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न्यूज क्लिपिंग्स् | हमने क्या खोया और क्या पाया? - दे‍विंदर शर्मा

हमने क्या खोया और क्या पाया? - दे‍विंदर शर्मा

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published Published on Nov 19, 2014   modified Modified on Nov 19, 2014
चंद हफ्तों पहले की ही बात है। जैसे ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आए, शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने महत्व की चेतना से भर गए थे। उन्हें लगता था कि नई सरकार में वे अहम भूमिका निभाएंगे और शायद उन्हें गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री का पद भी मिल जाए। तभी राकांपा ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा कर दी और शिवसेना का गणित बिगड़ गया। अब वह भाजपा से 'बार्गेनिंग" करने की स्थिति में नहीं थी। उसे विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा।

आप सोच रहे होंगे कि मैं यहां महाराष्ट्र की राजनीति की बात क्यों कर रहा हूं। लेकिन वास्तव में, यहां मैं 'बार्गेनिंग" के महत्व को रेखांकित करना चाहता हूं। मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत द्वारा अमेरिका के साथ खाद्य सुरक्षा पर समझौता कर लेने के बाद देश में इतने उत्साह का माहौल क्यों है। हम अखबारों में पढ़ रहे हैं कि व्यापार सरलीकरण समझौते पर हस्ताक्षर करने को लेकर निर्मित हुआ गतिरोध अब समाप्त हो चुका है और भारत और अमेरिका दोनों ही कह रहे हैं कि भारतीय किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करने के मसले पर निर्मित मतभेद की स्थिति को अब 'सफलतापूर्वक" समाप्त कर दिया गया है।

सबसे पहले तो यही समझने की कोशिश करते हैं कि हमने वास्तव में क्या पाया है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि हम खुश हैं कि हमने भारत के हितों को ध्यान में रखते हुए डब्ल्यूटीओ में खाद्य सुरक्षा के मसले पर अमेरिका से अपने मतभेदों को सुलझा लिया है। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे 10-11 दिसंबर को होने वाली डब्ल्यूटीओ महापरिषद की बैठक से पहले इस संबंध में कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं कर पाएंगी।

यदि भारत और अमेरिका का यह द्विपक्षीय अनुबंध महापरिषद द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो इससे व्यापार सरलीकरण समझौते का रास्ता साफ हो जाएगा, जिसका लक्ष्य जटिल कस्टम प्रक्रियाओं को सरल बनाना, लागतों को घटाना और देशभर में माल-ढुलाई के लिए जरूरी प्रशासनिक परिवर्तन करना (और इस तरह आयातों को त्वरित और सरल बनाना) है। अमीर विकसित देशों का हित इसी में है और यही कारण था कि वे भारत की खाद्य सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दरकिनार करने का भरसक प्रयास कर रहे थे। यदि दो टूक शब्दों में कहें तो व्यापार सरलीकरण समझौते के बाद अरबों डॉलर के जिस कारोबार की उम्मीद की जा सकती है, उस पर अब तक लगी रोक हट गई है। प्रशासनिक औपचारिकताएं पूरी होते ही संभवत: वर्ष 2015 के मध्य तक व्यापार सरलीकरण समझौता अस्तित्व में आ जाएगा।

