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न्यूज क्लिपिंग्स् | व्यर्थ न जाए इरोम का संघर्ष- पार्थ उपाध्याय

व्यर्थ न जाए इरोम का संघर्ष- पार्थ उपाध्याय

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published Published on Aug 5, 2016   modified Modified on Aug 5, 2016
संघर्ष की बानगी बन चुकीं इरोम शर्मिला भले ही अपने विरोध का तरीका बदल रही हों लेकिन मानवाधिकार और आंतरिक सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में यह बहस अभी बाकी है कि क्या अफस्पा (सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम) में संशोधन किया जाना चाहिए? अफस्पा को स्थायी रूप से हटा देने के लिए वर्ष 2000 में इरोम ने जो अनशन प्रारंभ किया वह आज तक चालू है, लेकिन अब वे अपने विरोध का तरीका बदलना चाहती हैं। और इसीलिए उन्होंने अनशन छोड़ विवाह करने तथा मुख्यधारा की राजनीति करने का निर्णय लिया है। इरोम का कहना है कि वे अफस्पा को हटाने की उनकी अपील पर सरकार की तरफ से कोई ध्यान न दिए जाने और आम नागरिकों की बेरुखी से मायूस हुई हैं, जिन्होंने उनके संघर्ष को ज्यादा समर्थन नहीं दिया।

इरोम का रास्ता या तरीका भले ही बदल जाए, लेकिन अफस्पा को लेकर उनका विरोध जारी रहेगा।

दरअसल, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम पहले पूर्वोत्तर के ही राज्यों में (1958 में) लागू किया गया और बाद में (1990 में) जम्मू-कश्मीर में भी इसे लागू कर दिया गया। यह कानून सशस्त्र बलों को बहुत विस्तृत या कहें निरंकुश शक्तियां प्रदान करता है। सुरक्षा बल सिर्फ संदेह के आधार पर भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं, किसी भी परिसर में बिना वारंट के छापा मार सकते हैं और आरोपी की मृत्यु होने की हद तक भी बल-प्रयोग कर सकते हैं। इस सब के बावजूद सुरक्षा बलों की ऐसी निरोधात्मक कार्रवाई पर किसी भी तरह का प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता और न ही उन्हें न्यायालय में घसीटा जा सकता है। अफस्पा के कठोर प्रावधानों के चलते यह कानून मानवाधिकार संगठनों के निरंतर विरोध का मुद््दा बना रहा है।

बेशक देश की आंतरिक सुरक्षा सर्वोपरि है और जिन हालात में सुरक्षा बलों के जवान अफस्पा वाले क्षेत्रों में काम करते हैं वे काफी चुनौतीपूर्ण हैं। पर 1958 से लेकर 2016 तक देश के उन क्षेत्रों की आंतरिक स्थितियों में काफी तब्दीली आई है जहां अफस्पा लागू है। लंबे समय तक उग्रवाद की समस्या से जूझते रहे असम में प्रखर राष्ट्रवादी पार्टी को सत्ता हासिल हुई, नगालैंड में एनएससीएन (आइएम) के साथ शांति समझौता हुआ, जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र में लोगों की आस्था प्रगाढ़ हुई। यानी देश के संकटग्रस्त इलाकों के हालात कुछ बदलते हुए नजर आते हैं तो ऐसी स्थिति में यह समीचीन हो जाता है कि अफस्पा की कम से कम समीक्षा तो होनी ही चाहिए। धीरे-धीरे सरकार को इस बात पर विमर्श आगे बढ़ाना चाहिए कि कैसे अफस्पा प्रभावित क्षेत्रों में सामान्य कानून व्यवस्था की बहाली हो। और उन क्षेत्रों से अफस्पा को हटाने पर विचार करना चाहिए जहां स्थितियां अब सामान्य हो गई हैं। चूंकि कानून-व्यवस्था राज्य-सूची का मामला है इसलिए किसी राज्य के आंतरिक मामलों में केंद्रीय बलों का स्थायी हस्तक्षेप संघीय ढांचे के विपरीत होता है।

