Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | समग्र स्वास्थ्य नीति के आधार- रितुप्रिया

समग्र स्वास्थ्य नीति के आधार- रितुप्रिया

Share this article Share this article
published Published on Jun 17, 2014   modified Modified on Jun 17, 2014
जनसत्ता 17 जून, 2014 : दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं का संकट गहरा रहा है। पिछले डेढ़ सौ सालों में बनीं यूरोप और उत्तरी अमेरिका की सेवाएं उनके लिए भी अत्यधिक महंगी और एकांगी साबित हो रही हैं। मकिंजी कंपनी ने अनुमान लगाया था कि अगर स्वास्थ्य-सेवाओं पर खर्च ऐसे ही बढ़ता रहा तो 2100 में अमेरिका को अपनी सकल आय का सत्तानबे फीसद और यूरोप को साठ फीसद स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करना पड़ेगा! फिर भी राष्ट्रपति क्लिंटन और ओबामा की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की कोशिशें वर्तमान व्यवस्था के निहित स्वार्थों के आगे कमजोर पड़ गर्इं। अगर भारत स्वास्थ्य-व्यवस्था का एक संगत मॉडल खड़ा कर सके तो वह भारतवासियों का दुख-दर्द कम करने के साथ-साथ अमीर और गरीब, सभी देशों के लिए मिसाल बन सकता है।

हमारे बहुलतावादी समाज में विविध ज्ञान-पद्धतियां और मिश्रित आर्थिक व्यवस्था, विभिन्न धर्म और संप्रदाय पनपते हैं। ऐसे समाज के अनुकूल स्वास्थ्य-व्यवस्था तो बहुलवादी और बहुआयामी ही हो सकती है। स्वास्थ्य संबंधी लोक व्यवहार और जन-मानस इसी प्रकार का है। ऐलोपैथिक और गैर-ऐलोपैथिक शास्त्रीय स्वास्थ्य पद्धतियों के अलावा, लोक परंपराओं और विभिन्न पद्धतियों का इस्तेमाल देश के सभी हिस्सों में होता है। अब औपचारिक स्वास्थ्य-सेवा को भी तर्कसंगत ढंग से समाज-अनुकूल बनाने की जरूरत है। ऐलोपैथिक सेवाएं प्रभावकारी होने के बावजूद कई मामलों में सीमित लाभ ही दे पाती हैं। अमेरिका में असामयिक मृत्यु के कारणों में हृदय रोग और कैंसर के बाद ऐलोपैथिक इलाज के कुप्रभाव को तीसरे स्थान पर रखा गया है। इसी प्रकार हर पद्धति के प्रभाव-क्षेत्र और कमियां हैं।

इसीलिए सरकार जब भारत देश और हर भारतीय की अंतर्निहित शक्ति को मुखरित करने को प्रतिबद्ध हो, तब स्वास्थ्य-व्यवस्था की अवधारणा में मौलिक बदलाव जरूरी होगा। भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में स्वास्थ्य नीति संबंधी तीन बिंदु इस ओर इशारा करते हैं। एक है स्वास्थ्य सेवाओं, खाद्य और पोषण सुरक्षा और औषधियों से जुड़े विधि विभागों को समेकित करना। इसकी उपयोगिता स्पष्ट है और इसलिए उम्मीद है कि मंत्रालयों के पुनर्गठन में ऐसा जल्द ही किया जाएगा।

दूसरा है ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य आश्वासन मिशन’ का गठन। और तीसरा है भारतीय स्वास्थ्य पद्धतियों और आधुनिक विज्ञान एवं ‘आयुर्जीनॉमिकस’ के समेकित कोर्स की शुरुआत और इन पद्धतियों को प्रोत्साहन के लिए सरकारी निवेश बढ़ाना। अगर इन दोनों की एक समग्र, वास्तविक रूपरेखा बने तो ये भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था को समयानुकूल रूप देने की क्षमता रखते हैं।

