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न्यूज क्लिपिंग्स् | साफ नीयत से होगी गंगा की सफाई-- दिनेश मिश्र

साफ नीयत से होगी गंगा की सफाई-- दिनेश मिश्र

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published Published on Jul 16, 2017   modified Modified on Jul 16, 2017

गंगा की सफाई के प्रयास राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल यानी पिछले करीब 30 वर्षों से चल रहे हैं। तब गंगा ऐक्शन प्लान-1 और 2 के अधीन यह काम हुआ था। 2014 में नई सरकार आने के बाद ‘नमामि गंगे' नाम से 20,000 करोड़ रुपयों की लागत वाली एक महत्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया गया। यह राशि 2015 से 2020 के बीच खर्च किए जाने की योजना है, जबकि मार्च 2017 तक इस पर मात्र 7304.64 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए। अरबों रुपये के निवेश और ‘कठिन परिश्रम' के बावजूद 2,500 किलोमीटर लंबी गंगा आज भी शहरों और कस्बों का प्रतिदिन 480 करोड़ लीटर सीवेज और 760 चिह्नित कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा ढो रही है।

 

गंगा में कचरे का जिक्र आते ही आंखों के सामने सबसे पहले कानपुर का जाजमऊ कस्बा घूम जाता है, जहां 450 के करीब चर्म-शोधन कारखाने हैं। इन्हें यहां से हटाकर किसी अन्य सुविधाजनक स्थान पर ले जाने की बात हुई थी, मगर उत्तर प्रदेश सरकार आज तक ऐसे स्थान की तलाश ही कर रही है, जहां इन कारखानों को ले जाया जाए। अब तक इनमें से महज14 कारखाने ही दूसरी जगहों पर ले जाए गए हैं। 

 

अत्यधिक देरी के कारण ही गंगा सफाई अभियान का यह मामला जनहित याचिका के जरिये उच्चतम न्यायालय से होता हुआ राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी तक पहुंचा। एनजीटी ने संज्ञान लिया कि इतनी बड़ी राशि खर्च हो जाने के बावजूद केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और कई स्थानीय निकायों के प्रयासों का गंगा के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया है और पर्यावरण के लिहाज से यह मसला अब भी गंभीर बना हुआ है। 13 जुलाई को दिए गए 543 पन्नों के एक फैसले में एनजीटी ने गंगा के किनारे से 500 मीटर के अंदर हरिद्वार से लेकर उन्नाव तक कहीं भी कचरा फेंकने पर रोक लगा दी और इस आदेश की अवमानना करने पर 50,000 रुपये तक दंड की सिफारिश की है। अधिकरण ने उत्तर प्रदेश सरकार को भी निर्देश दिया है कि वह छह हफ्तों के अंदर चर्म-शोधक कारखानों को वहां से हटाकर किसी दूसरे सुरक्षित स्थान पर ले जाए, ताकि इन कारखानों से निकलने वाला दूषित जल नदी में न जाने पाए। यह आदेश उत्तर प्रदेश के कानपुर, बंथरा और उन्नाव स्थित प्रदूषणकारी उद्योगों को ध्यान में रखकर दिया गया है। साथ ही उत्तराखंड सरकार से भी कहा गया है कि वह गंगा और उसकी सहायक छोटी नदियों के किनारे होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों के लिए नियमावली बनाकर नदी को दूषित करने वाले आयोजनों पर रोक लगाए। एनजीटी नदी के किनारे से 100 मीटर के अंदर किसी प्रकार के निर्माण को रोकने के पक्ष में भी है। सभी संबद्ध संस्थाओं को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और प्रदूषणरोधी संयंत्र लगाने का काम चार महीनों के अंदर शुरू करने का आदेश भी दिया गया है, ताकि दो वर्षों के अंदर उन्हें पूरा किया जा सके। अपने तमाम निर्देशों पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए अधिकरण ने एक विशेष समिति बनाने का प्रस्ताव भी किया है।

 

