Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | लोक से कटा गंगा-विमर्श -- अनिल चमड़िया

लोक से कटा गंगा-विमर्श -- अनिल चमड़िया

Share this article Share this article
published Published on Oct 16, 2014   modified Modified on Oct 16, 2014
जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: गंगा के बारे में जो धारणा भारतीय जन-मानस के बड़े हिस्से में सचेतन रूप से खड़ी की गई है, वह केवल धार्मिकता से जुड़ी है। वह धार्मिकता भी बेहद एकांगी है। इस पूरी धारणा ने मानवीय जीवन और खास तौर से समाज की सामूहिक चेतना को बुरी तरह से खंडित किया है। इसने प्रकृति के साथ जीवन के रिश्तों को समझने और उसे समृद्ध करने की लोक चेतना को बुरी तरह भटकाव में डाला है।

गंगा का महत्त्व, वह चाहे जिस रूप में व्यक्त किया जाता हो, जीवन के उदात्त मूल्यों और उद्देश्यों में ही निहित है। गंगा हमारे समस्त जीवन का हिस्सा है। दुनिया की तमाम नदियों के महत्त्व को मानव सभ्यता ने उनके साथ अपने रिश्ते और अपने अनुभवों से समझा है। हर नदी के साथ कई तरह के मिथक जुडे रहे हैं। उन्हें धार्मिक लोग अपने धर्म के जरिए महत्ता प्रदान करते हैं। विराट जीवन के और दूसरे जो पक्ष हैं उन्होंने अपने तरीके से नदियों को उनका स्थान दिया है।

जो धर्म को नहीं मानता, उसके लिए भी गंगा या किसी अन्य नदी का उतना ही महत्त्व है। जो तटों के किनारे तीर्थस्थलों पर नहीं जाता, उसके लिए भी उनका उतना ही महत्त्व है। जो कभी गंगा स्नान के लिए नहीं जाते, उनके लिए गंगा कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। गंगा के महत्त्व को भारत और आसपास के इलाकों तक के विशाल दायरे में उसके बहाव को हिसाबी-किताबी भाषा में भी व्यक्त किया जाता है। लेकिन इस तरह आंकना हमारी सीमा है, यह आकलनगंगा की विराट सीमा के मुकाबले बेहद सीमित है।

यह सोचने का बेहद साधारण तरीका हो सकता है कि गंगा तब भी थी जब उद्योग नहीं थे। शहर, नगर नहीं थे। गंगा तब भी थी जब मुगलों का शासन था और उसके बाद अंगरेजों का शासन रहा। एक समय धर्म भी नहीं था। वेद, पुराण का या किसी भी धार्मिक ग्रंथ का काल चाहे जितना पुराना हो, वह गंगा जैसी नदियों के काल से पुराना नहीं है। गंगा के बनने का निश्चित काल जो है वह अनुमान पर आधारित है। इतना समझना जरूरी है कि मनुष्य और जीवों ने गंगा जैसी नदियों के साथ अपने जीवन की यात्रा शुरू की। नदियों के किनारे सभ्यताएं विकसित हुर्इं।

यहां के समाज की चेतना को गंगा ने सामूहिकता में गढ़ने में मदद की और समृद्ध भी किया। उसकी भाषा के निर्माण में उसकी गति ने और लहरों ने शब्दों को सृजित किया। गीत और संगीत की धुनें और राग तैयार करने के लिए प्रेरित किया। जो आदिवासी जंगलों की तरफ धकेल दिए गए उनके नृत्यों को देखा जाए तो उनमें नदियों की लहरें और भंवर मिलेंगे। उसने गद्य और पद्य की दो विधाओं के रूप में सृजित करने का ज्ञान दिया जो कि विचारों की गति और भावों का सूचक है। उसने विज्ञान की चेतना का बीज रोपा है। उत्साह और भरोसे का भाव विकसित किया है। चिंतन और विचार को आकार लेने में मदद की है। उसकी ठंडक और ताप ने जीवों की सांसों को संचालित होने में मदद की।

