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न्यूज क्लिपिंग्स् | विदेश में इलाज का मर्ज- मृणालिनी शर्मा

विदेश में इलाज का मर्ज- मृणालिनी शर्मा

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published Published on Sep 26, 2013   modified Modified on Sep 26, 2013
जनसत्ता 26 सितंबर, 2013 : भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय ने हाल ही में चुपके से एक फैसला लिया है, जिसके अनुसार भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा और वन सेवा जैसी अखिल भारतीय सेवाओं के लगभग पांच हजार कर्मचारी अपने इलाज के लिए विदेश जा सकते हैं। विदेश जाने का हवाई किराया और वहां दो महीने तक रहने का खर्च भी सरकार उठाएगी। दो महीने की यह अवधि अगर जरूरी हुआ तो बढ़ाई भी जा सकती है। यह सुविधा इस तर्क पर दी गई है कि भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों के लिए यह पहले से ही मौजूद है। कितना भोला तर्क है संविधान में समाजवादी शब्द को ढोने वाले देश की सत्ता का! अगर इस तर्क को बढ़ाया जाए, जैसा कि कुछ केंद्रीय सेवा के अधिकारियों ने आवाज उठाई है, तो फिर राजस्व रक्षा, रेलवे के अधिकारियों को क्यों नहीं।
यकीन मानिए यह अभी शुरुआत है। बाकी अधिकारियों के लिए भी यह सुविधा बहुत जल्द उपलब्ध हो जाएगी और फिर क्या सेना के अधिकारी देश के लिए कम कुर्बानी देते हैं! क्या इंजीनियर, डॉक्टर दोयम दर्जे के हैं, जो अपना इलाज भारत के उन अस्पतालों में करवाएं, जहां न डॉक्टर हैं न दवा। और तो और, बिस्तर भी नहीं, यानी धीरे-धीरे लगभग पचास लाख सरकारी कर्मचारी किसी न किसी आधार पर विदेश में इलाज के लिए बीमार होने लगेंगे।
पता नहीं देश की ऐसी नीतियां कौन लोग बना रहे हैं। क्या इनमें ज्यादातर वे लोग शामिल नहीं हैं, जिन्हें अपना और अपने परिवार का जीवन तो महत्त्वपूर्ण लगता है, बाकी देश का भगवान जाने। इनमें अधिकतर वे नौकरशाह हैं, जिनकी नौकरी का अधिकतर हिस्सा या तो दिल्ली की खूब सुविधा-संपन्न तैनाती में गुजरता है, या फिर अमेरिका, इंग्लैंड, संयुक्त राष्ट्र के दर्जनों परजीवी विभागों में। यह अचानक नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री कार्यालय या कई केंद्रीय मंत्रालयों के उच्चाधिकारी, निजी सचिव से लेकर संयुक्त सचिव एक के बाद एक तैनाती के लिए कभी एशियाई विकास बैंक में जाते हैं तो कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे संस्थानों में। बीच में कभी-कभी थोड़ा इंतजार योजना आयोग में भी कर लेते हैं। जब दिमाग इतनी सुविधाओं में रहने का आदी हो चुका होता है तो शरीर भी वैसी ही सुविधाएं, आराम और दवा मांगता है। उन्होंने बस खोज निकाला दरवाजा कि जब उसी सिविल सेवा परीक्षा के, विदेश सेवा के अधिकारियों का इलाज अमेरिका, इंग्लैंड में सरकार करा सकती है तो हमारा क्यों नहीं।
गलती इन अधिकारियों की भी नहीं है। समाज के जिस ढांचे में ये रहते हैं, उसका रास्ता शिक्षा, मौज-मस्ती से लेकर जुकाम के इलाज के लिए भी विदेश में ही खुलता है। इस सरकार की सर्वेसर्वा अभी अमेरिका से लौटी हैं। उससे कुछ दिन पहले गृहमंत्री वहां थे। किस मंत्री, विधायक का नाम गिनाएं, पिछले दो-तीन प्रधानमंत्रियों का इलाज विदेशों में ही हुआ था। एक को कैंसर था, दूसरे के घुटने, तीसरे की आंखें। सत्तर के दशक के एक राजवंशी विदेशमंत्री तो कई महीने लंदन में ही रहे थे और वहीं स्वर्ग सिधारे।