वैसे अधिकरण के पीठ ने अधिकारियों के सामने बीती छह फरवरी को भी अपनी नाराजगी जाहिर की थी और उस समय तक की उपलब्धियों को जनता की गाढ़ी कमाई की बर्बादी कहा था। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का नाम लेते हुए और दूसरी तमाम संस्थाओं को इंगित करते हुए पीठ का कहना था कि किसी ने अपना काम नहीं किया। अगर किया होता, तो उन्हें यहां आने की जरूरत ही नहीं पड़ती। सभी लोग कहते हैं कि गंगा पर बहुत काम हुआ है, मगर सच तो यह है कि वह एक भी बूंद साफ नहीं हुई। 

 

इस योजना की एक समीक्षा केंद्र सरकार ने छह अप्रैल को की थी, और उसके परिणाम बहुत ज्यादा उत्साहवर्द्धक नहीं थे। समीक्षा के निष्कर्षों के अनुसार योजना राशि का अधिकांश भाग बिना खर्च हुए पड़ा था और इसके 2018 तक पूरा होने की संभावना बहुत क्षीण थी। निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के लिए अप्रैल तक आधे सीवेज प्लांट चालू हो जाने चाहिए थे, लेकिन तब तक 118 शहरों व कस्बों का तीन चौथाई अशोधित मल सीधे गंगा में जा रहा था। गंगा को स्वच्छ रखने के लिए सरकार ने जो 1,200 करोड़ रुपये निर्धारित किए थे, उसमें से जनवरी, 2017 तक सिर्फ 133 करोड़ रुपये ही खर्च हुए थे। नदी में जो 480 करोड़ लीटर सीवेज प्रतिदिन सीधे गिर रहा था, उसके शोधन के लिए अर्जित क्षमता मात्र 102 करोड़ लीटर प्रतिदिन थी। नदी के किनारे के 180 घाटों का आधुनिकीकरण होना था, जिसमें से केवल 50 पर ही काम शुरू हुआ था। 118 शवदाह गृहों में से भी सिर्फ 15 में सुधार-कार्य शुरू हुआ, जबकि 31 अन्य शवदाह गृहों का काम शुरू करने के लिए सिर्फ औपचारिकताएं पूरी हो सकी थीं।

 

स्पष्ट है कि यह पूरा अभियान समय से काफी पीछे चल रहा है, और शायद इसी कारण से राष्ट्रीय हरित अधिकरण को इतनी तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। यहीं से अधिकारियों और संबद्ध संस्थाओं की गैर-जवाबदारी का अध्याय भी शुरू होता है। इस प्रकरण में यह भी साफ हुआ कि जिस काम को एक राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में देखा जाना चाहिए था, वह उनकी प्राथमिकता में किस पायदान पर है? गंगा के साथ जनमानस की आस्था जुड़ी हुई है और यह सोचना ही गलत है कि जरूरत पड़ने पर इस अभियान में जनता का सहयोग नहीं मिलेगा। लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इन संस्थाओं पर लोगों को भरोसा नहीं होगा, तो वे कभी आगे नहीं आएंगे। इस योजना में प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत तौर पर रुचि लेने के बावजूद बात का आगे न बढ़ना गंभीर चिंता का विषय है। ऐसा मानना भी उचित नहीं होगा कि गंगा की सफाई एक असंभव काम है। गंगा की स्थिति आज भी उतनी बुरी नहीं है, जितनी ब्रिटेन में 100-150 साल पहले टेम्स नदी की थी या यूरोप में डैन्यूब नदी की हो चली थी। वहां तो नदी के किनारे खड़ा होना तक मुहाल था। मगर वहां की सरकारों ने धैर्यपूर्वक कार्य करके नदी को पर्यटन स्थल में बदल दिया। यह बात अलग है कि उसमें पर्याप्त धन, श्रम और समय के साथ समाज का सहयोग भी पूरा लगा। लिहाजा प्रश्न केवल नीयत का है। अगर नीयत साफ है और श्रम में कोताही नहीं हो, तो अपने यहां भी देर नहीं हुई है। यह तब और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, जब सरकार कहती है कि संसाधनों की कोई कमी नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/blog/latest-blog/story-cleanliness-of-ganges-will-be-clear-interest-1188305.html


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