घोषणापत्र में विस्तृत विवरण संभव नहीं होता। ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य आश्वासन मिशन’ द्वारा सभी को कौन-सी स्वास्थ्य सेवाएं, कैसे मिलेंगी, इसका संपूर्ण चित्र नहीं मिलता। अनेक छितरे हुए बिंदु हैं। कुछ बिंदु स्वास्थ्य-व्यवस्था संबंधी विज्ञान के मूल सिद्धांतों और अध्ययनों की अनदेखी दर्शाते हैं। पर अगर सभी का सार निकालें तो ये स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ और बहुलतावादी बना कर हर भारतवासी की देखभाल सुनिश्चित करने की सदिच्छा दर्शाते हैं। पिछले सात दशकों की उपलब्धियों को देशज धरोहर से जोड़ते हुए आगे बढ़ने का ढांचा गढ़ने का यह मौका है। इसको ठोस रूप देना आज की चुनौती।

स्वास्थ्य सेवा की समेकित भारतीय अवधारणा, इस मामले में भारत की विशिष्ट स्थिति से ताल्लुक रखती रहै, क्योंकि हमारे यहां मान्यता प्राप्त आठ चिकित्सा पद्धतियां हैं। ‘आयुष’ के सरकारी विभाग में आयुर्वेद, यूनानी, योग, नेचुरोपैथी, सिद्धा, सोवा-रिगोपा (तिब्बती पद्धति) और होमियोपैथी का स्थान है, और ऐलोपैथी अलग ही विभाग है। सभी की स्नातक शिक्षा, शोध और सेवाएं जारी हैं। इसके इलावा सभी इलाकों में घरेलू इलाज और जीवन-शैली में स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ-साथ परंपरागत इलाज करने वाले वैद्य, हकीम, सिद्धार, हड्डी बिठाने वाले, दाई, जड़ी-बूटी वाले सेवाएं प्रदान करते हैं। वर्तमान व्यवस्था में इनमें से केवल एक, यानी ऐलोपैथी को मूल आधार माना गया है। बाकी सबके इस्तेमाल को नजरअंदाज कर उनकी वैधता पर ही प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं। जबकि अनेक अध्ययन बताते हैं कि अन्य पद्धतियों की सेवाओं की भी भारी मांग है, बशर्ते उनकी व्यवस्था में पर्याप्त गुणवत्ता हो। अठारह राज्यों के अध्ययन ने पाया कि तमिलनाडु और केरल में, जहां ऐलोपैथी और आयुष, दोनों की गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध हैं, इन दोनों के बहिरंग विभाग और अस्पताल भरे रहते हैं।

इसमें लोगों के घरेलू इलाज और खाद्य-पदार्थों संबंधी जानकारी को पचहत्तर-अस्सी फीसद शास्त्रीय पद्धतियों के सिद्धांतों और ग्रंथों के अनुरूप पाया गया। इस ‘संसाधन’ को एक समेकित स्वास्थ्य व्यवस्था की नींव बनाते हुए इमारत नीचे से ऊपर तक खड़ी की जा सकती है। घरेलू इलाज से शुरू होकर, परंपरागत स्वास्थ्यकर्मियों को स्वास्थ्य उपकेंद्रों-केंद्रों से जोड़ते हुए बड़े अस्पतालों तक व्यवस्था का समग्र मॉडल बन सकता है। इसकी मोटा-मोटी लागत का आकलन करने पर पाया गया कि सार्वजनिक व्यवस्था पर कम-से-कम बीस प्रतिशत खर्च कम हो जाएगा। लोगों का खर्च जोड़ दें तो और किफायत होगी। आम आदमी के सशक्तीकरण और विभिन्न ज्ञान पद्धतियों को पुनर्स्थापित करने वाली ऐसी व्यवस्था अगर तर्कसंगत ढंग से कार्यान्वित की जाती है तो यह दुनिया के लिए एक न्यायसंगत, बहुलवादी और सातत्यपूर्ण मॉडल पेश करेगी।  

इस अवधारणा के कार्यान्वयन के लिए पूर्व नीतिगत दस्तावेजों में सुझाए कदमों और नए सोच के साथ अनेक प्रामाणिक कार्य संभव हैं। देश में आयुष सेवाओं की गुणवत्ता और पहुंच बढ़ाने पर जोर दिया जाए, न कि केवल विदेशों में। चीन ने अपने स्वास्थ्य-बजट का लगभग पचास प्रतिशत अपने देश में परंपरागत पद्धति पर लगाया, फिर औषधीय जड़ी-बूटी के चौवन फीसद अंतरराष्ट्रीय बाजार पर कब्जा जमा लिया।

