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न्यूज क्लिपिंग्स् | शेल कंपनी कथा दूसरी कड़ी : काले धन के खिलाफ जंग राजधर्म है-- हरिवंश

शेल कंपनी कथा दूसरी कड़ी : काले धन के खिलाफ जंग राजधर्म है-- हरिवंश

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published Published on Nov 13, 2017   modified Modified on Nov 13, 2017
राजनीति विचारधारा या भावना से चलती है और अर्थनीति शुद्ध स्वार्थ की नीितयों से. पिछले 60-70 वर्षों में एक तरफ राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग की बात भारत में बार-बार हुई, तो दूसरी तरफ भ्रष्ट ताकतों ने आर्थिक नियमों, कंपनी कानूनों को ऐसा बनाया कि भ्रष्टाचार की जड़ें लगातार मजबूत होती गयीं. शेल कंपनियां ऐसे ही कंपनी कानूनों की उपज हैं, पर आश्चर्य यह है कि 60-70 वर्षों से इनका काम अबाध कैसे चलता रहा? इन्हें नष्ट करने की कोई कारगर कोशिश क्यों नहीं हुई?

काले धन के खिलाफ जंग राजधर्म है

वर्ष 2009 के आम चुनावों में भाजपा (लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में) और यूपीए के बीच ब्लैक मनी के मुद्दे पर राजनीतिक जंग हुई, पर यूपीए की सरकार आने के बाद तो 2जी, कोल स्कैम, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले जैसे कामों ने काली पूंजी की ताकत और साम्राज्य दोनों को अभेद्य बना दिया. इसमें राष्ट्रीय नुकसान कहां हो रहा था? देश कैसे पुन: आर्थिक महासंकट के दुष्चक्र में फंस रहा था?

देश का खर्च लगातार बढ़ रहा था, आमद नहीं. इस तरह यह मुल्क कब तक चलता? यूपीए की राजनीति और अर्थनीति देश की अामद न बढ़ा कर देश को पुन: 1991 जैसे भयंकर अर्थ संकट में धकेल रहा था.

कैसे?

वर्ष 2016, 16 मार्च को बजट भाषण के दौरान सदन में हमने कहा था कि एक सामान्य आदमी की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर डालता हूं, तो पाता हूं कि आज भारत सरकार के खर्चे करीब 18 लाख करोड़ हैं, कमाई या आमद तकरीबन 12 लाख करोड़. भारत पर आज कुल कर्ज 70 लाख करोड़ है. इस कर्ज पर लगभग पांच लाख करोड़ ब्याज सालाना चुकाना पड़ता है. इस तरह कुल आमद 12 लाख करोड़ और कुल खर्च तकरीबन 18+5=23 लाख करोड़. यानी हर साल लगभग 11 लाख करोड़ के घाटे पर भारत सरकार चल रही है.

देश चलाने के लिए यह पूंजी तो चाहिए ही चाहिए. ऊपर से देश के कोने-कोने से लोगों की बढ़ती विकास की आकांक्षाएं. श्रेष्ठ सार्वजनिक सुविधाअों की चाहत. कैसे चलेगा मुल्क? 130 करोड़ की आबादी में महज 83 हजार परिवार हैं, जिनकी घोषित आमदनी एक करोड़ से अधिक है?

हाल में जानेमाने अर्थशास्त्री रामगोपाल अग्रवाल की पुस्तक आयी ‘डिमोनेटाइजेशन, ए मींस टू एन एंड?' मार्क टली ने दिल्ली में इसका लोकार्पण किया. पुस्तक में दिये तथ्य के अनुसार भारत के संगठित क्षेत्र में 4.2 करोड़ लोग हैं, महज 1.74 करोड़ यानी 41 फीसदी आयकर रिटर्न भरते हैं. 2015-16 के आंकड़ों के अनुसार. अनौपचारिक क्षेत्र (इनफॉरमल सेक्टर) के 5.6 करोड़ उपक्रमों/संस्थाअों में से 1.81 करोड़ (करीब 32 फीसदी) ही आयकर रिटर्न भरते हैं.