गंगा के बारे में बात करना इसीलिए जरूरी लगता है कि गंगा को केवल एक संसाधन के रूप में देखने का जो नजरिया जोर पकड़ता चला गया है, वह इससे हमारे रिश्ते को बेहद छोटा कर देता है। उससे जुड़े हमारेसरोकारों को भी बेहद सीमित कर देता है। गंगा के जिस रूप को एक रूढ़ि के रूप में हमारे समय और समाज में स्थापित किया गया है उसमें यह साफ दिखता है कि किस तरह गंगा का एक संकीर्ण उद््देश्य के लिए इस्तेमाल हुआ है।
खलिहानों तक पानी, पानी का रास्ता, मछुआरों का जीवन, नाविकों का परिवार, ये सब गंगा के तटों के पास के सामुदायिक जीवन की तस्वीरों को उकेरते हैं। गंगा के किनारे न जाने कितने धर्मों के लोग रहते हैं और सबके लिए गंगा उनकी दूसरी चीजों की तरह उनके धर्म जैसी ही है। विभिन्न समुदायों के गंगा पर आश्रित होने का यह लेखा-जोखा हो सकता है। जीवन की बहुत सारी क्रियाएं गंगा के तट और उसके पानी के जरिये ही पूरी होती हैं। लेकिन गंगा की उपयोगिता महज इन रूपों में ही नहीं है। अगर केवल गंगा की समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि को लेकर भी किसी विमर्श का आयोजन हम करते हैं तो उसमें समुदायों के जीवन की कोई तस्वीर नहीं उभर पाती है। इस तरह गंगा के विमर्श में समाजशास्त्र भी पीछे छूट जाता है। गंगा की गहरी और लंबी जड़ें जीवन की समस्त चेतना के साथ कैसे जुड़ी हुई हैं, इसका कोई आंकड़ा नहीं दिया जा सकता है।

सूत्रबद्ध रूप से यह कहना चाहिए कि जब किसी भी चीज को महज एक संसाधन मान लिया जाता है तो उस चीज के रूप और महत्त्व को उस समय का समाज अपने तरीके से स्थापित करता है। समाज से भी मेरा मतलब साफ है कि समाज में किन मूल्यों, विचारों, सरोकारों का वर्चस्व है और कौन लोग उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। गंगा के जिस रूप को और उसके जिस महत्त्व को यहां स्थापित किया गया है वह लोक चेतना का हिस्सा नहीं है। उसकी धुरी भी लोक-हित नहीं है।

यह संसाधन के रूप में दो तरह की आधुनिकता के दावेदारों के इस्तेमाल की जगह भर हो गई है। धार्मिक आस्था, कर्मकांड और अंधविश्वास को आधुनिकता की शब्दावली से परिभाषित करने वाला एक ढांचा है और दूसरा उद्योग के जरिये विकास को ही आधुनिकता कहने वाला एक ढांचा है।
आज गंगा को जो लोग बचाने की बात कर रहे हैं, उनका सरोकार क्या है, इसे आज के संदर्भ में समझने की जरूरत है। हम सब जानते हैं कि गंगा के पानी के गंदा होने, प्रदूषित होने, उसके सिकुड़ने की व्यथा बेहद नई है। खासतौर से औद्योगिक समाज के आधार पर शहरों के अंधाधुंध विकास और मशीनी व रसायनयुक्त औद्योगिक विस्तार के साथ ही गंगा, यमुना आदि नदियों को समाज के बड़े हिस्से से काटने की प्रक्रिया शुरू की गई। गंगा क्रमश: मैली होती चली गई है तो इसकी वजह असमानता पर आधारित नगरीय सभ्यता का पुराने अर्थों में विकराल होते जाना है।

