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न्यूज क्लिपिंग्स् | विचारधारा के भंवर में - एम के वेणु

विचारधारा के भंवर में - एम के वेणु

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published Published on Nov 9, 2014   modified Modified on Nov 9, 2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली आर्थिक सुधार के अर्थों को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं। सीआईआई और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक में भारतीय और वैश्विक कंपनियों के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए अरुण जेटली ने सलाह दी कि भारत जटिल सामाजिक-आर्थिक संरचना वाला एक विकासशील समाज है, इसलिए उद्यमी समुदाय को 'बिग-बैंग' सुधारों और कुछ सनसनीखेज विचारों के क्रियान्वयन की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। असल में जेटली यह बताना चाह रहे थे कि सरकार सामाजिक-आर्थिक बारीकियों को समझती है और केवल व्यापारिक हितों को पोषित करने वाली आर्थिक नीतियां वह नहीं बना सकती।

यह स्पष्ट है कि मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार आर्थिक रूप से दक्षिणपंथी नहीं दिखना चाहती। मोदी उस वैचारिक रिक्तता को भरना चाहते हैं, जो कांग्रेस और अन्य वामपंथी-मध्यमार्गी पार्टियों ने खाली की है। इसलिए मोदी और जेटली की रणनीति से लगता है कि वे नहीं चाहते कि एनडीए पूरी तरह से व्यापार समर्थक गठबंधन की तरह दिखे। वे भाजपा को, जो अपने उद्भव से व्यापार समर्थक पार्टी होने का भार ढो रही है, राजनीतिक रूप से किसी खास वर्ग के साथ नहीं, बल्कि सबके साथ जुड़ा बताना चाहते हैं।

यही मुख्य कारण है कि जेटली उद्यमी वर्ग को लगातार यह बता रहे हैं कि वह क्रांतिकारी श्रम सुधारों, सब्सिडी के खत्म होने जैसे बड़े बदलावों की उम्मीद न पालें, क्योंकि ऐसा करने से श्रमिकों और गरीबों को नुकसान हो सकता है। असल में वित्त मंत्री सुधारों को लेकर क्रमिकतावादी दृष्टिकोण (एक के बाद एक फैसला लेना) की वकालत कर रहे हैं, ताकि इसकी मार सहने वालों को इसके व्यापक दर्द का एहसास न हो। एक तरह से यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि पिछली यूपीए सरकार ने किया था। मसलन, सीआईआई-वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में जेटली ने कहा कि श्रम सुधारों को लागू करने के लिए सभी राजनीतिक दलों की सहमति की जरूरत होगी। उन्होंने यह भी साफ किया कि भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की बैठक में वैश्विक व्यापार सुविधा समझौते के पक्ष में था, लेकिन इसके लिए वह अपने किसानों के हितों की बलि नहीं ले सकता।

यह वाकई दिलचस्प है कि लोकसभा में भाजपा के 282 सांसद होने के बावजूद मोदी और जेटली ने इस मसले पर बेहद सतर्क दृष्टिकोण अपनाया है। इसकी वजह कहीं दूर तलाशने की जरूरत नहीं है। भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था किस तरह विकसित की जाए, इसे लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में विशाल संघ परिवार की राय स्पष्ट है। जिस तरह कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद दिशा-निर्देशित करती थी, ठीक उसी तरह मौजूदा एनडीए सरकार में यह भूमिका संघ परिवार निभा रहा है।

खत्म हुए पखवाड़े में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष अधिकारियों ने कुछ प्रमुख केंद्रीय मंत्रियों को राजनीतिक मुद्दों पर बात करने के लिए बुलाया था। यह बैठक संघ परिवार समर्थित संगठनों जैसे कि स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ के बीच सरकार के बेहतर तालमेल के लिए बुलाई गई थी। मोदी के नेतृत्व में मौजूदा एनडीए की सबसे दिलचस्प खासियत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ उसके जुड़ाव के रूप में देखी जा सकती है, कि किस तरह राजनीतिक अर्थव्यवस्था से संबंधित सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर दोनों के बीच समन्वय है। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी के समय ऐसा समन्वय नजर नहीं आता था।

संभवतः इसकी वजह यह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत और मोदी के आपसी रिश्ते वाजपेयी और तत्कालीन संघ प्रमुख सुदर्शन के रिश्तों से कहीं अधिक प्रगाढ़ और सहज हैं। यानी 1999 की तुलना में भाजपा और आरएसएस के बीच आज कहीं अधिक कार्यात्मक तालमेल है। उदाहरण के लिए, वाजपेयी के कार्यकाल में संघ नेतृत्व के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय के संबंध तनावपूर्ण और अप्रत्याशित थे। यह इससे पता चलता है कि तब पीएमओ के शक्तिशाली प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र के साथ संघ के अच्छे रिश्ते नहीं थे, जिन्होंने संघ को एक तरह से चुनौती देते हुए इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल) जैसी लाभप्रद सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों के निजीकरण को लेकर गंभीर प्रयास किए थे।

दृष्टिकोण का फर्क अब यह है कि संघ परिवार के भीतर एक व्यापक सहमति बनाए बिना न तो मोदी और न ही जेटली कोई भी 'सनसनीखेज सुधार' करने की कोशिश करेंगे। भाजपा मंत्रियों के साथ संघ नेताओं की हुई पिछली बहुप्रचारित बैठक इसका एक छोटा सा संकेत है। आज मोदी और भागवत के बीच जितनी बात होती है, उतनी वाजपेयी और सुदर्शन में नहीं होती थी। इससे पता चलता है कि भाजपा और संघ के बीच गुणात्मक परिवर्तन हो रहा है। यहां तक कि आधिकारिक तौर पर भी मोदी अपनी सरकार की उन्हीं नीतियों की वकालत करते हैं, जो आरएसएस को पसंद हैं। मोदी द्वारा अपने सभी सांसदों को एक-एक गांव गोद लेकर उसे गांधी, लोहिया और जयप्रकाश की परिकल्पना के अनुसार विकसित करने की बात कहना भी तो ग्रामीण विकास के उसी मॉडल की वकालत करता है, जिसकी तरफदारी आरएएस दिग्गज नानाजी देशमुख ने चित्रकूट में एक गांव को गोद लेकर की थी, और फिर उसका नाम जयप्रकाश और उनकी पत्नी के नाम पर रख दिया था।

बहरहाल, मोदी आज जिन गांधी, लोहिया या जयप्रकाश नारायण जैसे विचारकों को याद कर रहे हैं, वे विकास के आक्रामक पूंजीवादी मॉडल के पक्षधर नहीं रहे हैं। सभी ने स्वदेशी और सामाजिक रूप से समावेशी तरीके को विकसित करने की कोशिश की। निस्संदेह यह संघ परिवार की सोच का मूल घटक है, लेकिन एक आधुनिक और अन्योन्याश्रित दुनिया में संघ परिवार भी वैश्विक पूंजीवाद के साथ भारत का अपरिहार्य जुड़ाव चाहेगा। और इन दोनों विचारधाराओं में, मार्क्सवादियों के शब्दों में कहें तो, परस्पर विरोधी अंतरविरोध पैदा हो सकते हैं। यानी ऐसी स्थिति जब विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच समझौते की कोई गुंजाइश न हो। मोदी और जेटली की चुनौती इन्हीं विरोधाभासों के बेहतर प्रबंधन की होगी।


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/in-the-maelstrom-of-ideology-hindi/


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