2015-16 में जिन 37 करोड़ निजी लोगों ने आयकर रिटर्न भरा, उनमें से महज 24 लाख लोगों ने ही अपनी आय 10 लाख से ऊपर घोषित की. 50 लाख से अधिक आय बतानेवाले महज 1.72 लाख लोग थे. जिन 76 लाख निजी लोगों ने आयकर रिटर्न भरा, उनमें से 56 लाख लोग वर्ष 2015-16 में वेतनभोगी थे, पर इस मुल्क में पिछले पांच वर्षों में 1.25 करोड़ कारें बिकीं. इसी बीच दो करोड़ लोग विदेश गये. यह मान लिया जाये कि एक परिवार को 10 लाख की आमद होगी, तब वह पांच साल में एक कार खरीद पाता है या विदेश में छुट्टियां मनाता है. इस तरह उपभोग के आंकड़े बताते हैं कि इस मुल्क में कम-से-कम एक करोड़ परिवार ऐसे होंगे, जिनकी आमद 10 लाख रुपये होगी. फिलहाल 24 लाख लोग ही सालाना 10 लाख से अधिक अपनी आमद बताते हैं. स्पष्ट है कि 50 फीसदी से अधिक लोग कर चुराते हैं या अपनी आय छुपाते हैं.

केवल पांच फीसदी लोग आयकर देते हैं. केंद्र और राज्य दोनों का कर संग्रह महज 16.6 फीसदी है, कुल जीडीपी का. जो भारत की तरह उभरती अर्थव्यवस्था के देश हैं, वहां यह अनुपात 21 फीसदी है. स्पष्ट है कि भारत में कर चोरी है और कर की मात्रा भी कम है. ऐसी स्थिति में सरकारें, गरीबों के कल्याण के लिए धन कहां से लायेंगी? इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, कल्याणकारी कामों के लिए धन कहां से आयेगा? साफ है कि कर चोरी रोकना, कर संग्रह बढ़ाना और अधिक आय वर्ग पर अधिक कर लगाना, यही रास्ता है.

या कहें एकमात्र विकल्प, पर अामतौर से सरकारें लोकलुभावन नारों (पोपुुलिस्ट स्लोगन) पर चलती हैं. वे ताकतवर मध्य वर्ग या अधिक आयवाले वर्ग को नाराज करने का साहस नहीं करतीं. यूपीए शासन में भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार (वर्ष 2009 से वर्ष 2012 तक) रहे प्रख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु की पिछले साल किताब आयी ‘एन इकॉनामिस्ट इन द रियल वर्ल्ड' (द आर्ट आॅफ पाॅलिसी मेकिंग इन इंडिया). पुस्तक के अंतिम अध्याय में बहुत राज की बात कहते हैं कि पाेपुलिज्म से अल्पकालिक लोकप्रियता की भूख जगजाहिर है. राजनेताओं की नजर अगली सुबह अखबारों की हेडलाइन तक सीमित रहती है या बहुत हुआ तो अगले चुनाव तक. यह यूपीए, खासतौर से कांग्रेस, की ही देन है.

यह राजनीति पिछले 70 सालों से इसी रास्ते चलती रही है. इस राजनीतिक रणनीति में सत्ता पहले, देश बाद में आता है.पर भारत आज जहां पहुंच गया है, जहां हर साल सालाना 10-12 लाख करोड़ का फर्क आमद और खर्च के बीच है, वहां देश की आमद बढ़ानी होगी. टैक्स चोरी रोकना होगा. कालेधन के खिलाफ साहसिक कदम उठाना होगा, पर यूपीए कार्यकाल में हुआ क्या? स्विस आंकड़ों या अन्य स्रोतों से आये आंकड़ों से स्पष्ट है कि इन वर्षों (खासतौर से 2013 में जब यूपीए के महाघोटाले, 2जी, कोल स्कैम, काॅमनवेल्थ खेल वगैरह हुए) में भारत से क्यों सबसे अधिक धन विदेश गया या उस वक्त जमीन, बिल्डिंग, सोना के भाव क्यों आसमान पर थे?

कालाधन इन क्षेत्रों में निवेश हो रहा था, इस कारण जमीन, बिल्डिंग और सोना वगैरह के भाव आसमान छू रहे थे. एक वर्ग, ताकतवर वर्ग, राजनीतिक संरक्षण में पल व रह रहा वर्ग, देश को लूट रहा था और इन चीजों में धन लगा रहा था. आम आदमी के लिए जमीन लेना, बिल्डिंग खरीदना आसान नहीं था. हर जगह कालाधन चाहिए था. वित्त मंत्रालय के अनुसार औसतन 23,000 जगहों पर कर छापों में जो नकदी जब्त हुए, वे कुल कालाधन का पांच फीसदी ही हैं. इसमें सिर्फ नकद राशि (कैश) ही नहीं गहने (ज्वेलरी) भी हैं.

