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न्यूज क्लिपिंग्स् | सूखा और जल संसाधन प्रबंध-- बिभाष

सूखा और जल संसाधन प्रबंध-- बिभाष

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published Published on Apr 6, 2016   modified Modified on Apr 6, 2016
महाराष्ट्र फिर सूखे के चपेट में है. बुंदेलखंड पहले से ही समाचारों में बना हुआ है. खेती और किसानों को लेकर रोज बुरी खबरें आ रही हैं. महाराष्ट्र में पानी की कमी का लगातार तीसरा साल है. बुंदेलखंड में भी सूखे का चौथा साल चल रहा है. खेती बुरी तरह से संकट में है.

दरअसल, पूरा मामला जल और भूमि के कुप्रबंध का है. देश में हर साल कहीं बाढ़, कहीं सूखा और कहीं-कहीं तो एक ही मौसम में बाढ़ और सूखा दोनों आते हैं. गौरतलब है कि यह तस्वीर लगातार बनी हुई है. लगता नहीं कि कुछ गंभीर प्रयत्न किये जा रहे हैं या इससे निपटने की कोई गंभीर योजना भी है.

कामता प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘वॉटर इन दी कमिंग डिकेड्स, पॉलिसी एंड गवर्नेंस इशूज इन इंडिया' में लिखा है कि पानी और गरीबी में सीधा रिश्ता है. गरीबी उन्मूलन में जल प्रबंध की महत्वपूर्ण भूमिका है. जल लघु और सीमांत किसानों तथा बंटाईदार किसानों को उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होता है और गरीबों, भूमिहीनों को रोजगार दिलाने में भी मददगार होता है.

जल हरियाली और खुशहाली दोनों साथ लाता है. कामता ने सीधे तो नहीं कहा, लेकिन उनका आशय सिंचाई के जल से है. नहीं तो देश के कई हिस्से हैं, जहां बाढ़ के कारण भी खेती लगातार प्रभावित होती रहती है. संकटग्रस्त खेती इशारा कर रही है कि हमारी विकास-नीति के केंद्र में पानी नहीं है. हमारी नीति शायद मुआवजा केंद्रित है, तभी तो पी साईनाथ को किताब लिखनी पड़ी- ‘एवरीबडी लव्स ए गुड ड्रॉट'. साईनाथ लिखते हैं कि सूखा-राहत ग्रामीण भारत का सबसे बड़ा विकास उद्योग है.

ब्रह्मा चेल्लानी अपनी पुस्तक, ‘वॉटर, पीस एंड वॉर' के मार्फत राज ठाकरे के उस बयान की ओर इशारा करते हैं, जो उन्होंने उत्तर भारतीयों की गीली होली खेलने पर दिया है. जल एक राजनीतिक हथियार भी बनने के कगार पर है. पानी पर शेखर कपूर पिछले कई साल से एक फिल्म भी बना रहे हैं.

जल प्रबंध का प्रथम बिंदु है कि जल जहां गिरे उसे वहीं संरक्षित और इस्तेमाल किया जाये. धरती की प्राकृतिक बनावट ऐसी है कि बचा हुआ जल गर्भ में सुरक्षित पड़ा रहेगा या धीरे-धीरे रिसते हुए नदी-नालों में चला जायेगा और बहता हुआ जल दूर-दराज के इलाकों को भी सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करायेगा.

कुछ समय पहले मैं तिरुचिरीपल्ली भ्रमण पर था, मुझे शहर घुमानेवाले व्यक्ति ने कहा कि शहर में पहले 41 तालाब थे, लेकिन अब मात्र एक तालाब बचा है. बाकी सारे तालाबों का अतिक्रमण कर या उन्हें पाट कर रिहायशी कॉलोनियां बना दी गयी हैं. कावेरी नदी में कम जल संबंधी कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच विवाद प्रसिद्ध है. बुंदेलखंड में भी चंदेरी शासकों ने जल प्रबंध में तालाबों के महत्व को ध्यान में रखते हुए बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण कराया था.