हमें एक बात यह भी समझना होगी कि इरोम शर्मिला का नाम केवल अफस्पा के विरोध का पर्याय नहीं है बल्कि आज इरोम पूर्वोत्तर भारत में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बेगानेपन का भी प्रतीक हैं। अगर अफस्पा को पूरी तरह समाप्त भी कर दिया जाए तो क्या गारंटी है कि वहां अलगाववाद की आवाज नहीं उठेगी, देश के प्रति लोगों का जुड़ाव जाग जाएगा? बड़ा सवाल आज यह है कि पूर्वोत्तर भारत को किस तरह मुख्यधारा से जोड़ा जाए। दरअसल, देश की राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में नागरिकों की भूमिका भी बेहद महत्त्वपूर्ण होती है और राष्ट्रीय एकता का भाव राष्ट्रीयता की भावना के आधार पर अंत:करण में पैदा हुआ एक जुड़ाव होता है। ऐसा जुड़ाव किसी भी कीमत पर बंदूक के दम पर पैदा नहीं किया जा सकता।

हालांकि कश्मीर के हालात अभी इतने सुदृढ़ नहीं हैं कि वहां सुरक्षा बलों की शक्तियों पर अंकुश लगाया जाए, लेकिन पूर्वोत्तर में इसकी पहल जरूर हो सकती है। हां, अफस्पा की समीक्षा होनी चाहिए लेकिन सिर्फ अफस्पा की समाप्ति समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सबसे पहले पूर्वोत्तर भारत के प्रति शेष भारत की मनोदशा और पूर्वाग्रह को बदलना होगा, जो सिर्फ सांस्कृतिक विनिमय के द्वारा ही संभव है। दिवाली, ईद, छठपूजा, पोंगल और दुर्गापूजा का जश्न तो दिल्ली के राजनीतिक गढ़ में भी दिखाई देता है, लेकिन हॉर्नबिल फेस्टिवल को कितने लोग जानते हैं, बिहू पर्व पर कितने राष्ट्रीय स्तर के राजनेता बधाइयां प्रेषित करते हैं। यही चलन तो पूर्वोत्तर भारत में सांस्कृतिक अलग-थलगपन (आइसोलेशन) को जन्म देता है।

पूर्वोत्तर भारत सिर्फ भौगोलिक पहचान तक सीमित न हो, इसलिए राजनीतिक संस्थाओं में इसकी भागीदारी में वृद्धि करनी चाहिए। आज यदि राज्यसभा में कोई विधेयक पारित करना हो तो पांच बड़े राज्यों के प्रतिनिधियों की सहमति पर्याप्त होती है। उत्तर प्रदेश को राज्यसभा में बत्तीस सीटें प्राप्त हैं लेकिन पूर्वोत्तर भारत की सात बहनों को सिर्फ एक-एक सीट का प्रतिनिधित्व दिया गया है और लोकसभा में भी उनकी संख्या काफी कम है। निश्चित रूप से यह इन क्षेत्रों में राजनीतिक अलगाव के पनपने का एक कारक बनता है। इसके अलावा सामाजिक स्तर पर भी उनके साथ संवाद कम नजर आता है जबकि पर्यटन, उद्योग, कृषि और पर्यावरण के लिहाज से इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं मौजूद हैं। आज राष्ट्रीय मीडिया इरोम को सिर्फ अफस्पा के विरोध में संघर्षरत एक आइकॉन के रूप में दिखाता है लेकिन हमारी सरकार, देश के बुद्धिजीवी वर्ग और समाज को इरोम की व्यथा और संघर्ष को काफी गहराई से समझना होगा।

हम अफस्पा का सीधा विरोध नहीं कर सकते और एक लय में सुरक्षा बलों को पूर्वोत्तर भारत में मानवाधिकारों का हननकर्ता भी नहीं ठहरा सकते। साठ के दशक से जैसी परिस्थितियां मौजूद थीं उनमें अफस्पा की नितांत आवश्यकता थी। लेकिन अब परिस्थितियां वैसी नहीं हैं। इसलिए अफस्पा की समीक्षा आज की आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय भी इस मसले पर अपने सकारात्मक विचार रखता रहा है। अफस्पा कानून में यदि कुछ सुधार कर दिए जाते हैं तो यह अधिक तर्कसंगत प्रतीत होगा। इस कानून के अंतर्गत सुरक्षा बलों को प्रदान की गई असीम शक्तियों पर निगरानी करने और इस कानून के दुरुपयोग की शिकायत सुनने व जांच करने के लिए एक समिति स्थापित की जानी चाहिए। इस समिति में सुरक्षा बल, सरकार और नागरिक समाज, तीनों के प्रतिनिधियों को शामिल कर उसे कानून के दुरुपयोग के मामलों की जांच करने का जिम्मा देना चाहिए। यदि हम पूर्वोत्तर राज्यों में जनता के आक्रोश को निकलने के लिए एक गुंजाइश बनाते हैं तो ऐसे में उग्रवादी हिंसा कम होने संभावना बढ़ जाती है।

