Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | सबर आदिवासियों के सब्र की इंतेहा-- ज्यां द्रेज

सबर आदिवासियों के सब्र की इंतेहा-- ज्यां द्रेज

Share this article Share this article
published Published on Sep 29, 2015   modified Modified on Sep 29, 2015
आदिवासी सबर समुदाय को जब तक कोई नजदीक से न देखे तब तक कभी जान नहीं सकता कि वो कैसे रहते हैं.
और वहां तक पहुंचने के लिए भी ऐसे किसी इंसान से मदद लेनी पड़ेगी, जो उनकी रिहाइश के बारे में जानता है.
हम किसी तरह झारखंड के पूर्वी सिंहभूम ज़िले में पोटका ब्लॉक के सुदूर इलाक़े की पतली पगडंडियों को पार करते हुए उनके घरों या कहें बिखरी हुई झोपड़ियों तक पहुंचे.
रास्ते में हमें कई संथाल आदमी मिले जो अपनी साइकिल के कैरियर पर बड़ी चतुराई से जुगाड़ कर लकड़ी के ऊंचे ऊंचे बोझ लादे नजदीक के बाज़ार जा रहे थे.
वे साधारण लेकिन सुंदर ढंग से सजे कच्चे घरों में रहते थे जो लौटते समय हमें सबर लोगों के घरों के मुक़ाबले आलीशान लगे.

 

पहली झोपड़ी जो पहुंचने पर हमें दिखी.
जिस पहले सबर ‘घर' में हम पहुंचे वो टहनियों, पत्तियों और पतली लकड़ियों से बनी हुई बहुत छोटी झोपड़ी थी.
यह विश्वास करना भी मुश्किल था कि इस तरह की छोटी जगह में कोई रह भी सकता है. ये इतनी भी बड़ी नहीं थी कि कोई इंसान इसमें ढंग से खड़ा हो सके.
इस झोपड़ी में एक बुजर्ग दंपती रहते थे और इसमें कुछ बर्तनों और पतले बिछौने के अलावा कुछ भी नहीं था.
शायद यह उनका स्थायी निवास नहीं था, बल्कि झारखंड के जंगलों में घूमते हुए सबर लोग समय समय पर जो घर बनाते हैं, ये उनमें से एक था.
लेकिन सच्चाई ये है कि उनके पास जो कुछ है यही है.
जब हम इस झोपड़ी के पास खड़े हुए तो पड़ोसी भी इकट्ठा हो गए. उनसे बात करना मुश्किल था, इसलिए नहीं कि भाषा की समस्या थी, बल्कि इसलिए कि इनमें मानों ज़रा भी ऊर्जा नहीं थी, वो हमारी बात में कोई दिलचस्पी नहीं ले पा रहे थे.
मैंने सोचा कि उनको ये चिंता सता रही थी कि उनकी अगले जून की रोटी का जुगाड़ कैसे होगा.
ग़रीबी और अशिक्षा
इनमें से कुछ ने पूछा कि क्या हम कुछ कंबलों का बंदोबस्त कर सकते हैं क्योंकि जाड़ा क़रीब आ रहा था और उनके पास कंबल बिल्कुल नहीं थे.

 

 

