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न्यूज क्लिपिंग्स् | यहां जन्म लेते ही अग्निपरीक्षा से गुजरते हैं नवजात

यहां जन्म लेते ही अग्निपरीक्षा से गुजरते हैं नवजात

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published Published on Nov 29, 2014   modified Modified on Nov 29, 2014
विकास पांडेय, कोरबा। उरगा-करतला मार्ग पर एक ऐसा गांव भी है, जहां के नवजात शिशुओं को जन्म लेते ही एक भीषण अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। यहां के आदिवासी समुदाय के लोग अपने एक से 10 दिन के दूधमुहे बच्चों के पेट में लोहे की गर्म सीक से दाग दिलाते हैं। उनका मानना है कि इस तरह नवजातों को सर्दी-जुकाम व पेट की बीमारियों से हमेशा के लिए निजात मिल जाती है। वर्षों पहले चांद पर कदम रख चुके वैज्ञानिकों के देश में आश्चर्यचकित कर देनी वाली ऐसी अंधविश्वासी प्रथा का चलन देख किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएं।

अत्याधुनिक तकनीकों के युग में जहां बच्चों को दर्द से छुटकारा देने पांच बीमारियों के तीन टीकों के विकल्प में एक टीके इजात हो चुका है, वहीं सर्दी-जुकाम के मामूली मर्ज के लिए कुछ आदिवासी समुदाय द्वारा गर्म लोहे से नवजातों के पेट जलाए जा रहे हैं। यह क्रूर प्रथा है जिला मुख्यालय से महज 25 से 30 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम पंचायत फत्तेगंज की।

यहां के आश्रित गांव टेंपाभाठा में कंवर, गोंड़ तथा मन्नेवार समाज के आदिवासी ग्रामीण पिछले 100 से ज्यादा वर्षों से इस प्रथा को परंपरा की तरह मानते आ रहे हैं। गांव के बड़े-बूढ़ों से लेकर पढ़े-लिखे युवा भी इस प्रथा को बड़ी ही गंभीरता से अपनाते हैं। इस गांव में खासकर आदिवासी समाज का ऐसा एक भी बच्चा नहीं होगा, जिसके पेट में गर्म लोहे से चमड़ी के झुलस जाने का निशान न हो।

छाते की सीक तपाते हैं गोरसी में

फत्तेगंज के आश्रित ग्राम टेंपाभाठा में रहने वाला मन्नेवार परिवार पिछले 100 वर्षों से गांव में बैगा की भूमिका निभाता है। बैगा आनंद कुमार मन्नेवार के पास फत्तेगंज, टेंपाभाठा, दादरकला व ढेलवाडीह सहित आस-पास के कई गांवों से लोग अपने मासूम बच्चों को लेकद दाग दिलाने आते हैं। आनंद ने बताया कि इसके लिए किसी से कोई रकम नहीं ली जाती, वह तो बस अपने पुरूखों से मिले ज्ञान के जरिए सेवा करता है।

उसने बताया कि छाते की सलाई की नोक को बच्चों की सेकाई करने वाली गोरसी में तपा कर बच्चों के पेट में दागा जाता है। इस तरह बच्चों को सर्दी-जुकाम से बचाया जाता है। इसका इस्तेमाल वह खुद अपने व परिवार के अन्य बच्चों पर भी कर चुका है। उससे पहले उसके पिता जोइधा इस काम को करते थे। इसी पद्धति से वह हाइड्रोसील का भी शर्तिया इलाज करने दावा करता है।

100 साल पहले शुरू हुआ चलन

इसी गांव में रहने वाले 60 वर्षीय बुजुर्ग धनीराम कंवर ने बताया कि करीब 100 साल पहले इस गांव में खाल्हेपार (महानदी का निचला क्षेत्र) स्थित डभरा क्षेत्र से मन्नेवार परिवार यहां आकर बसा था। तब बच्चों को सर्दी-जुकाम से बचाना काफी मुश्किल होता था। मन्नेवार समाज ने ही इस नई युक्ति के बारे में बताया, जिससे सर्दी-जुकाम व पोलाई (पेट की बीमारी) का शर्तिया इलाज होता था।

