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न्यूज क्लिपिंग्स् | रुपया कमजोर होने के कारण-- संदीप बामजई

रुपया कमजोर होने के कारण-- संदीप बामजई

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published Published on May 18, 2018   modified Modified on May 18, 2018
विदेशी निवेशक जब अपना रुपया भारतीय बाजार से निकालते हैं, तो डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कम हो जाती है. पिछले एक माह में विदेशी निवेशकों ने दो बिलियन डॉलर से अधिक रकम भारतीय शेयर बाजार से निकाल लिया है. नतीजन, डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत में गिरावट तय है.

इसका दूसरा समानांतर पहलू यह है कि इंटरनेशनल मार्केट में कच्चे तेल की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है. घरेलू खपत का करीब 80 फीसदी तेल हमें आयात करना होता है. केंद्र की मौजूदा सरकार के बीते तीन वर्षों के कार्यकाल में कच्चे तेल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल से नीचे रही है.

पिछले करीब छह-आठ माह से तेल की कीमत 70 डॉलर से ज्यादा हुई है. इस कारण भारत का कच्चे तेल का आयात बिल 115 बिलियन डॉलर हो गया. अब चूंकि भारत कच्चे तेल पर पूरी तरह से विदेशी आयात पर निर्भर है, तो आयात बिल पर इसका असर होना स्वाभाविक है. चाहे हम इसे रुपये में खरीदें या डॉलर में. इसका तीसरा पहलू देश की राजनीति से भी जुड़ा रहा है. कर्नाटक चुनाव के नतीजों और उसके बाद सरकार गठन में रस्साकशी से भी यह प्रभावित हुआ. कांग्रेस के समर्थन से जेडीएस की सरकार बनने की खबरें आने से रुपये की कीमत और लुढ़कती चली गयी. लेकिन, जैसे ही राज्यपाल ने यह घोषणा की कि येदियुरप्पा की अगुवाई में कर्नाटक में भाजपा की सरकार शपथ ग्रहण करेगी, वैसे ही रुपया कुछ हद तक मजबूत हुआ, और डॉलर के मुकाबले यह 68 रुपये से कम होकर 67 रुपये के करीब आ गया. इन तीन महत्वपूर्ण कारणाें से रुपये में भारी गिरावट देखी गयी है.

इस गिरावट को थामने में भारतीय रिजर्व बैंक भी आगे आया है. रिजर्व बैंक के पास 'स्टरलाइजेशन' के रूप में एक प्रावधान है, जिसके जरिये वह इन हालातों में रुपये की गिरती कीमत को थामने के लिए बाजार में डॉलर खरीदती है. जब वह डॉलर खरीदती है, तो फॉरेक्स मार्केट में स्थिरता आती है. भारतीय रिजर्व बैंक ने हालात को काबू में करने के लिए मंगलवार और बुधवार को बाजार में डॉलर खरीदना शुरू किया, जिस कारण रुपये में कुछ स्थिरता आयी. इसमें भी दो चीजें हैं.

भारत से वस्तुओं और सेवाओं को निर्यात करनेवालों के लिए ऐसी स्थिति अनुकूल होती है, जैसे- जेम्स, ज्वेलरी, आइटी सेवाओं, सॉफ्टवेयर, विविध वस्तुओं आदि के निर्यातकों को इससे फायदा होता है, क्योंकि प्रत्येक डॉलर के लिए इन्हें ज्यादा रुपये मिलते हैं. लेकिन, आयातकों को इससे भारी नुकसान होता है. उन्हें प्रत्येक आयातित सामान या सेवाओं के लिए ज्यादा रुपये चुकाने पड़ते हैं.

साथ ही, विदेश में अपने बच्चों को पढ़ानेवालों या विदेश जानेवालों के लिए नुकसान होता है. यानी यह दोधारी तलवार है- निर्यातक को नफा, तो आयातक को नुकसान. इससे करेंट एकाउंट डेफिसिट और ट्रेड डेफिसिट, दोनों ही बढ़ जायेगा. भारत में कच्चे तेल का आयात करनेवाली कंपनियों पर इसका अधिक असर पड़ेगा. तेल कंपनियों का घाटा बढ़ जायेगा.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान पेट्रोल और डीजल, दोनों को डी-रेगुलराइज किया गया है, यानी इन दोनों चीजों की कीमत बाजार के मुताबिक रोजाना आधार पर तय होती हैं. बीते कुछ वर्षों के दौरान कच्चे तेल की कीमत कम थी, लेकिन सरकार ने इस दौरान बेहतर रणनीति नहीं बनायी और कोई 'रिजर्व फंड' नहीं बनाया, ताकि कीमत बढ़ने की दशा में उसे समायोजित किया जा सके. बहुत कम रकम ही इस फंड में जमा की गयी.