लेकिन ज्यादातर तालाब गायब हो गये हैं या उनका अतिक्रमण जारी है. अनुपम मिश्र की प्रसिद्ध किताब ‘अब भी खरे हैं तालाब' इस संदर्भ में उल्लेखनीय है. सेंट्रल वॉटर कमीशन की रिपोर्ट ‘वॉटर एंड रिलेटेड स्टैटिस्टिक्स-2015' के अनुसार, तालाबों द्वारा शुद्ध सिंचित भूमि 2000-01 में 24.66 लाख हेक्टेयर थी, जो 2011-12 में घट कर 19.37 लाख हेक्टेयर रह गयी. इसका अर्थ है कि तालाबों द्वारा सिंचाई के संसाधन में गिरावट आयी है. तालाबों के नष्ट होने से एक तरफ जल संचयन कम हुआ, दूसरी तरफ नदियों-नालों में पानी का बहाव अनियंत्रित हुआ.

तालाब बहते पानी को साधते हैं, जिससे नदी-नालों में जानेवाला पानी गंदला न होकर साफ होता है यानी मिट्टी का क्षरण नहीं हो पाता और नदी-नालों में पानी का बहाव नियंत्रित होता है, जिससे बाढ़ विभीषक नहीं हो पाते. जमीन पर गिरनेवाले बारिश के पानी को वैज्ञानिक ढंग से न साध पाने के कारण बाढ़ नियंत्रण खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है. यह खर्च जहां प्रथम योजना में ₹13.2 हजार करोड़ रुपये था, ग्यारहवीं येाजना में बढ़ कर ₹17,130.20 करोड़ हो गया. इस धन को अच्छी तरह से उपयोग में लाया जा सकता था, अगर विभिन्न क्षेत्रों में जल प्रवाह को रोकने तथा संचयन के लिए तालाबों का संरक्षण और निर्माण योजनाबद्ध तरीके से किया गया होता.

जल प्रबंध का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है पेड़. पेड़ बादल खींचते हैं और अपनी जड़ों द्वारा पानी के बहाव को भी नियंत्रित करते हैं. लेकिन पिछले कई दशकों से वन उजाड़ने की दर बढ़ती गयी है.

डिफॉरेस्टेशन जहां एक ओर बारिश को प्रभावित करता है, दूसरी तरफ जल तथा वायु द्वारा भूमि का क्षरण बढ़ाता है. भारत सरकार के पोर्टल data.gov.in पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 1997 से 2007 के बीच वन का क्षेत्रफल 65.96 मिलियन हेक्टेयर से बढ़ कर मात्र 69.09 मिलियन हेक्टेयर तक ही पहुंच सका. आज जरूरत है वनीकरण के दर को तेजी से बढ़ाना. ऑन-फॉर्म वनीकरण किसानों को अतिरिक्त आय दे सकता है, खास कर यदि फलदार पेड़ लगाये जायें तो.

बेहतर जल प्रबंध के लिए लोगों की सहभागिता भी जरूरी है. तमिलनाडु में जल पंचायत की बहुत पुरानी परंपरा रही है. यूनेस्को ने इस पर एक रिपोर्ट ‘वॉटर यूजर्स एसोशिएशन फॉर सस्टेनेबल डेवेलपमेंट- एक्सपीरिएंस फ्रॉम दी इरीगेशन सेक्टर, तमिलनाडु, इंडिया' तैयार की है. मुसीबत का सामना अकेले नहीं आपसी सहयोग और सहकार से हो सकता है. यूनेस्को की इस रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश की गयी है.

ऐसा नहीं कि इस ओर सरकारों का ध्यान न हो, किंतु गंभीर और समन्वयकारी क्रियान्वयन के अभाव में जल प्रबंध समुचित ढंग से नहीं हो पा रहा है. लोगों को संगठित करने का काम सिर्फ सरकार का नहीं है. विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग उद्देश्य के लिए बीते वर्षों में कई गैरसरकारी संस्थाएं बनी हैं, लेकिन इनमें ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने का ही काम कर रही हैं.
ये संस्थाएं जल प्रबंध के क्षेत्र में लोगों को संगठित कर लोगों की उत्पादक क्षमता को बढ़ाने का काम कर सकती हैं.

इससे ग्रामीण क्षेत्र में वित्त के अवशोषण की क्षमता भी बढ़ेगी. यदि उद्योगों को अपनी प्रगति चाहिए, तो उन्हें कृषि में भी कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के अंतर्गत जल प्रबंध संसाधनों पर खर्च करना चाहिए. कृषि क्षेत्र में प्रगति से जीडीपी विकास आसान हो जायेगा, जिसका फायदा सबको मिलेगा.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/749414.html


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