विभिन्न पद्धतियों के जानकारों सेसंवाद कर आम स्वास्थ्य समस्याओं के लिए ‘समेकित तर्कसंगत बचाव और इलाज के दिशानिर्देश’ बनाए जाएं जिनकी सभी पद्धतियों के डॉक्टरों और आम लोगों को जानकारी हो।

सभी स्वास्थ्यकर्मियों को समेकित व्यवस्था के लिए उपयुक्त शिक्षा मिले। ‘राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद’ द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र में योग और जड़ी-बूटी की दवा बनाने जैसे कौशल को भी प्रोत्साहन दिया जाए। सभी जिलों में स्थानीय स्वास्थ्य संसाधन केंद्र बनें, जो स्थानीय लोक परंपराओं का अध्ययन करें और औषधीय जड़ी-बूटी सबको सुलभ कराएं। परंपरागत औषधियों के लघु उद्योग को बढ़ावा मिले। इस समेकित ढांचे के साथ-साथ आवश्यक होगा सभी स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करना ताकि वह गुणवत्ता के साथ सब तक पहुंचे।

भाजपा के घोषणापत्र स्वास्थ्य व्यवस्था के तीन मूल सिद्धांतों का जिक्र है: ‘पहुंच बढ़ाना, गुणवत्ता में सुधार लाना, लागत कम करना’। इसके साथ-साथ अन्य सिद्धांतों को भी ध्यान में रखना होगा। जैसे कि स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता की कसौटियां क्या हैं, सेवाओं का प्रभावकारी और पुसाने लायक होना; इलाज की विधि शरीर को नुकसान पहुंचाने वाली न हो; स्वास्थ्य सेवाएं विश्वसनीय हों; सेवाएं इज्जत से प्रदान की जाएं; इलाज के समय कोई खर्च न उठाना पड़े; और सेवा पाने वाले का सशक्तीकरण हो।

एक सिद्धांत यह भी है कि देखभाल करीब से करीब मिले। विभिन्न श्रेणी की संस्थागत सेवाओं में ऐसा तालमेल हो कि जो कार्य निचले स्तर पर हो सकता है उसके लिए ऊपर न जाना पड़े- जो उपचार घर में हो सकता है, उसके लिए बाहर न जाया जाए, और जो इलाज उपकेंद्र में हो सके उसके लिए अस्पताल न जाना पड़े। साथ ही, विशेषज्ञ सेवाओं की वाजिब जरूरत के समय वे सबको सुलभ हों।

व्यवस्था में गुणवत्ता और विश्वसनीयता या तो सामुदायिक स्तर पर कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों/ डॉक्टरों से आती है, सामाजिक प्रतिबद्धता वाले संस्थानों से जैसे कि चर्च, रामकृष्ण मिशन, गुरद्वारे या वक्फबोर्ड के हों, या निष्ठावान स्वयंसेवी स्६ामूहों द्वारा संचालित या फिर सरकारी सेवाओं से। ये सभी ‘प्राइवेट’ नहीं कहे जा सकते, ये ‘सार्वजनिक’ सेवाओं के भिन्न रूप हैं। पिछले तीन दशकों में ही प्राइवेट खासकर कॉरपोरेट अस्पतालों को गुणवत्ता की मिसाल माना गया है। वे साफ-सफाई और साज-सज्जा में और मरीजों का समय बचाने में आगे हैं, पर गुणवत्ता के अन्य पैमानों पर कमजोर रह जाते हैं, खासकर सुरक्षित इलाज और नैतिक व्यवहार में।

अब स्वास्थ्य बीमा को लें। विभिन्न देशों के अनुभव बताते हैं कि चाहे निजी बीमा हो या सामाजिक (यानी जिसमें सरकारें प्रीमियम दें), यह व्यय नियंत्रण और गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था का विकल्प नहीं है। अमेरिका का निजी बीमा मॉडल दुनिया में सबसे महंगा है, जिसमें बीमा लिए हुए व्यक्ति ही अधिकतर मेडिकल खर्चे के कारण कंगाल घोषित हुए हैं।