इसी कारण नोटबंदी के बाद पूरे देश में अकेले नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री बिहार थे, जिन्होंने नोटबंदी के साथ-साथ बेनामी संपत्ति, रीयल स्टेट, हीरे-जवाहरात और शेयर बाजार में लगे कालाधन पर सख्त कार्रवाई की मांग की. जिन नेताअों के पैसे शेल कंपनियों से दशकों से सफेद होते रहे हैं, जिनके स्वजनों द्वारा नोटबंदी के बाद सैकड़ों-हजारों करोड़ धन जमा करने के प्रमाण सामने आये, जिनके घरों के अलमारी या पलंग अंदर से 500 और 1000 के नोटों की गड्डियों से भरे होते थे, भला वे कैसे नैतिक साहस कर केंद्र सरकार से कहते कि नोटबंदी से आगे जा कर कठोर कार्रवाई का समय आ गया है?

पर यूपीए शासन में क्या हुआ? 2011 में यूपीए सरकार ने ब्लैकमनी पर अध्ययन-आकलन के लिए तीन आर्थिक शोध संस्थानों को काम सौंपा, पर सरकार इन रिपोर्टों की प्रतीक्षा करती रही. हां, 2012 में इस सरकार ने ब्लैक मनी पर एक ‘ह्वाइट पेपर' जारी किया. आश्चर्य है कि इन रिपोर्टों के आ जाने के चार वर्षों बाद भी उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया. ऐसी खबरें आयीं कि यूपीए द्वारा गठित समितियों ने ब्लैक मनी पर जो रिपोर्ट सरकार को दी थी, वह तत्कालीन सरकार के लिए मुसीबत पैदा करनेवाली या असुविधाजनक थी. एक और गंभीर सवाल का जवाब आज तक यूपीए से नहीं मिला है. मार्च 2016 के अंत तक कुल बैंक नोट लगभग 16 लाख करोड़ सर्कुलेशन में थे. इनमें से छह लाख करोड़ 1000 रुपये के नोट थे और 500 रुपये के आठ लाख करोड़ नोट. 2011 से 2016 के बीच इन बड़े नोटों का सर्कुलेशन 40 फीसदी किन कारणों से बढ़ाया गया? इस अवधि में 500 रुपये के नोट 76 फीसदी बढ़े और 1000 रुपये के नोटों की आपूर्ति में 109 फीसदी की वृद्धि हुई. यह दुनिया का प्रमाणित तथ्य है कि बड़ी कीमत के नोट ही कालाधन बढ़ाते हैं. जहां भी छापे पड़े, ये बड़े नोट (500 रुपये व 1000 रुपये के) ही कालाधन के रूप में पाये गये. यह काम यूपीए सरकार में कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह रहस्य अब भी रहस्य ही है.

हाल ही में ‘डिमोनेटाइजेशन, इन द डिटेल' पुस्तक आयी, मशहूर पत्रकार एचके दुआ द्वारा संपादित. इसमें एक लेख है, अनिल बोकिल का. वह दशकों से नोटबंदी के समर्थक माने जाते हैं. उन्होंने आंकड़े दे कर बताया है कि अमेरिका, जहां प्रति व्यक्ति आमद 53000 डाॅलर है, सबसे बड़ा नोट 100 डाॅलर का है. इसी तरह ब्रिटेन, जहां प्रति व्यक्ति आम 25000 पौंड है, सबसे बड़ा नोट 50 पौंड का है.

जापान, जहां प्रति व्यक्ति 50 लाख युवान है, वहां सबसे बड़ा नोट 100,000 युवान है. भारत में प्रतिव्यक्ति अौसत आय 90,000 रुपये है, तो यहां सबसे बड़ा नोट 1000 रुपये का है. 30 फीसदी भारत की आबादी गरीबी रेखा से नीचे है, वहां 95 फीसदी बड़े नोट हैं. यह क्यों? क्या जो गरीब मुश्किल से अपना जीवन जी रहे हैं, वे 500-1000 रुपये के नोट रखते हैं?