दक्षिण के एक और कैबिनेट मंत्री का इलाज एक साल से ज्यादा विदेश में ही चला। बेचारे फिर भी भगवान को प्यारे हो गए। इन सबका खर्च देश की गरीब जनता ने उठाया। यह हिसाब अरबों-खरबों से कम नहीं होगा। तो नौकरशाही ने फैसला किया कि देश की सेवाओं में नेता भी लगे हैं और हम भी, तो फिर हम इस देश की मिलावटी दवाएं क्यों खाएं! आश्चर्य की बात है कि राजनेताओं को कोई सुविधा मिलने पर तो थोड़ी आवाज भी उठती है। ये नौकरशाह तो कानों-कान खबर नहीं होने देते।
आइए, उनकी सुख-सुविधाओं विशेषकर उदारीकरण के बाद वेतन-भत्तों में जो इजाफा हुआ है, उस पर गौर करते हैं। वैसे छठे वेतन आयोग के बाद तो इनकी सुविधाएं देख कर निजी क्षेत्र के बड़े-बड़े बांकुरे भी ईर्ष्या करने लगे हैं। एक महत्त्वपूर्ण सुविधा है, ‘अध्ययन अवकाश’ यानी ‘स्टडी लीव’। इसका ज्यादातर फायदा ऊंचे पदों के अधिकारी ही उठाते हैं। जब भी इनकी तैनाती किसी दूरदराज के राज्य या किसी ऐसी जगह हो जाती है, जहां ये, इनकी पत्नी, बच्चे जाना नहीं चाहते, जहां इनके स्तर के मॉल या अंग्रेजी स्कूल नहीं हैं, ये तुरंत ‘अध्ययनशील’ बन जाते हैं। देश-विदेश में सैकड़ों प्रबंधन के कॉलेज हैं। दाखिले में कोई दिक्कत नहीं आती, सीटें खाली पड़ी हैं। इस अवकाश में उन्हें तनख्वाह भी पूरी मिलती है और आलीशान बंगले को भी रखे रहने की सुविधा। वरिष्ठता पर भी कोई असर नहीं और न पदोन्नति में कोई रुकावट। ज्यादातर मामलों में यह अध्ययन कई साल तक चलता रहता है।
कार्मिक मंत्रालय की एक और योजना का लाभ उठा कर कई बार पांच-सात साल तक ये विदेशों में बने रहते हैं। कोई भारत सरकार से पूछे कि करोड़ों खर्च करके सरकार को इससे क्या मिला और क्या प्रबंधन सुधरा? इनमें से सैकड़ों तो कभी विदेशों से लौट कर ही नहीं आए! कार्मिक मंत्रालय ने कुछ महीने पहले सूचना अधिकार के तहत ऐसे लापता अधिकारियों की एक सूची जारी की थी। दर्जनों मामले ऐसे हैं कि देश-विदेश में मन नहीं लगा तो ये फिर अपनी कुर्सी पर वापस आ जाते हैं, पूरी सुविधाओं के साथ।
छठे वेतन आयोग में एक और अनोखी सुविधा दी गई है, और वह है, दो वर्ष तक की ‘चाइल्ड केयर लीव’। यकीन मानिए यह छोटे कर्मचारियों के लिए पैदा नहीं की गई, इसका भरपूर उपयोग उच्च पदों पर बैठी महिला अधिकारी कर रही हैं। अपने अधीन निम्न स्तर की महिला कर्मचारियों, पीए या क्लर्क को यह इतनी आसानी से नहीं मिलती। इस दौरान भी पूरी तनख्वाह, भत्ते, मकान, वरिष्ठता सब कुछ। आनंद ही आनंद। इनके पुरुष सहकर्मी भी खुश होते हैं, क्योंकि इस बीच उनकी जगह दूसरे अधिकारी को पदोन्नति मिल जाती है।
संक्षेप में, कुछ और सुविधाएं, जो पिछले दस सालों में लगातार बढ़ी हैं। बच्चों की फीस का पैसा मिल जाता है, उन्हें हॉस्टल में रखने का भी। टेलीफोन, मोबाइल मुफ्त। हर अधिकारी को कंप्यूटर नोटबुक मिल गई हैं और घर पर इंटरनेट की सुविधा भी। कुछ विभागों में सरकारी कार, बंगला और चपरासी भी। बंगला उन्हें देश के हर महानगर में अंग्रेजी हुकूमत के अंदाज में एक से एक पॉश जगह पर मिला है। आश्चर्य की बात है कि जो सरकार नीचे के कर्मचारियों की संख्या लगातार कम करती जा रही है, ठीक उसी समय दिल्ली के मोतीबाग से लेकर कनॉटप्लेस के वीआइपी इलाकों में सैकड़ों बड़े बंगले इन अधिकारियों के लिए क्यों बनाए जा रहे हैं।
विशेषकर अर्थव्यवस्था की ऐसी हालत में, जब सरकार स्कूल बनाने या उसमें शौचालय की सुविधा देने के नाम पर झर-झर रोने लगती है या कटोरा लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आगे जा खड़ी होती है। सस्ती दरों पर अब लाखों का ऋण भी अपनी कोठी बनाने के लिए। पूरी उम्र इतनी शान से रहने के बाद दो कमरों के फ्लैट में रहना, क्या इनकी सेवाओं की बेइज्जती नहीं है!
