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न्यूज क्लिपिंग्स् | हाथभर उजाला और कोसभर अंधेरा - अनुराग चतुर्वेदी

हाथभर उजाला और कोसभर अंधेरा - अनुराग चतुर्वेदी

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published Published on Jan 21, 2016   modified Modified on Jan 21, 2016
दुनिया में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई को लेकर बेहद चौंकाने वाले आंकड़े आए हैं। कल से शुरू हुए अमीर देशों के सम्मेलन से ऐन पहले जारी किए गए इन आंकड़ों को सही मानें तो आज महज 62 धनकुबेरों के पास दुनिया की आधी आबादी के बराबर धन इकठ्ठा हो गया है। ऑक्सफेम के इस सर्वेक्षण में यह भी कहा गया है कि जल्द ही वह स्थिति निर्मित होने वाली है, जब दुनिया की धनाढ्य एक प्रतिशत आबादी के पास शेष 99 प्रतिशत आबादी से अधिक धन होगा! हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन चलाया गया तो उसका नारा 1 प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत ही था। आर्थिक विषमता की भयावह तस्वीरें हताश कर देने वाली हैं!

स्विट्जरलैंड के दावोस में होने वाले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के पहले जो आंकड़े जारी होते हैं, वे अमीरों के पास जमा अकूत धन के ब्योरे बयां करते हैं। वर्ष 2010 में दुनिया के 388 सर्वाधिक अमीर लोगों के पास दुनिया की आधी आबादी के बराबर दौलत थी, 2014 में यह संख्या घटकर 85 रह गई और अब यह सिर्फ 62 पर सिमट गई है। यानी समावेशी विकास की तमाम थ्योरियों और उन पर अमल के तमाम दावों के बावजूद सच्चाई यही है कि आज अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब होता जा रहा है। पहले दुनिया के सबसे अमीर लोगों को एक हवाई जहाज में समायोजित किया जा सकता था। लेकिन अब तो यह हालत हो गई है कि महज एक लग्जरी

बस में दुनिया की आधी दौलत के मालिकों को आराम से बैठाया जा सकता है!

पूंजी के कुछ हाथों में सिमटकर रह जाने की प्रवृत्ति पर बहस नई नहीं है। सच तो यह है कि पूंजीवादी तंत्र की संरचना में ही हमेशा से गैरबराबरी मौजूद रही है। यहां तक कि पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक अमेरिकी अर्थशास्त्री भी इससे इनकार नहीं करते हैं कि गत दो दशकों में तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में जितनी तेजी से अमीरों की संख्या बढ़ी है, उसके अनुपात में गरीबी घटी नहीं है। यानी बाजारवादी व्यवस्था के लाभ अमीरों को भरपूर मिले हैं, पर गरीबों तक लाभ पहुंच नहीं पाए या पहुंचाए नहीं गए हैं।

फिर एक पेंच यह भी है कि पिछड़े और विकासशील देशों में गरीबी वोटबैंक की राजनीति से भी जुड़ जाती है। तब सियासत का भी मकसद गरीबी हटाने से ज्यादा गरीबी कायम रखना हो जाता है। गरीबी मापने का भी कोई एक तय पैमाना नहीं है और जो हैं, वे हमेशा विवाद का विषय रहते हैं। कई समाजवादी विचारक तो गरीबी रेखा के बजाय अमीरी रेखा स्थापित करने की वकालत करते हैं। वे चाहते हैं कि आय की एक सीमारेखा तय की जाए, लेकिन हमारे संविधान में ही 'संपत्ति का अधिकार" दिया गया है। इसके पीछे दिए गए तर्क भी अपने स्थान पर जायज हैं। अर्थशास्त्र की भाषा में पूंजी निवेशक को साहसी कहा जाता है, क्योंकि अगर उसके सामने मुनाफा कमाने की गुंजाइश होती है तो घाटा उठाने का खतरा भी होता है। इसके बरक्स गरीब या मध्यवर्गी उसमें अपने लिए नौकरी की संभावना भर देखता है। नफे और नुकसान की संभावनाएं एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं। पर कहीं ऐसा तो नहीं कि मौजूदा पूंजी-व्यवस्था अपने घाटे को न्यूनतम और मुनाफे को अधिकतम करने का हुनर अच्छे-से समझ गई हो?

