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न्यूज क्लिपिंग्स् | लोगों को हुनर सिखाकर बदल सकते हैं समाज-- दशरथ सूर्यवंशी

लोगों को हुनर सिखाकर बदल सकते हैं समाज-- दशरथ सूर्यवंशी

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published Published on Jun 10, 2016   modified Modified on Jun 10, 2016

बरसों से जलसंकट से जूझ रहे महाराष्ट्र के मराठवाड़ा अंचल के उदगीर जिले के रावणकोल में पलते-बढ़ते समय एक अलग ही तरह का सामाजिक बदलाव मेरी नज़र में आया। जल-संकट के कारण उजड़ती खेती के साथ उजड़ते गांव। लोग आजीविका की तलाश में शहर चले जाते। परिवार बिखरते। ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खेती और ग्रामीण व्यवस्था ही नहीं बदल रही है बल्कि सामाजिक मेल-जोल व एकजुटता खत्म हो रही है, क्योंकि घट रहे संसाधनों की स्पर्द्धा है।


पानी को लेकर हो रहे झगड़े सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रहे हैं। एक-दूसरे पर भरोसा कम हुआ है। पानी साझा करने की बजाय जो मिले उसे इकट्‌ठा करने की प्रवृत्ति पैदा हुई है। लातूर जैसे सर्वाधिक सूखाग्रस्त इलाकों में कोई बेटी देने को तैयार नहीं है। सूखे का सेहत पर भी प्रभाव पड़ा है। अस्पताल पानी के टैंकरों के भरोसे हैं, जिनके आने का भरोसा नहीं होता। साफ-सफाई रखना मुश्किल है। सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए यह अलग ही तरह का संकट है।
मुझे भी 1972 के सूखे में अपना गांव छोड़कर अाजीविका की तलाश में अंचल के सबसे बड़े शहर औरंगाबाद आना पड़ा था। यहां आकर एक कंपनी में नौकरी करने लगा। गांव में बढ़ई का काम करता था। यह काष्ठ कला चैन से बैठने नहीं देती थी। नौकरी के अलावा जो समय बचता था। वह इसी काम में लगाता था। लकड़ी के खिलौने, सुंदर कलाकृतियों से युक्त दरवाजे, देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाना यह सब चलता रहता। कुछ अधिकारियों व इंटीरियर डेकोरेटरों की नज़र पड़ी तो तारीफ मिली।


इसी से विचार आया कि यदि इस हुनर का प्रशिक्षण दिया जा सके तो सूखाग्रस्त इलाकों के लोगों को शहर में आकर कोई शुरुआत करने का रास्ता मिल जाएगा। सूखाग्रस्त इलाकों से आने वाले युवकों को इसकी ट्रेनिंग देनी शुरू की और आज तक 3 हजार विद्यार्थी इसका प्रशिक्षण ले चुके हैं। ऐसा नहीं है कि इससे सभी को अच्छा रोजगार मिल गया, लेकिन सामाजिक ताने-बाने को जो नुकसान हुआ था, उसकी कुछ भरपाई होने लगी। आंखों में उम्मीद झांकने लगी। कोई हुनर सीखना चाहिए यह विचार जड़ जमाने लगा। सूखे से लड़ने का तरीका मिला। मिलकर काम करने से करीबी बढ़ी।


इसी बीच मेरे ध्यान में एक और बात आई कि सूखे की मार झेल रहे परिवार इलाज का खर्च वहन नहीं कर पाते। जल-संकट का स्वास्थ्य पर क्या असर हुआ है, वह हम ऊपर देख ही चुके हैं। इलाज पैसे व पानी की दृष्टि से किफायती हो। एक्यूपंक्चर का अध्ययन शुरू किया। यह बहुत सस्ती उपचार पद्धति है। अब इसका अध्ययन करते हुए 25-30 साल हो गए। ब्लड प्रेशर, दिल के रोग, लकवा और हाथ-पैरों में दर्द होना, नस-नाड़ियों की अकड़न, रक्त वाहिकाओं में थक्का जमना जैसी बीमारियों को इससे बिना ज्यादा खर्च आसानी से काबू किया जा सकता है।


फिर मैंने अपनी काष्ठ कला और एक्यूपंक्चर के ज्ञान को मिलाकर एक पलंग बनाया, जिस पर सोने से शरीर का रक्तप्रवाह ठीक ढंग से होने लगता है। पाचन पर भी इसका उचित प्रभाव पड़ता है। गांव में बहुत से वृद्धों के शरीर में कंपन होते मैंने देखा था। इस पलंग पर सोने पर इसे भी नियंत्रित किया जा सकता है। इसके जरिये मैंने छह हजार लोगों को विभिन्न रोगों से मुक्त किया है। इस पलंग का उपयोग मराठवाड़ा के अलावा पूरे महाराष्ट्र में किया गया है।


मैंने गरीब इलाकों में घूमकर और अपने अनुभव से जाना है कि सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाने के दो ही कारगर उपाय है। एक, शिक्षा दी जा सके तो उत्तम, लेकिन उसके पहले किसी हुनर का प्रशिक्षण दिया चाहिए। मैंने हुनर के बल पर परिवारों में गरीबी की निराशा से उबरकर नई शुरुआत करने की उम्मीद जगते देखी है। दूसरा मुद्‌दा है अच्छी सेहत। मैं मुिश्कल से माध्यमिक कक्षा तक पढ़ा हूं, लेकिन मैंने एक्यूपंक्चर की पढ़ाई करके उपचार का सस्ता तरीका जाना। परंपरागत रूप से परिवारों में चले आ रहे हुनर को नई तकनीक का सहारा देकर उसे प्रासंगिक बनाए रख सकते हैं। यह मैंने अपने अनुभव से जाना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)


http://www.bhaskar.com/news/ABH-dashrath-suryawanshi-column-in-dainik-bhaskar-5345577-NOR.html


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