इन मायनों में केवल इतना ही हुआ है कि भारत अपने 60 करोड़ किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य प्रदान करने और लगभग 84 करोड़ गरीबों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की जिस गंभीर समस्या का स्थायी समाधान चाहता था, उसे फिलवक्त स्थगित कर दिया गया है। इसका मतलब यही है कि महाराष्ट्र में शिवसेना की तरह भारत ने भी अब अंतरराष्ट्रीय व्यापार मंच पर 'बार्गेन" करने की क्षमता गंवा दी है। हमने देखा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय किस तरह से डब्ल्यूटीओ में निर्मित गतिरोध का हल खोजने के लिए बेचैन हो रहा था। लेकिन अगर व्यापार सरलीकरण समझौता अस्तित्व में आ गया, तो भारत खाद्य सबसिडियों की सुरक्षा को लेकर अपने रवैये को बरकरार नहीं रख पाएगा।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इस मुद्दे पर भारत ने अमेरिका के प्रति जिस तरह का ठोस रवैया दिखाया, उसका कोई महत्व नहीं है। आखिरकार, हम अपनी खाद्य सबसिडी की नीति को लेकर वर्ष 2013 में प्रदान की गई चार वर्षों की अवधि को कोई स्थायी समाधान निकलने तक अनिश्चितकाल तक बढ़ाने में सफल हो गए हैं। इसका यह मतलब है कि डब्ल्यूटीओ भले ही किसानों को दस प्रतिशत से अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य न देने का आग्रह करे, भारत अपने हितों के मद्देनजर इसका स्वयं निर्धारण करना जारी रख सकता है। इसका यह भी मतलब है कि अमेरिका को अपनी जिद और अकड़ छोड़नी पड़ी है। वहीं उसका दोहरा चरित्र भी उजागर हुआ है, क्योंकि वह खुद अपने किसानों को खासे पैमाने पर सबसिडी मुहैया कराता है, जबकि भारत या दूसरे विकासशील देशों द्वारा ऐसा किए जाने पर उन पर रोक लगाता है। इसका कारण शायद यह है कि आज अमेरिका के बड़े आर्थिक हित इसी में छिपे हैं कि वह कितनी मजबूती से विकासशील देशों में अपने निर्यात को बढ़ावा दे सकता है। डब्ल्यूटीओ के पूर्व निदेशक पास्कल लेमी ने एक दफे कहा भी था कि व्यापार सरलीकरण समझौते के चाहे जो भी व्यावहारिक कारण गिनाए जा रहे हों, लेकिन इसका कुल-जमा मकसद यही है कि विकासशील देशों में आयात के टैरिफ को दस फीसद कम कर दिया जाए।

निर्मला सीतारमण ने स्वीकारा है कि भारत-अमेरिका डील के बाद डब्ल्यूटीओ में निर्मित गतिरोध की स्थिति समाप्त हो जाएगी और व्यापार सरलीकरण समझौते की राह सुगम होगी। लेकिन अमेरिका और यूरोपीय संघ ऐन यही तो चाहते हैं। भारत के लिए तो यही बेहतर होता कि इस संबंध में कोई भी वादा करने से पहले समस्या का स्थायी समाधान खोज लिया जाता। लेकिन अब जब उसके हाथ से सौदेबाजी करने की क्षमता और अवसर जाते रहे हैं तो हो सकता है कि नतीजे भारत के हित में न हों। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी साल 31 जुलाई तक व्यापार सरलीकरण को स्वीकारने के दबाव को नकारते हुए राजनीतिक दृढ़ता और चतुराई दिखाई थी। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भारत पर आरोप लगाया कि वह व्यापार-प्रक्रियाओं में अड़ंगा डालने की कोशिश कर रहा है, लेकिन मोदी उचित ही अपने रुख पर अडिग रहे। उन्होंने यहां तक कह दिया था कि उनके लिए विदेशी मीडिया की सराहना हासिल करने से ज्यादा जरूरी भारत के हितों की रक्षा करना है।

यह मामला सीधे-सीधे भारत द्वारा अपने किसानों को मुहैया कराए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य के सवाल से जुड़ा हुआ है। डब्ल्यूटीओ का कहना है कि भारत को उपज के कुल मूल्य का दस फीसद न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में प्रदान करना चाहिए, लेकिन भारत इसके पक्ष में नहीं है। मिसाल के तौर पर वह चावल पर उपज के कुल मूल्य का 24 प्रतिशत न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करता है। गेहूं के मामले में जरूर वह धीरे-धीरे दस फीसद की सीमा की ओर बढ़ रहा है। भारत द्वारा अपने किसानों का समर्थन करने की इस नीति से अमेरिका के कृषि निर्यातकों के व्यापारिक हितों को क्षति पहुंच रही है। ऐसे लगभग 33 निर्यात परिसंघ अमेरिका पर दबाव बना रहे हैं कि वह भारत को दस प्रतिशत से अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करने की अनुमति न प्रदान करे। उनका मकसद यह है कि अगर आर्थिक हानि के कारण भारत के किसानों का मन खेती से उचट गया तो भारत उनके लिए खाद्य पदार्थों का एक बहुत बड़ा आयातक देश साबित हो सकता है।

(लेखक कृषि और खाद्य नीतियों के विशेषज्ञ हैं। ये उनके निजी विचार हैं)


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