सुनी सबर महिला जंगली पौधों की जड़ें उबालती हुई.
वहां इकट्ठा सभी बच्चे भयानक रूप से कुपोषित लग रहे थे.
बगल के गांव से आए एक नौजवान लड़के ने गांव के स्कूल से सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई की थी.
यह हैरान कर देने वाला था कि दूसरे दर्जे की थोड़ी सी शिक्षा ने भी उसके नज़रिए और आत्मविश्वास को कितना बढ़ा दिया था.
वो कोलकाता में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर काम कर चुका था और उसे बाहरी दुनिया का कुछ अंदाज़ा था.
कोलकाता में उसने बहुत नहीं कमाया होगा, पर कम से कम उसके पास इस जाल से निकलने का एक मौका है जिसमें बाकी लोग क़ैद थे.
हम जंगली पहाड़ी की ओर आगे बढ़े, जहां सबर लोगों की झोपड़ियां बिखरी हुई थीं. ये सभी पहले जैसी ही दिखीं बस कुछ ही थीं जो थोड़ी लंबी और मजबूत थीं.
इन सब में भी बहुत ही कम सामान था. ऐसा लगा कि भूख और बीमारी हर परिवार को सता रही थी.
चढ़ाई चढ़ते हुए हम एक अन्य झोपड़ी तक पहुंचे जहां एक महिला जंगली पौधों की जड़ें उबाल रही थी और पास ही बड़ी तोंद वाला उसका बच्चा रात का बचा हुआ चावल खा रहा था.

 

गुजारा

 

ऐसा लगता है कि सबर परिवार तभी चावल खाता है जब उसके पास ख़रीदने के पैसे होते हैं, नहीं तो वो जंगल से पैदा होने वाली चीजों पर ही गुजारा करते हैं.
इनमें से अधिकांश खुद बताते हैं कि वो चावल से बनी शराब ‘हंडिया' बहुत पीते हैं, इतनी कठिन परिस्थितियों में रहते हुए, शायद जीवन में परम आनंद हासिल करने का उनका यह एकमात्र तरीक़ा है.
इस इलाक़े में रहने वाले अधिकांश सबर आसपास के जंगलों से लकड़ियां काटकर और उन्हें बेच कर अपना गुजर बसर करते हैं.
चूंकि उनमें से किसी के पास भी साइकिल नहीं है इसलिए वो इसे नजदीक के बाज़ार तक नहीं ले जा पाते हैं, जहां उन्हें अच्छा दाम मिल सकता था.
इसकी बजाय वो बहुत कम दाम पर नजदीक के संथाल लोगों को अपनी लकड़ियां बेच देते हैं, जो अपनी साइकिल से ढो कर इसे पास के बाज़ार तक ले जाते हैं.
लकड़ी के बदले मिले पैसों से सबर खाने के लिए चावल ख़रीदते हैं या बाद में पीने के लिए हंडिया. और इसके बाद अगले दिन यही दिनचर्या शुरू हो जाती है.
हम सबर लोगों की दूसरी रिहाइश को भी देखने गए, यह कम अलग थलग और थोड़ा बेहतर था.

 

 

यहां भी, हमने पाया कि बीमारी और दो जून के भोजन की असुरक्षा लगभग हर घर को घेरे हुए थी.
एक बुजुर्ग विधवा कुनी सबर एक पेड़ के नीचे रह रही थी क्योंकि परिवार की छोटी सी झोपड़ी से उसके बेटे ने ही उसे बाहर कर दिया था.
कुपोषण और बीमारी
हर समय अनियंत्रित रूप से कांपते रहने की बीमारी से ग्रस्त नुढू सबर अपनी कुल्हाड़ी लेकर जंगल की ओर जा रहे थे क्योंकि उनके पास कोई और चारा ही नहीं था.
इस बीच एक नौजवान महिला सुनी सबर से हम मिले जो एक झोपड़ी में टीबी की बीमारी से बेहाल आधी बेहोशी की हालत में लेटी हुई थीं. पास में ही ज़मीन पर उनका बहुत कमज़ोर बच्चा बिल्कुल शिथिल सा बैठा था.
हम लोग उनकी बात सुनकर दंग रह गए कि वो बच्चा पूरे चार साल का था. वो ऐसा दिख रहा था जैसे वो जिंदा नहीं रह सकता.