थाईलैंड और ब्राजील जैसे देश ‘सामाजिक बीमा’ को लागू करना छोड़ चुके हैं, और फिर अपनी अधिकतर आबादी को सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करने में कामयाब हो रहे हैं। हमारे देश में पिछले दशक में चलाई गई सामाजिक बीमा योजनाओं, जैसे कि ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’, ‘राजीव गांधी आरोग्यश्री’ आदि के विभिन्न विश्लेषण दिखाते हैं कि उनसे गैर-जरूरी इलाज और अनैतिक मेडिकल व्यवहार कैसे बढ़ा है। इसीलिए स्वास्थ्य-बीमा की सीमित भूमिका ही हो सकती है।

विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन भी स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में ‘मार्किट फेल्योर’ को पहचान कर 2000 के बाद से सार्वजनिक सेवाओं की अनिवार्यता पर जोर देने लगे हैं। यहां तर्क यह नहीं दिया जा रहा कि सभी प्राइवेट डॉक्टर बदनीयत हैं और सरकारी सबसे बढ़िया, बल्कि यह कि व्यवस्थागत तौर पर स्वास्थ्य-सेवा का सार्वजनिक, गैर-मुनाफे  वाला स्वरूप ही सबसे उपयुक्त है।

पिछले दशक में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए कई पहल हुई हैं, जिनसे नीति-निर्धारण के लिए मूल्यवान सीख मिल सकती हैं। जैसे कि ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’, इसके विभिन्न उपक्रम और विभिन्न राज्यों में इसका कार्यान्वयन; अनेक सामाजिक बीमा योजनाएं; और योजना आयोग की ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य कवरेज पर उच्चस्तरीय विशेषज्ञ ग्रुप’ की रपट। विश्लेषण और निर्णय योग्य प्रमुख मुद्दे होंगे: उचित बजट, गुणवत्तापूर्ण सेवाओं के लिए सभी स्तरों के संस्थानों का सही संतुलन; घरों और समुदायों में स्वास्थ्यवर्धन, बीमारी की रोकथाम, इलाज और प्रशामक उपचार का स्थान और संस्थाओं से तालमेल; आयुष को मुख्यधारा से जोड़ने और स्थानीय परंपरागत स्वास्थ्य संबंधी प्रथाओं को पुनर्जीवित करने के तरीके और उनका प्रभाव; पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप; डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकल्स की ज्यादा संख्या में सरकारी सेवाओं में भर्ती के लिए हर संभव कदम; उप-केंद्रों, केंद्रों और अस्पतालों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता; इनमें कार्य संस्कृति को ज्ञान आधारित, उपयोग-सुलभ और लोगों के प्रति संवेदशील बनाना; आवश्यक दवाएं सभी मरीजों को मुफ्त मिलें; पब्लिक हेल्थ काडर की स्थापना; स्वास्थ्य तकनीकी के मूल्यांकन के लिए सरकारी तंत्र की स्थापना; कम खर्चीली और प्रभावकारी स्वास्थ्य तकनीकी का विकास; और समुदाय द्वारा निगरानी के लिए प्रावधान।

प्राइवेट सेवाओं को जिम्मेदार और उत्तरदायी बनाना होगा। विभिन्न कदम उठाने होंगे। मसलन, चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम (क्लिीनिकल इस्टैबलिशमेंट्स ऐक्ट) जैसे वर्तमान प्रावधानों का सही क्रियान्वयन; ऐसी प्रक्रियाएं और प्रावधान बनाना, जो अनैतिक स्नातक और विशेषज्ञ डॉक्टरों को किनारे करके पूरे पेशे को कलंकित होने से बचा सकें; मेडिकल शिक्षा का नवीनीकरण, जिसमें तकनीकी स्वास्थ्य ज्ञान के साथ-साथ उसके सामाजिक और नैतिक पक्ष को भी उपयुक्त स्थान मिले।

जाहिर है कि चिकित्सा गारंटी की अवधारणा क्या हो यही स्वास्थ्य-सेवा के नीतिकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। सभी पद्धतियों के बीच संतुलन कैसे बैठाया जाए और सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में प्राथमिक भूमिका किसकी हो? कार्यान्वयन के लिए ठोस कदम अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जो नीति-अनुसार चुने और गढ़े जा सकते हैं। आवश्यकता है ऐसी नई देशज अवधारणा की, ताकि हर भारतीय कह सके ‘यह हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था है।’

http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=71190:2014-06-17-03-24-17&catid=20:2009-09-11-07-46-16


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close