महानगरीय सभ्यता ने नया किनारा ढूंढ़ लिया है और वह मैट्रो है। उसके लिए गंगा और दूसरी नदियां महज संसाधन हैं। यानी गंगा में जिस तरह से मैलापन बढ़ता चला गया है वह नगरीय व्यवस्था का है जिसकी गति वर्चस्व की विचारधारा तय करती है। दूसरी तरफ समाज के बड़े हिस्से को उससे काटने का और तटों से पीछे धकेलने का एक लंबा सिलसिला दिखाई देता है और उसके साथ ही उसकी एक धार्मिक पहचान स्थापित करने की योजना भी दिखती है। समाज के बड़े हिस्से से उसका कटाव और उसकी धार्मिक पहचान को स्थापित करने की कोशिश दो साथ साथ चलने वाली समांतर प्रक्रिया है। इस तरह की प्रक्रिया भारतीय जीवन के विभिन्न पहलुओं में दिखती है।

कहने की कोशिश यह है कि दुनिया में जिस तरह से संसाधनों को अतिक्रमित करने की योजना को अमल में लाया जा रहा है, नदियों के बारे में भी जो दृष्टिकोण है, वह उस योजना से भिन्न नहीं है। इसके विस्तार में जाने की जरूरत है। आखिर गंगा को लेकर नई योजनाओं का आदर्श कौन है? जहां नदियों, उनके पानी और तटों को केवल संसाधन के रूप में देखा जाता है। लोक के दर्शन में प्रकृति को मनुष्य और दूसरे जीवों के लिए संसाधन के रूप में देखने का भाव नहीं होता। लेकिन जीवन के विविध पहलुओं को महज संसाधन समझ लेने के इस दौर में हम अगर गंगा और दूसरी नदियों को बस एक संसाधन के रूप में देखने के नजरिए और इन नदियों पर नियंत्रण तथा अधिकार की नीति की समीक्षा करें तो यह बात साफ होती है कि आम जन को इनसे वंचित करने की कोशिश की जा रही है। संसाधनों पर नियंत्रण के लिए धर्म और दूसरी तरह की आस्थाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। धर्म को जबरन लोक से जोड़ने की कोशिश होती है। लोक का दर्शन धर्म नहीं है। संसदीय राजनीति के संदर्भ में कहें तो बहुसंख्यक भावनाओं का दोहन करने की कोशिश की जा रही है।

गंगा के बारे में चिंताओं का स्वर राजनीतिक ही रहा है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस तरह का उन्मादी सांप्रदायिक वातावरण देखने को मिला उसी के बीच ऐतिहासिक बहुमत से केंद्र की सत्ता में आए राजीव गांधी ने 1986 में गंगा एक्शन प्लान शुरू किया था। तब से इस योजना के कई चरणों में अरबों रुपए खर्च कर दिए गए, पर निर्मल गंगा का सपना, सपना ही रहा। गंगा की सफाई को लेकर फिर से चर्चा चल रही है। राजीव गांधी की तरह सत्ता में पहुंची नई सरकार ने तो गंगा मंत्रालय तक बना दिया है। लेकिन सफाई का शोर सिर्फ लोक चेतना के दोहन का हथियार है। वास्तविकता इसके ऊपर नियंत्रण की नीति से जुड़ी है।

लोगों के भरोसे, विश्वास का गंगा के साथ जो रिश्ता रहा है, उसे कैसे सतह पर लाया जाए यह हमारा उद््देश्य होना चाहिए। गंगा पर अधिकार की चेतना एक राजनीतिक दृष्टि से जुड़ती है। लोक मानवीयता और जीवन के संपूर्ण पक्षों की भाषा से निर्मित एक चेतना है। उस चेतना में जो अपने और पराये का बोध विकसित किया गया है और लगातार किया जा रहा है, उसकी धुरी में राजनीति और वर्चस्व है। गंगा की पूरी बहस को नई शब्दावलियों और भाषाओं से जोड़ने की जरूरत है। गंगा के लिए पैसा विश्व बैंक का हो और संसदीय व्यवस्था में उसकी परियोजना को लागू करने की भाषा बहुसंख्यक धार्मिकता से जुड़ी भर हो तो गंगा अविरल नहीं बह सकती है।


- See more at: http://www.jansatta.com/politics/editorial-ganga/#sthash.bjL8Srrj.dpuf


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close