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न्यूज क्लिपिंग्स् | रोटी की बहस और बहस की जमीन- चंदन श्रीवास्तव

रोटी की बहस और बहस की जमीन- चंदन श्रीवास्तव

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published Published on Oct 27, 2010   modified Modified on Oct 27, 2010
सलाह मिल गयी है. खाद्य-सुरक्षा विधेयक का मसौदा अपनी परिणति तक आ पहुंचा है. लोग जान गये हैं कि यूपीए सरकार ना सही सबको तो भी कम-से-कम 80 फ़ीसदी लोगों को सस्ता अनाज देने जा रही है. लोग खुश हैं या नहीं, कहा नहीं जा सकता. भोजपुरी में एक कहावत है-ये सूरदास घीव कड़कड़ाईल बा और सूरदास का जवाब कि थरिया में पड़ो तब नू. खाद्य-सुरक्षा के मामले में जनता-जनार्दन की हालत सूरदास वाली है.

जब तक रोटी थाली ना पड़े वह कह नहीं सकती कि कोई भूखा ना सोये के सपने को साकार करने वाली कोई सरकारी नीति अच्छी है या बुरी और फ़िर जनता अपना फ़ैसला बोलकर कम वोटों के जरिये ज्यादा सुनाती है. सो, यूपीए की सरकार को थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा.बहरहाल, हाथ के हाथ एक बात पक्की है. जिनका दावा जनता का दर्दमंद होने का है, वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के इस फ़ैसले से खुश नहीं हैं.

नरेगा की सैद्धांतिकी तैयार करने वाले ज्यां द्रेज सरीखे सरोकारी अर्थशास्त्री और भुखमरी के मुद्दे पर अपनी तरफ़ से जन-जागरण की जोत जलाने वाले हर्षमंदर सरीखे सामाजिक कार्यकर्ता परिषद की बैठक के फ़ैसले के बाद बाहर निकले, तो जितने उदास थे उससे कहीं ज्यादा खिन्न. खबरें फ़ैली कि इनका इस्तीफ़ा भी आ सकता है.

ज्यां द्रेज और हर्षमंदर को शिकायत है कि सलाहकार परिषद ने मूल लक्ष्य से भटककर सरकारी दबाव में सिफ़ारिशें की. मसौदे में बाल विकास और वृद्धावस्था पेंशन को शामिल नहीं किया गया है. यह सरकार की जीत है, लेकिन आम आदमी की हार है. हर्षमंदर और ज्यां द्रेज को अफ़सोस इस बात का है कि मसौदे से लोगों को लगेगा कि उन्हें खाद्य सुरक्षा मिल गयी है, लेकिन भूख से तड़प रहे लोगों के लिए यह मात्र   छलावा ही होगा.

खाद्य-सुरक्षा के मुद्दे पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफ़ारिशों से नाराज वे भी हैं जो हाथी दांत के मीनारों में बैठकर सोचते हैं और उनकी सोच की सुई बस इसी बात पर टिकी रहती है कि गरीबों को चाहे जो कुछ मिले, मगर इस बात का ध्यान रखा जाये कि करदाताओं का पैसा पानी में तो नहीं बहाया जा रहा है. कौन हैं ये लोग? इनका कोई एक नाम नहीं है.

यह एक प्रवृति है और इसके बारे में इतना कहा जा सकता है कि सामाजिक-ओर्थक हैसियत से देश के सबसे ऊंची पायदान पर बैठे तकरीबन 20 करोड़ लोगों में यह वास करती है. एक बार सोच पर यह प्रवृति हावी हो जाये, तो आदमी देश को ओर्थक वृद्धि के आंकड़े में सोचने लगता है और उसकी महत्वाकांक्षा कहती है इस 21वीं सदी में हमारी होड़ अमेरिका और चीन से है, बिना दहाई अंकों के ग्रोथ के काम कैसे चलेगा.

जैसे कभी नेहरू के जमाने में साइंटिफ़िक टेंपरामेंट के पैरोकार कहा करते थे कि विकास होगा, तो कुछ लोगों को अपने हितों की कुर्बानी देनी होगी उसी तरह से इस प्रवृति के गिरफ्तार लोग कहते हैं, गरीबों को देने से पहले ये तो देख लो कि राष्ट्रीय बजट पर वित्तीय बोझ कहीं बढ़, तो नहीं रहा और यह भी कि क्या सचमुच इससे गरीबों को कुछ फ़ायदा होने जा रहा है.

खाद्य सुरक्षा यानी महज सस्ते अनाज की योजना यही शीर्षक है राजधानी के कुछ अखबारों में खाद्य-सुरक्षा के मसौदे पर रखी गयी सोच-विचार का. इस सोच का तर्क संक्षेप में यह है कि सलाहकार परिषद ने कुपोषण से लड़ने के लिए जिन सिफ़ारिशों को मंजूरी दी है, वे सस्ते अनाज की योजना का ही दूसरा रूप है.