पहले जितनी मुद्रा छपती थी, उतनी कीमत का सोना रखा जाता था. अब यह प्रावधान या व्यवस्था नहीं है. सरकार का खर्च लगातार बढ़ता रहे और मौजूदा या प्रचलित कर प्रणाली से आमद नहीं बढ़े, तो आसानी से सरकार बड़े नोट छाप कर काम कर सकती है. भारत में 500 रुपये व 1000 रुपये के प्रति नोट छापने की कीमत तकरीबन चार रुपये है. भारत से शहरों में प्रतिदिन 47 रुपये और ग्रामीण इलाकों में 32 रुपये खर्च करने की क्षमतावाले गरीबी रेखा के नीचे है. रोचक यह है कि अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा की सीमा प्रतिदिन 1.9 डाॅलर है. यानी 130 रुपये रोजाना. इस कसौटी पर भारत की 50 फीसदी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे है.

अब इन गरीबों के लिए कुल करेंसी या नोट का 85 फीसदी हिस्सा क्यों 500 और 1000 रुपये के नोटों का होना चाहिए? डिमोनेटाइजेशन के बाद ‘कैश टू जीडीपी रेशियो' 12 फीसदी से घट कर नौ फीसदी आ गया है.

आज हकीकत यह है कि देश के ताकतवर वर्ग और लगभग सभी राजनीतिक दलों (नीतीश कुमार को छोड़ कर) ने नोटबंदी का विरोध किया, पर उसके बाद हुए आम चुनावों ने भी प्रमाणित किया कि आम जनता नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी फैसले के पक्ष में है. इसका बड़ा आसान और सहज कारण है कि बड़े नोटों से 50 फीसदी गरीब भारतीयों का क्या लेना देना है. उन्हें तो खुशी हुई कि धनपति, धनकुबेर और समर्थ लोग पहली बार आजाद भारत में फंसे हैं.

किसी सरकार ने साहस किया है इनके खिलाफ कार्रवाई करने का! गरीबों को जलन राग या ईर्ष्या के तहत संपन्न तबके की यह परेशानी खुशी दे गयी.

आज भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ जंग राजधर्म है. यही जंग भारत की नियति तय करनेवाला है. भविष्य का भारत दुनिया की महाशक्ति बनेगा या पुन: कमजोर बना रहेगा, यह फैसला भी इसी जंग में होनेवाला है. पिछले वर्ष केंद्र और राज्य सरकारों ने मिल कर 47 ट्रिलियन रुपये यानी 12,900 करोड़ प्रति दिन यानी 500 करोड़ रुपये प्रति घंटा रोजगार सृजन पर खर्च किया.

इस साल केंद्र सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पर 12 ट्रिलियन रुपये खर्च करेगी, जिसमें बड़े पैमाने पर मजदूर काम करेंगे. रोजगार सृजन होगा. इसी तरह केंद्र और राज्य सरकार लगभग 12 ट्रिलियन रुपये यानी 3,200 करोड़ रुपये प्रतिदिन शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं पर खर्च कर रहे हैं, पर कक्षा पांच के 10 में से महज चार छात्र कक्षा दो की पाठ्य पुस्तकें पढ़ पाते हैं.(स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स, 19 अक्तूबर 2017). इस तरह बड़ी पूंजी देश के विकास, शिक्षा, सामाजिक कल्याण में लग रही है, पर इन पर अंकुश न हो, तो बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की लहरों में समाहित होगा, तय है.

इसका परिणाम क्या हुआ है?

भ्रष्टाचार पर महज जुबानी कार्रवाई, जो इस मुल्क में अब तक होती रही, उससे कैसा देश बना है, आज?

दुनिया में पिछले पांच वर्षों से जिस अर्थशास्त्री की धूम है, वह हैं, फ्रांस के थामस पिकेटी. गरीबी पर इतना व्यापक और गहरा अध्ययन किसी अर्थशास्त्री ने नहीं किया है. वह पढ़े-लिखे हार्वर्ड में, पर फ्रांस लौट कर फ्रांसीसी भाषा में गरीबी पर यह क्लासिक और ऐतिहासिक अध्ययन किया. कई शताब्दियों की गरीबी का अध्ययन उन्होंने लूकास चासेल के साथ मिल कर किया.