 

 

टीबी की बीमारी से ग्रस्त सबर महिला.
इसके बाद हम चारपाई पर लेटे हुए सुक्रा सबर से मिले, जिनकी एड़ी के पास गहरा घाव था.
उनकी पत्नी ने हमें बताया कि उन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली थी. उनकी बेटी उनके पास ही कंबल ओढ़े लेटी बुखार से जूझ रही थी. किसी ने कहा कि उसे पीलिया हो गया है, लेकिन कौन जाने क्या हुआ है.
ऐसा लग रहा था कि यह घाव जल्द नहीं भरेगा. बड़ी मुश्किल से हमने सुक्रा सबर को अपने साथ जमशेदपुर अस्पताल तक चलने के लिए मना लिया. कुछ देर तक वो चले भी लेकिन आखिरकार इंजेक्शन के डर के सामने हथियार डाल दिए और भाग खड़े हुए.
बाद में हमें पता चला कि उनका घाव भर गया था लेकिन बुखार से जूझ रही उनकी बेटी की मौत हो गई.
क्या सबर लोग हमेशा से ऐसी ही रहते आए हैं? यह कहना मुश्किल है लेकिन संभवत: जब झारखंड के घने जंगलों में जंगली भोजन, फल, मछलियों और शिकार की कमी नहीं थी तो वो कम से कम इससे बेहतर खुराक पाते थे.

 

भुखमरी की स्थिति

 

इतिहासविद् वाईएन हरारी के मुताबिक़, पुराने ज़माने के शिकारी अलग अलग क़िस्म और पोषण से भरपूर खुराक का आनंद उठाते थे, जैसे ‘नाश्ते में बेरी और मशरूम, दोपहर के भोजन में फल, घोंघा, कछुआ और रात के भोजन में जंगली प्याज के साथ खरगोश का मांस.'
अगर ये अन्य जगहों के लिए सही था तो झारखंड में क्यों नहीं? बहुत साधारण बात है, पिछले कुछ सालों में जंगली जीवों और जंगल का जो विनाश हुआ है, उसने सबर और आदमजाति कहलाए जाने वाले (जिन्हें अब अतिसंवेदनशील आदिवासी समुदाय-पीवीटीजी) को कमज़ोर और कुपोषित बना दिया है.
जब हमने पोटका को छोड़ा तो मेरा दिल भारी था. बाद में हमने झारखंड के कुछ पीवीटीजी बच्चों के रिहाइशी स्कूलों का दौरा किया.
मैंने महसूस किया कि सबर लोगों के पास अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के अलावा बेहतर जिंदगी देने की बहुत थोड़ी ही आस है.
और विशेष रिहाइशी स्कूलों के पीछे यही विचार था. लेकिन जिन स्कूलों में मैं गया वहां शिक्षा का स्तर बहुत ख़राब था.
शिक्षा ही उम्मीद

 

 

सरकारी सहयोग और स्थानीय गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाए जाने वाले इन स्कूलों को चार शिक्षकों, एक रसोइए और एक सुरक्षा गार्ड के लिए हर महीने महज़ 20,000 रुपए मिलते हैं.
साल 2007 में जब ये स्कूल शुरू किए गए थे, तबसे तनख्वाह के बजट में एक रुपए की भी बढोतरी नहीं हुई है.
खेतिहर मज़दूरों से भी कम मेहनताने की वजह से इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इन स्कूलों में पढ़ाने के लिए कैसे शिक्षक राज़ी होते होंगे.
सबर परिवारों को बढ़िया स्कूलों की दरकार है, ताकि शिक्षा तंत्र से उनके सदियों के बहिष्कार की भरपाई की जा सके. बजाय इसके, उनसे उम्मीद की जाती है कि वो सबसे बुरे स्कूलों से गुज़ारा कर लेंगे.
इस नाइंसाफ़ी पर बिना ध्यान दिए, हर गुजरता साल सबर बच्चों को उसी क़ैद में रहने को मजबूर करता है, जिसमें उनके अभिभावक रहते आए हैं.

 


http://www.bbc.com/hindi/india/2015/09/150926_jharkhan_sabar_tribal_sr


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close