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न्यूज क्लिपिंग्स् | 'लिकेज रोकने में पंचायतों की हो सकती है अहम भूमिका' - डा. हरिश्वर दयाल

'लिकेज रोकने में पंचायतों की हो सकती है अहम भूमिका' - डा. हरिश्वर दयाल

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published Published on May 5, 2014   modified Modified on May 5, 2014

अर्थशास्त्री व श्रमिक अर्थव्यवस्था के जानकार डॉ हरिश्वर दयाल गांव के लिये शुरू किये गये कार्यक्रमों-योजनाओं के समुचित लाभ नहीं मिलने के लिए लिकेज को जिम्मेवार मानते हैं. उनका मानना है कि इसे दुरुस्त कर इसके लाभ को और प्रभावशाली बना सकते हैं. नौकरशाही की अस्थिरता को भी विकास के लिए नुकसानदायक मानते हैं. वे मानते हैं कि सामाजिक योजनाओं ने गांव के लोगों को आवाज दी है और जिसकी आवाज जितनी तेज होगी, उसे उतना पहले हक मिलेगा. पंचायतनामा के लिए उनसे राहुल सिंह ने गांव से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बात की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :

गांव के लिए आवंटित होने वाले बजट में हाल के सालों में काफी वृद्धि हुई है. इसका कितना असर गांवों में देखने को मिल रहा है?


गांव में अब भी 70 फीसदी लोग रहते हैं. ग्रामीण इलाकों के लिए हाल में जो कार्यक्रम शुरू किये गये हैं, उसका बहुत तो नहीं लेकिन कुछ तो असर हुआ ही है. इससे गांवों में जागरूकता आयी है. जैसे आप निर्मल भारत अभियान को लें, उससे गांवों में हुए असर का आप संख्या में आकलन नहीं सकते हैं, लेकिन इससे गांव  में स्वच्छता को लेकर जागरूकता आयी है. लोग अब उस बात के बारे में सोच रहे हैं, जिसे ध्यान में रखते हुए इस तरह की योजना आरंभ की गयी. यही हाल राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण व मनरेगा का भी है. हाल में जो बजट आवंटित किये गये हैं, उससे स्वास्थ्य सेवा, ग्रामीण आधारभूत संरचना व रोजगार के लिए काम हुआ है. पर, वह अभी बहुत दृश्यमान नहीं है. यह एक अच्छी सोच है कि गांव का पहले उत्थान करें. यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों स्तर  पर यह एक जरूरी पहल है. यह इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि देखा गया है कि जब इस तरह के कार्यक्रम गांवों में पहुंचते हैं तो उसका राजनीतिक लाभ भी होता है. उदाहरण के लिए यूपीए एक सरकार के कई अच्छे कार्यो का लाभ उसे 2009 के लोकसभा चुनाव में हुआ, जिसके कारण यूपीए दो सरकार बन सकी.कहा गया कि उस जीत में मनरेगा का बड़ा योगदान है. ऐसे में यह सरकारों की भी प्राथमिकता हो गयी है कि वह गांवों का उत्थान करे. मैं यह भी कहूंगा कि जितना विकास होना चाहिए नहीं हुआ है, लेकिन यह बदलाव सकारात्मक है. गांव अगर रोड से जुड़ जाता है, तो कई प्रकार के बदलाव वहां आते हैं. जैसे गांव में कनेक्टिविटी बढ़ जाती है,  लोग आसानी से सेवाओं का लाभ प्रखंड या जिला मुख्यालय से ले लेते हैं. गांव की योजनाओं की निगरानी भी इससे आसान हो जाती है.

तो क्या सरकारों को भी इसका लाभ होता है?


आप देखेंगे कि जहां की सरकार ने सामाजिक योजनाओं के कार्यो को प्राथमिकता दी, वहां की सरकारें मजबूत है. जैसे मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की सरकारें झारखंड में भी इन क्षेत्रों में कार्य हुआ है, लेकिन यहां अभी यह बहुत प्रभावी नहीं दिखता.

मनरेगा का रोजगार, आधारभूत संरचना व कृषि विकास के स्तर पर गांवों को कितना लाभ मिला?


