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न्यूज क्लिपिंग्स् | रेगिस्तान का बढ़ता दायरा-- निरंकार सिंह

रेगिस्तान का बढ़ता दायरा-- निरंकार सिंह

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published Published on Nov 13, 2017   modified Modified on Nov 13, 2017
दुनिया के सामने आज सबसे बड़ा संकट उपजाऊ भूमि के लगातार रेगिस्तान में बदलने से पैदा हो रहा है। धरती के रेगिस्तान में बदलने की प्रक्रिया बड़े पैमाने पर चीन, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, भूमध्यसागर के अधिसंख्य देशों तथा पश्चिम एशिया, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के सभी देशों सहित भारत में भी जारी है। इतिहास गवाह है कि दुनिया के हर साम्राज्य का अंत उसके रेगिस्तान में बदल जाने के कारण ही हुआ है। सहारा दुनिया का आज सबसे बड़ा रेगिस्तान है। लेकिन लगभग पांच हजार से ग्यारह हजार साल पहले यह पूरा इलाका हरा-भरा था। आज के मुकाबले तब यहां दस गुना अधिक बारिश होती थी। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है। सहारा रेगिस्तान में उस समय शिकारी रहा करते थे। ये शिकारी जीवनयापन के लिए इलाके में पाए जाने वाले जानवरों का शिकार करते थे और यहां उगने वाले पेड़-पौधों पर आश्रित थे। इस शोध में पिछले छह हजार सालों के दौरान सहारा में बारिश के प्रतिमानों और समुद्र की तलहटी का अध्ययन किया गया है। यूनिवर्सिटी आॅफ अरिजोना की जेसिका टी इस अध्ययन की मुख्य शोधकर्ता हैं। उन्होंने कहा, ‘आज की तुलना में सहारा मरुस्थल कई गुना ज्यादा गीला था।' अब सहारा में सालाना 4 इंच से 6 इंच तक बारिश होती है। इससे पहले हुए कुछ शोधों में हालांकि ‘ग्रीन सहारा काल' के बारे में पता लगाया जा चुका था, लेकिन यह पहला मौका है कि इस पूरे इलाके में पिछले पच्चीस हजार सालों के दौरान होने वाली बारिश का रेकार्ड खोजा गया है।


आज के मोरक्को, ट्यूनीशिया और अलजीरिया के वृक्षहीन सूखे प्रदेश किसी समय रोमन साम्राज्य के गेहूं उत्पन्न करने वाले प्रदेश थे। इटली और सिलिका का भयंकर धरती-कटाव उसी साम्राज्य का दूसरा फल है। मेसोपोटेमिया, सीरिया, फिलस्तीन और अरब के कुछ भागों में मौजूदा सूखे वीरान भूभाग, बेबीलोन, सुमेरिया, अक्काड़िया और असीरिया के महान साम्राज्यों के स्थान थे। किसी समय ईरान एक बड़ा साम्राज्य था। आज उसका अधिकांश भाग रेगिस्तान है। सिकंदर के अधीन यूनान एक साम्राज्य था। अब उसकी अधिकांश धरती बंजर है। तैमूर लंग के साम्राज्य की धरती पर उसके जमाने में जितनी पैदावार होती थी उसका अब एक छोटा-सा हिस्सा ही पैदा होता है। ब्रिटिश, फ्रेंच और डच इन आधुनिक साम्राज्यों ने अभी तक मरुभूमियां उत्पन्न नहीं की हैं। पर एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और उत्तरी अमेरिका की धरती का सत चूसने में और खनिज संसाधनों का अपहरण करने में इन साम्राज्यों का बड़ा हाथ रहा है। केन्या, युगांडा और इथोपिया में इमारती लकड़ी की कटाई से नील नदी का विशाल और समान प्रवाह जल्दी ही नष्ट हो सकता है। पूरी दुनिया में उष्णकटिबंधीय जंगल दो करोड़ हेक्टेयर हर साल की रफ्तार से कट रहे हैं। यह सिलसिला जारी रहा तो अगले बीस-पच्चीस सालों में सभी उष्णकटिबंधीय जंगल खत्म हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ, जिसकी आशंका है, तो पूरी दुनिया के सामने खाद्यान्न, जल और आक्सीजन का संकट इतना गहरा जाएगा कि वह धरती पर जीवन के अस्तित्व का संकट बन जाएगा।


संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुमानों के अनुसार, 2009 में विश्व में प्रतिदिन भूखे रहने वाले लोगों की संख्या 1.02 अरब की ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गई, जो कि विश्व की संपूर्ण जनसंख्या का छठा भाग है। पिछले एक वर्ष में इसमें दस करोड़ की वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव बान की मून ने खाद्य सुरक्षा एवं जलवायु परिवर्तन को वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए उन्हें परस्पर अंतरसंबंधित बताया। मून के अनुसार, ‘विश्व में आवश्यकता से अधिक भोजन है। इसके बावजूद एक अरब से ज्यादा लोग भूखे रहते हैं। 2050 तक विश्व की आबादी नौ अरब से ज्यादा हो जाएगी, अर्थात आज से दो अरब ज्यादा। प्रत्येक वर्ष साठ लाख बच्चे भुखमरी के शिकार होते हैं, खाद्य सुरक्षा जलवायु सुरक्षा के बिना संभव नहीं है।'जितनी तेजी से मानव जाति के मन, हृदय और आदतें बदल रही हैं, उतनी ही तेजी से या उससे भी ज्यादा तेजी से होने वाले धरती कटाव के कारण हमारे अन्न उत्पादन के साधन नष्ट हो रहे हैं। खाद्य पदार्थों की इस सतत बढ़ रही कमी के साथ-साथ (क्योंकि धरती कटाव का परिणाम यही होता है) संसार की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले ढाई सौ वर्षो में इसकी गति और भी बढ़ गई है। ‘हमारी लुटी हुई पृथ्वी' (अवर प्लन्डर्ड प्लेनेट) नामक अपनी पुस्तक में फेयरफील्ड आॅस्बर्न यह अनुमान लगाते हैं कि सारे जगत में 4 अरब एकड़ से अधिक खेती के लायक जमीन नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की खुराक और खेती संबंधी संस्था ने अपनी मासिक पत्रिका में यह अनुमान लगाया है कि संसार में कुल भूमि 33 अरब 12 करोड़ 60 लाख एकड़ है और कृषियोग्य भूमि 3 अरब 70 लाख एकड़ है।


कार्नेल विश्वविद्यालय के पियरर्सन और हेईज ने ‘संसार की भूख' (दि वर्ल्ड हंगर) नामक अपने ग्रंथ में कुल भूमि के क्षेत्रफल का अंदाज 35 अरब 70 करोड़ एकड़ लगाया है। उन्होंने यह भी अनुमान लगाया है कि इस सारे क्षेत्रफल की 43 प्रतिशत भूमि में ही फसल उगाने के लिए पर्याप्त वर्षा होती है। उन्होंने वार्षिक 40 सेमी वर्षा ही पकड़ी है, जो काफी नहीं मानी जा सकती। इस सारी जमीन के 34 प्रतिशत भाग में ही इतनी वर्षा होती है जो पर्याप्त है। उनका यह विश्वास है कि 32 प्रतिशत जमीन पर ही फसल उगाने के लिए पर्याप्त वर्षा, विश्वस्त वर्षा और पर्याप्त गर्मी पड़ती है। केवल 7 प्रतिशत भाग पर ही भरोसे के लायक वर्षा होती है, पर्याप्त गर्मी पड़ती है, वह लगभग बराबर सतह वाला है और उसकी मिट्टी उपजाऊ है। 35 अरब 70 करोड़ एकड़ का 7 प्रतिशत भाग 2 अरब 49 करोड़ 90 लाख एकड़ कृषियोग्य जमीन के बराबर होता है। जलवायु परिवर्तन रोकने के साथ-साथ धरती के कटाव को भी रोकने के ठोस उपाय किए जाने चाहिए। इस प्रकार संसार भर में 2 अरब 50 करोड़ और 3 अरब 70 करोड़ एकड़ के बीच ऐसी भूमि है जो मनुष्य के लिए खाद्यान्न पैदा कर सकती है। मनुष्य जलवायु या भूगोल को नहीं बदल सकता। विशेषज्ञों ने काफी सोच-विचार के बाद यह राय प्रकट की है कि किसी भी उपाय से इससे अधिक जमीन को खेती के लायक बनाना संभव नहीं है और कुल मिलाकर खेती की पैदावार की वृद्धि उतनी नहीं हो सकेगी जितनी दुनिया की जनसंख्या के बढ़ने की संभावना है। खेती की दस से पंद्रह प्रतिशत जमीन का उपयोग पटसन और तंबाकू वगैरह की पैदावार के लिए किया जाता है। इसलिए खाद्य पदार्थों के लिए उपरोक्त आंकड़ों द्वारा बताई गई जमीन से वास्तव में कम ही जमीन उपलब्ध है।


इन आंकड़ों से प्रकट होता है कि अगर सारी जमीन संसार के तमाम लोगों में समान रूप से न्यायपूर्वक बांट दी जाय, व्यापार-वाणिज्य पूरी तरह आदर्श बन जाएं और खाद्यान्न लाने-ले जाने के लिए ढुलाई का खर्च और भाव के प्रतिबंध न हों और अगर सारी दुनिया शाकाहारी बन जाय, तो भी संसार के सारे लोगों को मुश्किल से खाना मिलेगा। यह समस्या बहुत पेचीदा है। इससे निपटने के लिए बहुत कुछ करना होगा। पर इतना साफ है कि भुखमरी मिटाने और खाद्य सुरक्षा के लिए कृषियोग्य भूमि को बचाने और कृषिभूमि की उर्वरता का संरक्षण करने, जहां यह उर्वरता क्षीण पड़ गई हो वहां उसे बहाल करने का तकाजा सर्वोपरि है।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-normal-land-changing-into-desert/483536/


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