सरकार के पास अच्छा मौका था, लेकिन मुनाफे को 'पास थ्रू' करने के बजाय वह अपनी जेब भरने लगी. बीते वर्षों के दौरान करीब आठ बार ऐसे मौके आये, जब सरकार मुनाफे को 'पास थ्रू' कर सकती थी, लेकिन उसने इस पर 'एक्साइज' लगा कर अपनी झोली भर ली. आम आदमी की समस्याओं को दरकिनार करते हुए सरकार खुद अपनी जेब भरती रही. कच्चे तेल की कीमत जब 30 से 40 डॉलर के बीच थी, तब इस खास मकसद से बनाये गये 'रिजर्व फंड' में बड़ी रकम जमा की जा सकती थी. अमेरिका में इस लिहाज से बेहतर रणनीति बनायी गयी है और ऐसे समय में इससे बड़ा रिजर्व खड़ा किया जाता है.

गैस पर हमारी बढ़ती विदेशी निर्भरता ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है. पिछले काफी समय से सोलर एनर्जी को बढ़ावा देने की बातें तो हो रही हैं, लेकिन इस दिशा में अब तक कुछ ठोस नहीं हो पाया है. यही कारण है कि तेल और गैस पर हमारी निर्भरता कम नहीं हो रही है.
कच्चे तेल की कीमतों के बढ़ने का बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक अस्थिरता से जुड़ा है. यदि सीरिया में लड़ाई जारी रहेगी, गाजा में संघर्ष कायम रहेगा, ईरान पर खास पाबंदी लागू रहेगी, तो कच्चे तेल की कीमत बढ़ती रहेगी. इसमें ओपेक (तेल उत्पादक देशों का संगठन) की राजनीति का भी बड़ा योगदान है. यह संगठन अर्थशास्त्र पर कम, राजनीति पर अधिक जोर देता है. ओपेक में सर्वाधिक प्रभावी सदस्य सऊदी अरब है.

वह चाहता है कि वहां की सबसे बड़ी तेल कंपनी (सऊदी अरेमको) की लिस्टिंग हो और वह पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन जाये. इससे इसकी गिनती बड़ी कंपनियों में हो सकेगी. साथ ही, सऊदी अरब यह भी चाहता है कि जब इस कंपनी की लिस्टिंग हो, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल से अधिक हो.

भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था पर इसका व्यापक असर पड़ने की आशंका है. एक ओर जहां व्यापार घाटा और आयात बिल बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर उपभोक्ता पर इससे अनेक तरीके से मार पड़ेगी. दिल्ली में भले ही पेट्रोल की कीमत 75 रुपये प्रति लीटर है, लेकिन अनेक राज्यों में यह 80 रुपये से अधिक हो चुकी है.

आम आदमी को राहत देने के लिए यह जरूरी है कि इस पर लगे टैक्स को कम किया जाये. हालांकि, यदि सरकार ने समय रहते 'रिजर्व फंड' बनाया होता, तो आज यह नौबत आती ही नहीं.

पिछले तीन वर्षों के दौरान भारत सरकार ने तेल पर लगाये गये टैक्स के जरिये 2,83,000 करोड़ रुपये का राजस्व अर्जित किया है. दूसरी ओर, राज्य सरकारों ने इसके जरिये 1,74,000 करोड़ रुपये की कमाई की है. अब फिर से पेट्रोल व डीजल पर सब्सिडी देने की जरूरत महसूस की जा रही है. क्योंकि कच्चे तेल की कीमत जब 80 डॉलर से ज्यादा हो जायेगी, तो लोगों को सब्सिडी देनी होगी.

इससे प्रमुख तेल कंपनियां एक बार फिर से घाटे में जा सकती हैं. इस संबंध में एक उल्लेखनीय तथ्य है कि कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की बढ़ोतरी से भारत में 'तेल पूल घाटा' करीब 4,000 करोड़ रुपये बढ़ जाता है.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/rupee-weak-foreign-investor-rupee-indian-market-crude-oil-price/1158490.html


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