मनरेगा के आने से उनको रोजगार मिला है, जिनको ओपन मार्केट में रोजगार नहीं मिलता था. जैसे महिलाओं को अब रोजगार मिलने लगा, बुजुर्गो को रोजगार मिलने लगा, विकलांगों को भी रोजगार मिलने लगा. इन्हें पहले रोजगार मिलने में दिक्कत होती थी. महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम पैसे दिये जाते थे.  इससे ग्रामीण मजदूरी का ढांचा बदला. शहरों में तो आज भी उसी तरह रोजगार मिल रहे हैं. गांव में हुए इस बदलाव से पलायन भी कम हुआ. लोगों के पास पैसे आये, तो डिमांड व सप्लाइ दोनों ओर से शिक्षा आदि में सुधार आया. जैसे सर्वशिक्षा अभियान के तहत स्कूल खोले गये, लेकिन मनरेगा से श्रमिकों को मिले पैसे के कारण उन्हें स्कूल भेजना व जरूरी चीजें खरीद कर दे पाना संभव हुआ. यह नहीं कह सकते कि बहुत बड़ा बदलाव हुआ. थोड़ा ही हुआ, लेकिन यह काफी महत्वपूर्ण है.

पर, योजनाओं कार्यक्र मों का लाभ उतना प्रभावी क्यों नहीं दिख पाता. इसमें अड़चन कहां है?


झारखंड में राजनीतिक व नौकरशाही के स्तर पर जो अस्थिरता है, वह इसका बड़ा कारण है. राजनीतिक अस्थिरता तो योजनाओं कार्यक्रमों प्रभावित करती है, लेकिन उससे भी कहीं अधिक नौकरशाही की अस्थिरता उसे प्रभावित करती है. राज्य में अफसर बहुत तेजी से बदल जाते हैं. अधिकारियों की काफी कमी भी है. अगर आपके पास अफसर नहीं हैं, तो उपयोगिता प्रमाण नहीं बन पाता है और अगर उसे बना कर केंद्र को नहीं भेजेंगे तो अगले चरण का पैसा नहीं आयेगा. ये बड़ी समस्या है. लंबे समय तक राज्य में पंचायती राज संस्थाओं का नहीं होना  भी इसका एक कारण है. लेकिन अच्छी बात है कि अब राज्य में पंचायती राज संस्थाएं अस्तित्व में आ गयीं.

सामाजिक योजना से गांव कैसे प्रभावित हुए?


सामाजिक योजनाओं के तहत गांवों को अलग-अलग मद में जो पैसे मिलते हैं, वे बहुत थोड़े होते हैं. एक तरह से सांत्वना राशि होती है वह. लेकिन फिर भी इसका लाभ हुआ है. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के द्वारा इसका इसका अध्ययन किया गया है, जिसमें यह बात उभर कर सामने आयी कि इस तरह की योजनाओं का अच्छा लाभ मिला है. जहां वे इस तरह की सुविधाओं से पूरी तरह वंचित थे, वहीं कुछ तो लाभ मिल रहा है.

हाल की योजनाओं ने महिलाओं के जीवन को किस तरह बदला है या प्रभावित किया है?


इससे महिलाओं को भी लाभ हुआ है. निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाएं मजबूत हुई हैं. स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी महिलाएं अधिक सशक्त व आत्मनिर्भर हुई हैं. इसके जरिये उनके अंदर परिवार में भी निर्णय लेने की क्षमता विकसित हुई है. उनकी सामाजिक भागीदारी भी बढ़ी है. अब उन्हें आवाज मिल गयी है. पंचायत  में भी उन्हें भागीदारी मिली है. इससे उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ी है. पंचायत प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने के बाद एक महिला तो आरंभ में पति के जरिये के फैसले लेती है व कार्यक्रमों में जाती है, लेकिन बाद में वे खुद फैसले लेने लगती हैं. इससे महिलाओं की क्षमता बढ़ी है और उनकी आवाज मुखर हुई है. मनरेगा में ही महिलाओं को पुरुषों के बराबर मेहनताना मिलता है. पहले उन्हें पुरुषों से कम मजदूरी मिलती थी. इससे वे दूसरी जगह भी समान वेतन की मांग करने लगी हैं

राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए कहा था कि वे जब एक रुपये भेजते हैं, तो गांव तक 16 पैसे पहुंचता है.  इस बात को कहे ढाई दशक से ज्यादा समय गुजर गये. आपका क्या आकलन है आज एक रुपये में कितना राशि  गांवों में मिलती है?