ऑक्सफेम के आंकड़े पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निहित नीतिगत व्यवस्था और उससे जुड़े बदलावों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। कॉर्पोरेट में उत्पादन की इकाई व्यक्ति है। इसमें जहां-जहां वृद्धि बढ़ी है, गैरबराबरी में भी इजाफा हुआ है, क्योंकि गैरबराबरी मूलभूत रूप से उसकी संरचना में ही निहित है। उदारीकरण और निजीकरण में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी शामिल है। जल, जमीन, जंगल के मालिकाना हक बदल रहे हैं। ऐसे में कई किसान और ग्रामीणजन भी जमीन से जुड़ने की जगह सर्विस सेक्टर से जुड़ने में ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। पूंजी तंत्र में पेशागत बदलाव गरीब और सीमांत के तबके को करने पड़ रहे हैं। गांव छोड़कर किसान शहरों में जा रहा है। गांव में उसके पास परंपरागत काम-धंधे थे, लेकिन शहरों में तो उसे केवल शहरी गरीब के रूप में पहचाना जाता है।

इस व्यवस्था का जीवन-दर्शन आखिर क्या है? आपके पास जितना है, उससे और ज्यादा पाओ! जहां आप पहुंच चुके हैं, उससे और ऊपर पहुंचो! यह एक अनवरत होड़ है। हर क्षेत्र में शीर्ष पर बैठे लोग तंत्र को अपनी मर्जी के अनुसार संचालित करते हैं। शिक्षा, राजनीति, पूंजी, मीडिया, सब उनके इशारे पर संचालित होते हैं। दुनिया की तरह भारत में भी धनाढ्यों का एक बहुत छोटा वर्ग संसाधनों का दोहन कर तमाम साधनों और पूंजी पर काबिज होता जा रहा है।

विषमता दुनिया में हमेशा से रही है, आज दिक्कत यह है कि इसने एक संस्थागत रूप ले लिया है। रंगभेद, भाषा, लैंगिक विभेद, जाति, संपत्ति, सैन्य शक्ति, ये सभी विषमता के संस्थागत रूप बनते जा रहे हैं। भारत में जाति-व्यवस्था जन्म से ही गैरबराबरी का अहसास कराती है। भूख व सामाजिक अपमान से भारत का समाज समान रूप से त्रस्त है। सामाजिक बराबरी को आर्थिक दर्शन से जोड़े बिना इसका हल नहीं किया जा सकता। लेकिन जो हो रहा है, वह इससे ठीक उलट है। राज्यसत्ता अपने लोककल्याणकारी स्वरूप को तिलांजलि देने पर आमादा है। वह बाजार के साथ मिलकर काम करने को तत्पर है। साधुभाषा में इसे 'प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप" का नाम दिया जाता है। खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार आमजन के अस्तित्व से जुड़े मसले हैं, लेकिन आज राज्यसत्ता की प्राथमिकताओं में ये नहीं हैं। इसके स्थान पर विकास की जो अवधारणा काम कर रही है, वह पूंजी-संग्रह की उस प्रवृत्ति को ही बढ़ावा देगी, जो कि आर्थिक विषमता के मूल में है।

तकनीक की मदद से हाल में कुछ ऐसे चमत्कार हुए हैं, जो पूंजी का निर्माण तो कर ही रहे हैं, इनसे कॉर्पोरेट का परंपरागत ढांचा भी बदल रहा है। फेसबुक अपने पर्सनल कंटेंट को पब्लिश और शेयर करने वाला सबसे बड़ा आभासी मंच बन गया है, जबकि उसके पास कोई मॉडरेटर वाली संपादकीय व्यवस्था नहीं है। विभिन्न् एप्प हैं, जो मोबाइल पर अनेकानेक सुविधाएं मुहैया करा रहे हैं। ई-कॉमर्स ने बाजार के चेहरे को बदलकर रख दिया है। पूंजी-निर्माण इससे कहीं तेजी से होगा और गैरबराबरी अपनी जगह पर बनी रहेगी।

पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में साम्यवादी रूस का विघटन हुआ और चीन बाजारवादी व्यवस्था की ओर बढ़ चला। ऐसा वह अपनी कार्यक्षम आबादी के शोषण और सस्ती मजदूरी के कारण ही कर पाया। औपनिवेशिक पराधीनता से मुक्त हुए देश भी आज भूमंडलीकरण की चपेट में हैं। उन्होंने महापूंजी, महाविकास, असंख्या इच्छाओं वाले बाजारवादी मॉडल को सहर्ष अपना लिया है। एक तरह की विकल्पहीनता या शरणागति की स्थिति पूरी दुनिया में व्याप्त है। ऑक्सफेम के आंकड़े महज एक रोग के लक्षण हैं। और सनद रहे कि रोग निरंतर बढ़ता ही जा रहा है!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व 'महानगर" (मुंबई) के पूर्व संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 


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