इरोम का संघर्ष संवैधानिक सीमाओं में रहते हुए विरोध का एक उदाहरण है। सोलह वर्षों तक इरोम ने कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया। उनका राजनीतिक उपवास संविधान में उनकी श्रद्धा का असाधारण उदाहरण है जिसे पूरे देश के सामने एक उजली मिसाल की तरह पेश किया जाना चाहिए। उन्होंने विरोध के शांतिपूर्ण तरीके का संदेश कश्मीर सहित पूरे भारत को दिया। हालांकि इरोम अब अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करना चाहती हैं लेकिन यह उनके सोलह वर्षों तक संघर्ष का अगला चरण होगा। उनकी तपस्या को व्यर्थ नहीं जाने दिया जाना चाहिए और सरकार को अफस्पा सहित पूर्वोत्तर की राजनीतिक परिस्थितियों पर चिंतन करना चाहिए और देश में राजनीतिक छुआछूत की स्थिति को समाप्त करना चाहिए। यही इरोम के संघर्ष की सार्थकता होगी। संवाद, सहमति और आपसी भरोसा बढ़ाना ही किसी समस्या का समाधान हो सकता है। अफस्पा और पूर्वोत्तर के मामले में भी ऐसा ही होना चाहिए।

दरअसल, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को संवैधानिक अपेक्षाओं के आलोक में भी देखा जाना चाहिए। एक कल्याणकारी राज्य में और एक लोकतांत्रिक देश में यदि शासन सिर्फ ताकत के बल पर बहुत लंबे समय तक चलाया जाता है तो यह निश्चित तौर पर संविधान के उद््देश्यों के विपरीत होगा। पूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद अब वैसा नहीं है जैसा अस्सी के दशक में था। एनएससीएन व उल्फा जैसे उग्रवादी संगठनों के ज्यादातर पदाधिकारी या तो आत्म-समर्पण कर मुख्यधारा से जुड़ गए हैं या उन्हें समाप्त किया जा चुका है।
पूर्वोत्तर राज्यों की सीमाएं दूसरे देशों से जुड़ी हुई हैं, और जहां तक पड़ोसी देशों से आंतरिक सुरक्षा से जुड़े खतरों का प्रश्न है तो सीमा प्रबंधन को दुरुस्त करना चाहिए। देश के ही नागरिकों को हर समय सुरक्षा बलों की चौकस निगरानी में क्यों रखा जाए? संविधान में प्रदत्त गरिमामय जीवन के अधिकार के अंतर्गत क्या पूर्वोत्तर के लोगों का यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे स्वतंत्र रूप से रह सकें और उनके सामान्य जीवन में किसी सुरक्षा बल का तब तक हस्तक्षेप न हो जब तक ऐसा करना नितांत आवश्यक न हो गया हो।
सशक्त, संवेदी और जवाबदेह व्यवस्था में औचित्य का प्रश्न जरूर उठना चाहिए। और इसी औचित्य के प्रश्न पर इरोम का संघर्ष जारी रहा है। हो सकता है कि जिस समय इरोम ने अपने राजनीतिक उपवास की शुरुआत की थी तब उनकी मांग इतनी तर्कसंगत और उचित न रही हो, लेकिन आज के समय में और बदलते हालात में यह एकदम जरूरी लगने लगा है कि अफस्पा कानून पर पुनर्विचार हो। एक निगरानी प्रकोष्ठ या शिकायत निवारण प्राधिकरण गठित करने में क्या हर्ज है? यह अफस्पा को धीरे-धीरे समाप्त करने का एक प्रारंभिक चरण होगा, और इरोम के शांतिपूर्ण विरोध को तर्कसंगत परिणति तक ले जाएगा।


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