‘कैपिटल' (पूंजी) पुस्तक में. दुनिया एकमत है कि यह भावी नोबुल पुरस्कार पानेवाली अर्थशास्त्र की कृति है. यह अध्ययन दुनिया में इतना प्रभावी माना गया कि हार्वर्ड के जानेमाने तीन विद्वानों (अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ) ने मिल कर हाल में एक और नयी किताब लिखी (हार्वर्ड प्रेस से प्रकाशित) है, ‘आफ्टर पिकेटी'. इतने कम समय में कोई किताब इस तरह क्लासिक कृति मान ली जाये, हाल के वर्षों में शायद नहीं हुआ.

उसी थामस पिकेटी ने हाल में भारत के ऊपर एक खास अध्ययन किया है ‘इंडियन इनकम इनइक्वलिटी, 1922-2014) फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलिनेयर राज'.

भारत के संदर्भ में यह अध्ययन विस्फोटक है. दुर्भाग्य कि भारत के बारे में इतना प्रामाणिक अध्ययन विदेश में हुआ. आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा विषमतामूलक समाज बन गया है. सरकारी नीतियों के कारण. 1922 में भारतीय समाज में धनी बहुत धनी थे. गरीब अत्यंत असहाय. इसे दूर करने के लिए 1922 से आयकर लगा. पिकेटी के इस भारत अध्ययन ने पाया है कि पुन: 2014 का भारतीय समाज, 1922 की तरह विषमता का समाज बन गया है.

यानी अब तक की सरकारी नीतियां, आर्थिक या सामाजिक, ऐसी रही हैं कि वे धनाढ्यों-उद्योगपतियों के हक में जाती हैं. इस अध्ययन के अनुसार 1982-83 में राष्ट्रीय आय का छह फीसदी हिस्सा भारतीय समाज के एक फीसदी धनाढ्यों के पास पहुंचता था, पर अब 2013-2014 में भारतीय समाज के शीर्ष एक फीसदी धनाढ्यों के हाथ में राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी हिस्सा पहुंचता है. इसमें से 9 फीसदी हिस्सा 0.1 फीसदी धनाढ्यों के पास जाता है. साफ है कि 80 और 90 के दशकों में अर्थ नीतियों ने धनाढ्यों को और धनी बनाने का काम किया. बीच के 40 फीसदी लोगों के पास राष्ट्रीय आमद का 46 फीसदी हिस्सा 1982-83 में पहुंचता था, जो घट कर 2013-14 में 30 फीसदी रह गया है.

यह अध्ययन यह भी बताता है कि नीचे की 50 फीसदी आबादी की स्थिति बद से बदतर हुई है. 1982-83 में कुल राष्ट्रीय आमद का 24 फीसदी हिस्सा इस आबादी के पास था, जो 2013-14 में घट कर 15 फीसदी रह गया है. यह अध्ययन यह भी बताता है कि चीन, फ्रांस, अमेरिका की तुलना में भारत का धनी वर्ग, बहुत तेजी से धनी बन रहा है.

यह अध्ययन 1922 से 2014 के बीच के भारत का है. स्पष्ट है, यह मूलत: कांग्रेस राज की उपलब्धि है. अगस्त-सितंबर 2017 में ही यह अध्ययन सामने आया है. नहीं मालूम, भाजपा के लोगों को अब तक इस अध्ययन की सूचना है या नहीं? कांग्रेस की अर्थनीतियों या समर्थ वर्ग धनाढ्य तबके की पक्षधर कांग्रेसी अर्थनीतियों पर इससे बड़ा प्रमाण, निष्कर्ष या विश्लेषण और क्या हो सकता है?

वह भी हमारे समय के दुनिया के सबसे प्रामाणिक विद्वानों द्वारा, पर न टेलीविजन चैनलों पर, न सोशल मीडिया में, न अखबारों में यह अतिमहत्वपूर्ण विषय, बहस का मुद्दा बना. एक पंक्ति में कहें, तो इसका निष्कर्ष है कि 1922 के बाद 2014 में भारतीय समाज विषमता के संदर्भ में दुनिया के सबसे विस्फोटक कगार पर खड़ा है.

पर, एक शासक की तरह शायद नरेंद्र मोदी ने यह भांप लिया कि यह बढ़ती आर्थिक विषमता, आज के भारत की सबसे बड़ी चुनौती है. इसलिए उन्होंने अपनी अर्थनीति में नीचे के 50 फीसदी को प्राथमिकता देने की रणनीति अपनायी. यही आज भारत के हित में है, समाज के हित में है और भारत के संपन्न तबकों के सुरक्षित और खुशहाल भविष्य की गारंटी है.

