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न्यूज क्लिपिंग्स् | संभव है कालाजार का उन्मूलन-- उषाकिरन तारिगोपुला

संभव है कालाजार का उन्मूलन-- उषाकिरन तारिगोपुला

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published Published on Mar 15, 2016   modified Modified on Mar 15, 2016
आज कालाजार दिवस है और हमारे लिए यह विचार करने का उचित मौका है कि हमने इस बीमारी के उन्मूलन के लिए अब तक क्या किया है. कालाजार एक खतरनाक परजीवी बीमारी है, जिससे बिहार की हजारों जिंदगियां प्रभावित हैं. 2015 में भारत में इसके 8,240 मामले सामने आये थे, जिसमें 76 फीसदी पीड़ित सिर्फ बिहार से थे और राज्य के 38 में से 33 जिलों में लोग इससे संक्रमित थे. यह बीमारी मादा सैंडफ्लाइ के काटने से होती है.

इससे अत्यंत निर्धन लोग अधिक पीड़ित होते हैं. इसका एक कारण है कि यह मक्खी कच्चे मकानों और नम जगहों में पैदा होती और पलती है. मादा सैंडफ्लाइ अपने अंडों के पोषण के लिए जानवरों या मनुष्यों का खून चूसती है और इस क्रम में बीमारी के कीटाणु एक रोगी से दूसरे में संक्रमित कर देती है.

बिहार में कालाजार को जन-स्वास्थ्य की समस्या के रूप में चिह्नित किया गया है और राज्य इसके उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध है. सरकार ने लक्ष्य निर्धारण के साथ इसके उन्मूलन के लिए ठोस योजना, धन का आवंटन, समयबद्ध छिड़काव व उपचार जैसे उपायों से अच्छी प्रगति की है. बिहार सरकार के प्रयासों से कालाजार के मामलों और मौतों में लगातार कमी आ रही है.

नेशनल वेक्टर बॉर्न डीजीज कंट्रोल प्रोग्राम के आंकड़ों के अनुसार, 2015 में इसके 6,280 थे, जबकि 2010 में यह संख्या 23,084 रही थी. इसी तरह, जहां 2010 में मरनेवालों की संख्या 95 थी, जो 2015 में मात्र पांच हो गयी थी.

इस बात की पूरी संभावना है कि प्रयासों और उपलब्ध समाधानों से जल्दी ही इस रोग पर पूरी तरह से काबू कर लिया जायेगा. लेकिन, ऐसी चुनौतियां भी हैं, जो इस यात्रा को धीमी कर सकती हैं.

पहली चुनौती बीमारी को शुरू में ही पहचानने और उपचार की है. कालाजार हल्के बुखार, कमजोरी और भूख की कमी से शुरू होता है तथा कई सप्ताह में तेज बुखार, एनिमिया, लीवर का बढ़ना, चिड़चिड़ापन, त्वचा का काला पड़ना, पेट फूलना, निर्बलता जैसे लक्षणों में बदल जाता है. समुचित उपचार नहीं होने पर रोगी की मृत्यु संभावित हो जाती है. अधिकतर रोगी आम तौर पर एंटी-बायोटिक लेने या मलेरिया के ईलाज के फेर में बहुत खर्च कर देते हैं. लेकिन, कालाजार के कारण हो रहे बुखार में ये उपचार कारगर नहीं होते.

कालाजार के उपचार में काम आनेवाली दवाइयां सीमित हैं और महंगी होने के कारण बहुत-से रोगियों की पहुंच से बाहर हैं. वर्ष 2014 के आखिरी दिनों से भारत सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से बिहार के सर्वाधिक प्रभावित जिलों में सिंगल-डोज उपचार मुहैया कराया है, जो प्रभावी और सुरक्षित है. शुरू में ही रोग की पहचान और ऐसी दवाइयों से उपचार से रोग का संक्रमण फैल नहीं पाता है. इसके उलट, गलत पहचान के कारण अक्सर उपचार में देर हो जाती है, जिससे बीमारी रोगी के आसपास भी फैल जाती है.

कालाजार वेक्टर बॉर्न बीमारी है, जो सैंडफ्लाइ के काटने से फैलती है. छूने से यह बीमारी नहीं होती है. कच्चे मकानों में रहनेवाले लोगों की रक्षा के लिए, खासकर उन गांवों में जहां पिछले तीन साल में बीमारी का कोई मामला सामने आया हो, इस कार्यक्रम के तहत घर के सभी कमरों की दीवारों पर मुफ्त में सिंथेटिक पाइरेथ्रॉयड (वर्तमान में अल्फा-साइपरमेथ्रिन) का साल में दो बार छिड़काव किया जाता है.

इस रसायन का सैंडफ्लाइ के प्रतिरोधी होने से रोकने के लिए बिहार सरकार की 33 प्रभावित जिलों में डीडीटी की जगह इस वर्ष जून तक उक्त रसायन के प्रयोग की योजना है. इसके अतिरिक्त प्रभावित घराें में और आसपास अन्य कई छिड़काव के बारे में विचार किया जा रहा है.

लोगों द्वारा बरती गयी साधारण सावधानियां रोग को फैलने से रोक सकती हैं, जैसे- शरीर को पूरा ढंकनेवाले कपड़े पहनना. इससे मक्खी के काटने की आशंका कम हो जाती है. कुछ पुरानी और गहरे तक पैठी आदतों को छोड़ना भी जरूरी है, उदाहरण के लिए, जमीन पर और गाय, बकरियों जैसे पालतू जानवरों के निकट सोना. ऐसे में मक्खी के काटने की संभावना बढ़ जाती है. इससे परहेज किया जाना चाहिए.

इस दिशा में सरकार की प्रतिबद्धता सराहनीय है. आपूर्ति बनाये रखना, सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों को तैयार करना और कालाजार की रोकथाम करने तथा संक्रमण रोकने के लिए समय रहते रोग की पहचान और उपचार करना जैसे प्रयासों की प्रशंसा की जानी चाहिए. आज जब बिहार कालाजार को जड़ से उखाड़ने के लिए प्रयासरत है, ऐसे में हम सभी का यह कर्तव्य है कि संक्रमण के खतरे में पड़ी जिंदगियों को बचाने के लिए अपना ठोस योगदान दें.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/739078.html


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