तभी से एक-दो दिन से लेकर 10-12 दिन के नवजात बच्चों छठी के दिन या दूसरे मौके पर पेट में गर्म लोहे से डभवाया (दाग देने का चलन शुरू हुआ) जाता है। इससे लोगों को फायदा होता था, इसलिए इस प्रथा को आज पूरा गांव अपना चुका है।

यहां हर बच्चे के पेट में दिखेंगे निशान

फत्तेगंज से लगे ग्राम पंचायत दादरकला के आश्रित गांव ढेलवाडीह में भी नवजात बच्चों को डभवाने का चलन है। इस तरीके में बच्चों को दर्द नहीं होता। यहां बैगा जड़ी-बूटी व मंत्रों के इस्तेमाल से डाभता है। पांचवी कक्षा तक पढ़ी आंगनबाड़ी सहायिका लक्ष्मीबाई गो़ंड ने बताया कि यहां का बैगा केदार बच्चों के पेट में राख का लेप लगाकर मंत्रोच्चार के साथ जड़ी-बूटी का रस बच्चे के पेट में टपकाता है और पेट में दाग के निशान बन जाते हैं।

आठवीं तक पढ़ी प्राथमिक शाला ढेलवाडीह की रसोइया किसन बाई ने बताया कि उसके मायके में ऐसा चलन नहीं था, लेकिन यहां की प्रथा के अनुरूप उसने भी अपने पुत्र बसंत को बैगा से डभवाया है। गांव 55 वर्षीय अघन बाई ने बताया कि उसके 7 नाती-पोतों सहित गांव में रहने वाले लगभग सभी लोगों के पेट में यही निशान देखने को मिलेगा।

किस काम की ऐसी साक्षरता

एक ओर शासन द्वारा गांव-गांव व गली-मुहल्लों में हर वर्ग को शिक्षित स्कूल खोले जा रहे हैं, तो दूसरी ओर प्रौढ़ों को अक्षर ज्ञान कराने साक्षरता केंद्र स्थापित किए गए हैं। बच्चों व बड़ों को शिक्षित व साक्षर करते हुए कुप्रथाओं व अंधविश्वास को समाज से बाहर करने किए जा रहे जतनों पर हर साल करोड़ों खर्च कर किए जा रहे हैं।

बावजूद इसके शहर के इतने करीब के गांवों में भी शिक्षा का उजियारा नजर नहीं आना, इन सरकारी कवायदों की पोल खोलने के लिए काफी है। मासूम बच्चों को गर्म लोहे की अग्निपरीक्षा के दर्द से गुजरने की मजबूरी को यहां के लोगों द्वारा परंपरा कही जाती है। विडंबना तो यह है कि इस कुप्रथा का अनुसरण पढ़े-लिखे लोग भी उतना ही जरूरी मानते हैं, जितने कि असाक्षर।

अब भी लग रहा मौत का इंजेक्शन

गुरूवार को दादरकला के आश्रित गांव ढेलवाडीह में रहने वाले पानसिंह कंवर के दो माह के पुत्र धर्मेश की मौत हो गई थी। धर्मेश को सर्दी-खांसी होने पर गांव के ही झोलाछाप डॉक्टर मोतीलाल चौहान द्वारा इलाज किया जा रहा था। मौत के दिन भी सुबह 9 बच्चे उसने एक इंजेक्शन लगाया था, जिसके तीन घंटे के भीतर उसकी मौत हो गई। 'नईदुनिया' की टीम ढेलवाडीह में मोतीलाल से मिलने पहुंची, लेकिन वह घर पर नहीं मिला।

इस गंभीर घटना के बाद भी उसका क्लिनिक बदस्तूर चल रहा है। मोतीलाल के मोबाइल पर कॉल करने पर उसने भैसमा में आकर मिलने को कहा। जब भैसमा पहुंचकर उसे कॉल किया गया, तो उसका मोबाइल स्विच ऑफ हो गया था। पानसिंह ने अपनी शिकायत में जिला अस्पताल पुलिस चौकी को झोलाछाप डॉक्टर से इलाज की बात भी बताई थी। बावजूद इसके वह अब तक मौत के इंजेक्शन की दुकान चल रही है।


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