जनसंघ या भाजपा का परंपरागत समर्थक वोटर या सामाजिक आधार क्या कर रहा है? उद्योग-धंधा करनेवाले व्यवसायी-व्यापारी, उद्यमी प्लस अन्य. 2014 में देश के मंझोले या बड़े उद्योगपति नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते थे, आज व्हाट्सएप से लेकर बातचीत में यह तबका और ये लोग बड़े हमलावर-आलोचक बन गये हैं.

गहराई में उतरें, तो इस नाराजगी के मूल में है कि पहली बार देश में ऐसा मुमकिन हुआ है कि आप ब्लैक मनी जेनरेट नहीं कर सकते. आजादी के 70 वर्षों के बाद, भ्रष्टाचार के अनेक ऐतिहासिक संघर्षों और केंद्र में निजाम-तख्त बदल देने के बावजूद देश में भ्रष्टाचार और ब्लैक मनी का साम्राज्य विशालकाय, मजबूत और अपराजेय बनता गया. इसके साथ ही पिछले तीन वर्षों में इतने ठोस सख्त व प्रभावी कानून बने हैं कि बाहर रखा कालाधन भी देश में लाना लगभग असंभव जैसा बन गया है. भ्रष्टाचार के खिलाफ इस कारगर लड़ाई और साहस दिखाने का श्रेय भाजपा को भी नहीं, सिर्फ नरेंद्र मोदी को है. आज दिल्ली के पांच सितारा होटल, जो मूलत: लाॅबिंग और दलाली के अड्डे थे, उजाड़ जैसी स्थिति में हैं, पर यह लड़ाई राज्यों और ब्लॉकों तक अभी नहीं पहुंची है. इन जगहों पर भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचार दोनों मजबूत ही हो रहे हैं.

इस सरकार ने सत्ता संभालते ही ब्लैक मनी की जांच के लिए यूपीए के शासनकाल में सुप्रीम कोर्ट के दिये निर्देश का पालन किया. पहले स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआइटी) गठित की.

सुप्रीम कोर्ट ने ब्लैक मनी जांच के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार को बहुत पहले यह निर्देश दिया था, पर उस सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. इस सरकार ने पहली ही कैबिनेट में यह फैसला किया. विदेशों में जमा भारतीय कालाधन के लिए अत्यंत कठोर कानून ‘ब्लैक मनी एक्ट' बनाया. कई नये देश के साथ ‘टैक्स ट्रिटीज' की. पुराने टैक्स समझौतों को बदला, भारत के अनुकूल बनाया. साथ ही ‘इसाल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड' बनाया. बैंकों का धन लेकर भागना कांग्रेस राज में जितना आसान था, अब उतना ही कठिन है.

बैंकों के चेयरमैन, अन्य कारणों से पद पाते थे और बैंकों को लूटते थे. ऐसे अनेक प्रकरण विजय माल्या व अन्य मामलों में सामने आ चुके हैं. अब चेयरमैन, एक संस्थागत प्रक्रिया के तहत, योग्य व ईमानदार बैंकर ही बन पायेंगे. ऊपर से सत्ता को खुश करनेवाले नहीं टपकेंगे. 28 साल से जानबूझ कर अटका कर रखा गया बेनामी संपत्ति कानून लागू किया गया. तभी तो आज लालू प्रसाद, चिदंबरम के सुपुत्र, जगन रेड्डी, महाराष्ट्र के छगन भुजबल, हिमाचल के वीरभद्र सिंह या तमिलनाडु में शशिकला या ऐसे लोगों के परिवार के सदस्यों के खिलाफ साहसिक कार्रवाई हो रही है.

गीता में भी कहा गया है, ऊपर बैठे श्रेष्ठजनों का जनता अनुकरण करती है. महाभारत साफ संदेश देता है कि महाजनो येन गता: सा पंथा, यानी समाज के अगुआ लोगों का ही जनता अनुकरण करती है, पर यहां क्या हो रहा था? समाज के आधुनिक अगुआ या राजनेता, उनका परिवार, भ्रष्टाचार के पर्याय बन रहे थे. राजनीति विश्वसनीयता खो रही थी.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/shell-company-second-episode-black-money-against-jung-rajadharma/1082225.html


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