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न्यूज क्लिपिंग्स् | सबसिडी घटाने की फितरत- सी पी चंद्रशेखर

सबसिडी घटाने की फितरत- सी पी चंद्रशेखर

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published Published on Mar 26, 2012   modified Modified on Mar 26, 2012
अपने बजट भाषण के जरिये, जो बोर होने की सीमा तक उबाऊ था और जिसमें जताने से ज्यादा छिपाने की कला थी, वित्त मंत्री ने मुद्रास्फीति के और ऊपर जाने का रास्ता खोल दिया है। अप्रत्यक्ष कर बढ़ाकर, जिसका बोझ अंततः उपभोक्ताओं पर पड़ना है, और सबसिडी को कम कर, जिससे पेट्रो उत्पाद व उर्वरक महंगे होंगे, उन्होंने मूल्यवृद्धि का बोझ सह रहे इस देश को महंगाई की एक और किस्त दी है! कागज पर मुद्रास्फीति दर और व्यावहारिक धरातल पर गरीब और मध्य वर्ग की वास्तविक आय पर पड़ने वाले इसके असर के बीच बड़ा फासला होगा।

बजटीय प्रावधानों के असर मामूली नहीं होने वाले। उदाहरण के लिए, गैर पेट्रोलियम उत्पादों पर बढ़े केंद्रीय उत्पाद शुल्क को ही लें, जिसमें मानक दरों में दो फीसदी (12 से बढ़ाकर 14 प्रतिशत) और अर्जित दरों में एक फीसदी बढ़ोतरी शामिल है। इस बदलाव से उत्पाद शुल्क का राजस्व 1,50,075 करोड़ से बढ़कर 1,93,729 करोड़ हो जाएगा। एक साल में यह बढ़ोतरी करीब 30 फीसदी है। एक तरफ सरकार को इतना फायदा हो रहा है, दूसरी ओर उसने गैर खाद्य सबसिडी, खासकर उर्वरकों और पेट्रो उत्पादों, में कटौती का फैसला लिया है।

इस साल उर्वरक के मद में दी जाने वाली सबसिडी का संशोधित आंकड़ा 67,199​ करोड़ रुपये है, जो अगले साल घटकर 60,974 करोड़ रह जाएगा। इसी तरह पेट्रोलियम सबसिडी इस साल के 68,481 करोड़ से कम होकर आगामी वर्ष 43,580​ करोड़ रह जाएगी। सबसिडी में यह कटौती ऐसे समय में हो रही है, जब न सिर्फ वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल के मूल्य बढ़ रहे हैं, बल्कि पश्चिम एशिया और दूसरे इलाकों में जारी राजनीतिक अनिश्चितता के कारण इसमें सर्वकालिक तेजी का खतरा मंडरा रहा है। जाहिर है, सरकार के इस कदम से उपभोक्ताओं पर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत का बोझ और बढ़ेगा।

आम आदमी पर महंगाई के इस भारी बोझ का औचित्य जाहिर करते हुए वित्त मंत्री इसे वित्तीय सुदृढ़ीकरण प्रक्रिया का तकाजा बताते हैं। उनके मुताबिक, 'टैक्स-जीडीपी अनुपात बढ़ाना और खर्च घटाना समय की मांग है।' जाहिर है, वित्त मंत्री ने बहुत चतुराईपूर्वक प्रत्यक्ष कर बढ़ाने के विकल्प पर विचार नहीं किया, जिसका असर अमीरों पर पड़ता। बल्कि प्रत्यक्ष कर के मोरचे पर कर छूट और 20 फीसदी आयकर स्लैब, दोनों का दायरा कुछ बढ़ाकर उन्होंने मध्य वर्ग को थोड़ी राहत ही दी है।

प्रत्यक्ष कर के मोरचे पर कमोबेश और भी सहूलियतें दी गई हैं, जिससे सरकार को 4,800​ करोड़ का राजस्व घाटा होगा। लेकिन सेवा कर में दो फीसदी की बढ़ोतरी कर, इसका दायरा बढ़ाकर और उत्पाद शुल्क में वृद्धि कर सरकार इस घाटे की भरपाई कर लेगी। इस कुल बजटीय कवायद के जरिये यह मुल्क उस पुरानी स्थिति में लौट रहा है, जिसमें प्रत्यक्ष करों की तुलना में अप्रत्यक्ष करों का बोझ न सिर्फ ज्यादा है, बल्कि गरीबों पर इसका असर भी ज्यादा पड़ने वाला है। करों के मामले में बजट में उठाए गए कदम प्रतिगामी हैं।

क्या वित्त मंत्री ने ये कदम इसलिए उठाए हैं, ताकि गरीबों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं के लिए धन उपलब्ध हो सके? उन दो महत्वाकांक्षी योजनाओं पर ध्यान दीजिए, जिन्हें समावेशी विकास हासिल करने के लिए जरूरी माना गया है। इनमें से एक खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य गरीबों को भोजन मुहैया कराना है, तो दूसरा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना है, जिसका लक्ष्य रोजगार प्रदान करना और गरीबों की क्रयशक्ति बढ़ाना है।

सरकार अपने प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को न सिर्फ बहुत महत्वाकांक्षी बता रही है, बल्कि उसे इस तरह पेश कर रही है, मानो एक गरीब और विकासशील देश में यह अपनी तरह का अकेला कार्यक्रम है। लेकिन यह आश्चर्यजनक ही है कि इस मद में इस साल के 73,000 करोड़ के आवंटन की तुलना में अगले साल के लिए 75,000 करोड़ का ही प्रावधान किया गया है। जाहिर है, सरकार या तो खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को व्यापक रूप नहीं देना चाहती या वह उम्मीद कर रही है कि सबसिडी पर अंकुश लगाने से खर्च कम होगा।

इसी तरह रोजगार गारंटी योजना का भी काफी प्रचार किया गया। लेकिन इसमें उत्तरोत्तर कम किए जाने वाले आवंटन से ही सचाई सामने आ जाती है- 2010-11 में इसके लिए 35,841 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जो 2011-12 में घटकर 31,000 करोड़ रह गए, और अगले वर्ष के लिए आवंटित राशि मामूली बढ़ाकर 33,000 करोड़ की गई है। चूंकि यह दौर ऊंची मुद्रास्फीति का रहा है, लिहाजा वास्तविक तौर पर हमने आवंटन में गिरावट ही देखा। यानी रोजगार गारंटी योजना का प्रचार ही ज्यादा है।

वित्त मंत्री 'आर्थिक सुधारों' के लिए बजट में की गई इन कवायदों के लिए गर्व महसूस कर रहे हैं। उनके मुताबिक भारत आर्थिक मामले में अब नीति-नियंताओं के उसी ऊंचे आसन पर बैठा है, जिस पर अब तक विकसित देशों का दावा था। उनके मुताबिक, इसी वजह से भारत के कंधे पर नई जिम्मेदारी आ गई है। लेकिन इस बजट को पढ़ने से साफ समझ में आता है कि इस नई जिम्मेदारी का मतलब मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश आमंत्रित करना, विदेशी निवेशकों को खास रियायत देना और उद्योगपतियों और निजी एयरलाइंस को राहत देना है। इस 'जिम्मेदारी' में हाशिये पर खड़े गरीबों के हालात सुधारना शामिल नहीं है।

http://www.amarujala.com/Vichaar/Aalekh/The-nature-of-subsidy-loss-4-4-2541.html


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