इसलिए इसमें नया कुछ नहीं. परिषद ने सिर्फ़ इतना किया है कि 44 फ़ीसदी ग्रामीण और 22 फ़ीसदी शहरी घरों की एक सामान्य श्रेणी बनाकर उन्हें भी सस्ता अनाज देने की सिफ़ारिश की है. इस सोच का तर्क है कि ऐसा करने में व्यावहारिक तौर पर कठिनाई आयेगी, क्योंकि सस्ते अनाज की योजना जर्जर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कारण कारगर नहीं.

गरीबों को दिया जाने वाला सस्ता अनाज उनके हाथों में पहुंचने के बजाय फ़िर से बाजार में पहुंच जाता है. इसलिए निष्कर्ष यह कि बगैर नयी कल्पनाशीलता के अगर खाद्य-सुरक्षा के नाम पर पीडीएस के सहारे कुछ होता है, तो फ़िर सरकारी धन की बर्बादी होगी और महंगाई का बढ़ना भी तय है  क्योंकि सरकार 80 फ़ीसदी आबादी के लिए बाजार से अनाज खरीदेगी और खुले बाजार में उसकी कीमतें बढ़ जायेंगी.

एक तरफ़ खाद्य-सुरक्षा विधेयक के मौजूदा स्वरूप से ज्यां द्रेज और हर्षमंदर नाराज हैं. दूसरी तरफ़ नाराज वे भी हैं जो घुमा-फ़िरा कर कहते हैं कि गरीबों के लिए कुछ करोगे, तो सरकार का पैसा यानी उनसे कर के रूप में वसूला हुआ पैसा पानी में जायेगा, क्योंकि सिस्टम ही खराब है. नाराजगी का केंद्र बिंदु यानी खाद्य-सुरक्षा का मसौदा एक ही मगर नाराजगी के कारण एकदम उलट हैं.

ज्यां द्रेज की टोली कहती है सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सिस्टम ठीक नहीं, तो ठीक कर लिया जायेगा, जबकि टैक्सपेयर की पाई-पाई का हिसाब लेने वाले कहते हैं सार्वजनिक वितरण प्रणाली को क्या सुधारोगे, बहुत हुई कोशिशें और नतीजा निकला सिफ़र. क्या खाद्य-सुरक्षा का मामला बस इतना भर है कि सरकारी योजनाओं के जरिये बात, वृद्धों-महिलाओं और बच्चों के लिए इसमें विशेष प्रावधान कर दिये जायें तो भुखमरी मिट जाये-जैसा कि ज्यां द्रेज-हर्षमंदर का मानना है.

और क्या,  सचमुच सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ठीक ना होने और सरकारी पैसे की बर्बादी का तर्क इस्तेमाल करके भुखमरी के सवाल को ढांक-तोप कर रखा जाये जैसा कि पैसा टैक्सपेयर का, तो हिसाब टैक्सपेयर लेगा वाले कुनबे के लोग चाहते हैं.

भुखमरी केंद्रित सरकारी विचार कि जिसे जिन जरूरी चीजों की जरूरत है उस तक उन जरुरी चीजों को पहुंचाना होगा नि:संदेह अपनी मंशा में नेक और परिणति में लोकतंत्र के भीतर लोगों के हक को मजबूती देने वाला ख्याल है. यह लोगों को अंदर से ताकत देने की बात नहीं करता. यह मानकर चलता है-जो भुखमरी के शिकार हैं, उन सबके पास कुछ ना कुछ क्रयशक्ति जरूर है इसलिए जरूरत भर का अनाज होगा, तो लोग जरूर ही खरीद लेंगे.

लेकिन क्या सचमुच भुखमरी के शिकार लोगों की सामाजिक स्थिति ऐसी है भी. भुखमरी से मौत के जो समाचार छपते हैं कम-से-कम उससे यही साबित होता है कि भूख से मरने वाला जेब से तंग तो होता ही है, अपनी उस नियति से भी मरते दम तक लड़ता है, जो उसे भीख मांगकर पेट भरने के लिए बाध्य करे.

भुखमरी से मरने वाला रोजगार की तंगी यानी क्रयशक्ति के अभाव से जितना भुखमरी की दशा में जाता है उतना ही उस सामाजिक लाज से भी जो उसे काम करके पेट भरने की बात सिखाते आयी है. और यहां काम सिर्फ़ नरेगा से नहीं चलने वाला, यहां बात आयेगी उस खेती-किसानी की जिसका रकबा प्रति व्यक्ति लगातार घट रहा है. क्या यह सच नहीं कि जिस दौर में खेती का रकबा घटा है, उसी दौर में भारत में भुखमरी की समस्या भी बढ़ी है.

अर्जी : टैक्सपेयरों के पैसे का हिसाब लेने वालों से नहीं, मगर ज्यां द्रेज सरीखे लोगों से है कि वे सरकार से कहें, भोजन का अधिकार-जमीन बचाने के हक से जुड़ा है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/55523.aspx


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