इस देश का कोई आम आदमी पूछ सकता है कि जब बच्चे की पढ़ाई से लेकर इलाज तक का सारा खर्च सरकार देती है तो उन्हें लाखों की तनख्वाह किसलिए? फटीचर गरीब वोटरो! इतनी भी समझ नहीं है। इसी पैसे से तो बड़ी-बड़ी कारें खरीदी जाएगी। पांचवें वेतन आयोग ने इनकी कार की ख्वाहिश भी पूरी की और छठे वेतन के इस पैसे से हर साल लगभग पंद्रह लाख बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं।
भूमंडलीकरण इसीलिए तो हुआ। अब ये लोग भारतीय रेल में भी यात्रा नहीं करते। हवाई यात्रा की सुविधा भी ज्यादा अधिकारियों को उपलब्ध है और दौरे के नाम पर मंदिर, मस्जिद के दर्शन के लिए निकलने पर एक से एक आलीशान होटल में रहने की सुविधा भी। आखिर सरकार को पर्यटन, होटल उद्योग और एअर इंडिया को भी तो चलाना है।
फिर भी, विदेश में चिकित्सा की बात बड़ी विचित्र लगती है, क्योंकि सरकारी अस्पतालों में जाने की अनिवार्यता तो पिछले दिनों से लगभग खत्म ही हो चुकी है। आप मनमर्जी निजी अस्पताल चुनिए अपोलो, एस्कॉर्ट से लेकर मेदांता, गंगाराम, मैक्स। सरकारी डॉक्टर आपकी नौकरी, पद को देख कर तुरंत वहीं भेज देंगे और सारा खर्च सरकार से ले लेंगे। इन निजी अस्पतालों में भी विदेशी पैसा ही है। लेकिन इन अधिकारियों, नेताओं को फिर भी संतोष नहीं। ठीक उसी वक्त ये यहां के अस्पतालों, स्कूलों-कॉलेजों में गंदगी, गिरावट से लेकर अर्थव्यवस्था की हालत ठीक न होने या राजकोषीय घाटे का रोना रोने लगते हैं।
सवर्ण दलितों को दोष देंगे तो दलित उन्हें सताने की शताब्दियों को। कोई पूछे, आखिर क्यों डूबे ये अस्पताल, विश्वविद्यालय, कोर्ट-कचहरी। हर जगह कुछ न कुछ तो नौकरशाह हैं ही, इस्पात प्राधिकरण के विज्ञापन की तर्ज पर। नीचे के कर्मचारी कम हो रहे हैं, ऊपर के पदों में तो पिछले दशक में कई गुना वृद्धि हुई है। ये चाहते तो ये संस्थान बेहतर हो सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने आकाओं के साथ ऐसा गठजोड़ किया और ऐसी नीतियां बनार्इं, जिनसे देश का पैसा और संस्थान दोनों ही देश से बाहर जा रहे हैं।
विदेशी धंधेबाजों की नजर भारत के बाजार पर यों ही नहीं है। इस देश की एक सौ बीस करोड़ की आबादी का क्रीमीलेयर अपनी भुक्खड़ आदतों से कई विदेशी मुल्कों को जिंदा रखे हुए है। इन दस करोड़ लोगों को कार चाहिए और हर तीसरे वर्ष नया मॉडल भी। इन्हें मोबाइल हर अगले वर्ष बदलना है। सरकारी स्कूल की जगह वातानुकूलित अंग्रेजी स्कूल। लेकिन इस बार तो अति ही हो गई। क्या अधिकारियों और नेताओं की ही जान महत्त्वपूर्ण है?
ऐसे समय जब केरल, तमिलनाडु, गुजरात आदि राज्यों में दिल, गुर्दे और दूसरी बीमारियों के सस्ते इलाज के लिए अफ्रीका, इंग्लैंड तक से लोग आ रहे हों, तब हम अपने सक्षम डॉक्टरों, अस्पतालों का रुख न कर, विदेश भागें, यह कैसी नीति है! जिस दिन इन अमीरों और राजनेता, नौकरशाह क्रीमीलेयर के लिए विशिष्ट सुविधाएं बंद हो जाएंगी, हमारे स्कूल, अस्पताल सब ठीक होने लगेंगे। आम आदमी का दर्द ये तभी जानेंगे।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/52160-2013-09-26-04-37-15


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