देखिए, जब राजीव गांधी ने ये बातें कहीं थी, तो उस समय न तो उनके पास इस संबंध में कोई पक्का अध्ययन था और न ही आज है. लेकिन यह बात सही है कि हर योजना में लिकेज है. उसे रोकना होगा. इसके लिए उपाय करने होंगे. यह पक्का करना होगा कि उस योजना का जो लक्षित समूह है, उसका पूरा लाभ उस तक पहुंचे. दरअसल, नव उदारवादी व्यवस्था में राजीव गांधी के इस जुमले को इस तरह की योजनाएं नहीं चलाने के लिए उपयोग किया जाता है. कहा जाता है कि लिकेज बहुत ज्यादा है, गड़बड़ियां हैं, इसलिए पैसे न भेजें. कम टैक्स कलेक्शन व कम काम करने की दलील दी जाती है. इससे निजी क्षेत्र के लिए स्थान बढ़ेगा और जब पब्लिक व प्राइवेट सेक्टर काम करेगा तो प्राइवेट क्षेत्र का ही वर्चस्व होगा. और, प्राइवेट सेक्टर समाज के भले के लिए नहीं सिर्फ मुनाफे के लिए काम करता है. प्राइवेट सेक्टर से आर्थिक विकास दर तेज हो सकती है, इससे आर्थिक स्तर पर लाभ होगा. पर, सीधा लाभ नहीं मिलेगा. प्राइवेट सेक्टर में कम रोजगार लोच होता है,  सरकारी क्षेत्र में ज्यादा रोजगार लोच होता है. अत: निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र का विकल्प नहीं हो सकता. अत: तमाम तरह के लिकेज को भरना आवश्यक है.

कृषि अर्थव्यवस्था में श्रम की कमी की बात कही जाती है. मनरेगा आदि से खेती कितनी बदली है?


खेती में अबतक अवनत श्रम बाजार था. मजदूर के पास अवसर नहीं होते थे, इसलिए उसे इसमें सस्ते श्रमिक के रूप में काम करना होता था. मनरेगा से मजदूरी बढ़ी है. खेती में श्रमिक मिलने की समस्या उतनी नहीं है, जितनी मजदूरी बढ़ाने की. कृषि क्षेत्र में भी निवेश की जरूरत है. सार्वजनिक के साथ निजी निवेश भी आवश्यक है. इससे उत्पादन बढ़ेगा. झारखंड जहां 10 प्रतिशत से भी कम सिंचित कृषि भूमि है, वहां यह और  भी जरूरी है. अब देखिए सब्जी में ही अच्छा रिटर्न है, तो रांची के आसपास इसमें खूब निजी निवेश हुआ है, किसान आधुनिक तकनीक का भी उपयोग करते हैं. अगर सार्वजनिक निवेश खेती में होगा तो स्वत: निजी निवेष भी होगा ही.

पारदर्शिता व व्यवस्था सुधार के लिए क्या पहल होनी चाहिए? पंचायतें कैसे मददगार होंगी?


ग्रामसभा की भागीदारी बढ़नी चाहिए. आइइसी यानी इनफॉरमेशन, एडुकेशन व कम्युनिकेशन अर्थात सूचना, शिक्षा व संचार का विस्तार हो. पंचायत व प्रखंड अधिकारी को बेहतर प्रशिक्षण मिले. कई जगह एनजीओ पीआरआइ के लिए काम कर रहे हैं. पंचायत प्रतिनिधियों की हर स्तर पर भागीदारी बढ़नी चाहिए. उनकी भागीदारी बढ़ेगी, तो लिकेज कम होगा. योजनाएं ज्यादा प्रभावशाली होंगी. गांव की आवाज और मुखर होगी. यह सामान्य सी बात है कि जिसकी आवाज ज्यादा होती है, उस तक लाभ ज्यादा पहुंचता है. जैसे किसी गांव को बिजली या रोड चाहिए और वहां के लोग प्रदर्शन करते हैं, आवाज उठाते हैं तो वह उन्हें मिल भी जाता है.  इसलिए पंचायत राज निकायों की अपने क्षेत्र के लिए आवाज उठाने में अहम भूमिका हो सकती है.

डॉ हरिश्वर दयाल

निदेशक, इंस्टिटय़ूट फॉर ह्यूमेन डेवलपमेंट, इस्टर्न रिजनल सेंटर

 

http://www.prabhatkhabar.com/news/111425-story.html


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