने, स्कूल व शिक्षण संस्थानों के नजदीक तंबाकू सिगरेट की दुकान न खोलने जैसे छह महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। फिर सन् 2005 में पुन: सार्वजनिक स्थानों को आवश्यक रूप से धूम्रपान/नशा निषेध क्षेत्र घोषित करने का कानून आया। सन् 2009 में फिर तंबाकू/नशा विरोधी कानून आया। सरकार के इन प्रयासों के बावजूद भारत में नशा मुक्ति की राह अब भी आसान नहीं है, जबकि कुछ प्रदेशों ने स्वयं को नशामुक्त प्रदेश घोषित कर भी दिया है।

असल सवाल यह है कि तंबाकू-सिगरेट की इतनी पैरवी क्यों हो रही है? दरअसल भारत का तंबाकू बाजार कोई 11000 करोड़ से भी ज्यादा का है। भारत में तंबाकू का उपयोग 48 प्रतिशत चबाने, 38 प्रतिशत बीड़ी एवं 14 प्रतिशत सिगरेट के रूप में होता है। उसमें सबसे ज्यादा 86 प्रतिशत तंबाकू सूखी, खैनी, जर्दा के रूप में इस्तेमाल होती है। भारत दुनिया में तीसरे नंबर का तंबाकू उत्पादक देश है। यहां सालाना 72.50 करोड़ किलोग्राम तंबाकू का उत्पादन होता है। देश में तंबाकू व्यवसाय की सबसे बड़ी कंपनी आईटीसी का 72 प्रतिशत बाजार पर कब्जा है, जबकि गॉडफ्रे फिलिप्स 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखती है। भारत का तंबाकू निर्यात 80 देशों में फैला है। और सबसे अहम बात, तंबाकू व्यवसाय से सरकार को 1 हजार करोड़ से ज्यादा की आमदनी होती है।

चिकित्सा वैज्ञानिक कहते हैं कि सिगरेट या बीड़ी के जलने से निगलने वाले धुएं से भी खतरनाक धूम्रपान करने वाले व्यक्ति के मुंह से निकलने वाला धुंआ होता है। क्योंकि मुंह से छोड़े गए धुएं में ज्यादा जहरीले रसायन मिले होते हैं। अगर तंबाकू का रासायनिक विश्लेषण करें तो पाएंगे इसमें निकोटिन, कार्बन मोनो ऑक्साइड एवं टार नामक मुख्य हानिकारक पदार्थों के अलावा सैकड़ों जहरीले रसायन होते हैं। भारत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली का ही अध्ययन साफ बताता है कि तंबाकू या नशे का सेवन रेटिना तथा ऑप्टिक नर्व को प्रभावित करता है। इससे आंखों की रोशनी कम होने लगती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर,नई दिल्ली) का अध्ययन है कि गर्भवती महिलाओं पर तंबाकू का गंभीर असर होता है।

बताया जा रहा है कि तंबाकू न तो जहर है, न ही जानलेवा, न ही कैंसरकारी। यह भी कहा जा रहा है कि भारत में कैंसर के दुष्प्रभाव पर कोई अध्ययन हुआ ही नहीं है। जबकि सच तो यह है कि भारत के लगभग सभी प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान एवं शोध संस्थानों द्वारा सैकड़ों अध्ययन प्रकाशित किए जा चुके हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ख्याति मिल चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अध्ययन के अधिकांश तथ्य भारत तथा भारतीय उपमहाद्वीप के वैज्ञानिकों द्वारा ही प्रदान किए गए हैं।

यदि हमारे सांसदों को तंबाकू पर भारतीय अध्ययन की जानकारी नहीं है तो उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं विश्व बैंक द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित 289 पृष्ठों के 'रिसर्च ऑन टोबैको इन इंडिया, अगस्त 2005" का अध्ययन कर लेना चाहिए। स्वयं भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा प्रकाशित 'रिपोर्ट ऑन टोबैको कंट्रोल इन इंडिया वर्ष 2004" तो 396 पृष्ठों की विस्तृत और बेबाक रिपोर्ट है, इसे भी सांसदों को पढ़ लेना चाहिए। टोबैको एंड लंग्स हेल्थ पर मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च का अध्ययन देखे बगैर हमारे सांसद कैसे तंबाकू की वकालत कर रहे हैं? भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के मद्देनजर तंबाकू की पैरवी करना सीधे मौत की पैरवी करना है। हमारे सांसद न भूलें कि तंबाकू से भारत में सालाना 10 लाख से ज्यादा मौतें हो रही हैं और उन्हें 10 हजार करोड़ के तंबाकू कारोबार की चिंता है।

तंबाकू उद्योग में लगे 40 हजार लोगों की चिंता करने का हवाला दे रहे सांसदों-राजनेताओं का असल मकसद अपने मुनाफे की रक्षा से जुड़ा है, क्योंकि तंबाकू से होने वाली मौतों पर वे चुप हैं। इन सांसदों को बताया जाना चाहिए कि डेढ़ से दो लाख स्वास्थ्यकर्मी तंबाकू से प्रभावित लोगों की सेवा में लगे हैं। उन्हें यह भी बताएं कि तंबाकू से होने वाले रोगों और विकृतियों की वजह से सालाना 1 लाख 45 हजार करोड़ की हानि होती है। अब यह भी अध्ययन उपलब्ध हैं कि तंबाकू विरोधी अभियान से कैंसर के मामलों में कमी आई है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के पास इसके पुख्ता आंकड़े हैं।

नेताजी अपने व्यावसायिक हितों की वकालत तो करें, पर ध्यान रहे कि उनका निजी हित कहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य को विकृत तो नहीं कर रहा। जो लोग तंबाकू की वकालत कर रहे हैं, वे देश के लोगों की सेहत से खेल रहे हैं। आज भी तंबाकू लॉबी और उनके समर्थक राजनेता कम शक्तिशाली नहीं हैं।

(लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त चिकित्सक हैं


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