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न्यूज क्लिपिंग्स् | हिंसा की संस्कृति पर लगे रोक-- प्रो. उज्ज्वल के चौधरी

हिंसा की संस्कृति पर लगे रोक-- प्रो. उज्ज्वल के चौधरी

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published Published on Jul 17, 2018   modified Modified on Jul 17, 2018
लिंचिंग यानी बेकाबू भीड़ के हाथों लोगों की हत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. हालांकि यह एक सार्वजनिक अपराध है पर सरकार मौन है. इसकी एक बानगी इसी बात से मिल जाती है कि इसे अभी तक आइपीसी के तहत एक अलग अपराध के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया है. इसलिए, इसके बारे में सारी जानकारी मीडिया में आयी खबरों और विभिन्न रिपोर्टों में दिये तथ्यों पर आधारित होती है, यानी कोई भी सरकारी आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते हैं.


लाखों-करोड़ों फोन में व्हाॅट्सएप के जरिये अफवाहें फैल रही हैं. प्रशासन की चेतावनी हर जरूरतमंद तक नहीं पहुंच सकती है. वेब पोर्टल ‘इंडियास्पेंड' के अनुसार, 2010 से 2017 तक गाय से संबंधित 60 हिंसक घटनाओं में 25 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी थी. इनमें से 97 प्रतिशत हिंसक घटनाएं मोदी सरकार के बनने के बाद घटित हुई हैं और इनमें मारे गये 84 प्रतिशत लोग मुस्लिम थे. ‘ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' की जुलाई 2017 में जारी रिपोर्ट में माना गया कि हिंसक भीड़ के कुल मामलों में गाय से संबंधित हिंसक घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है.


बीते तीन महीने में लिंचिंग से मौत के 33 मामले आ चुके हैं. ज्यादातर को बच्चा चोरी के शक में अंजाम दिया गया. वे कौन लोग हैं, जो गरीब वंचित तबके को बच्चा चोर गिरोह बताकर स्थानीय लोगों को उनकी जान का दुश्मन बना रहे हैं?
कभी गौ रक्षा के नाम पर, तो कभी बच्चा चोरी की अफवाह पर किसी को घेर लेना, मार देना, आसान होता जा रहा है. पहले लगता था कि सिर्फ सांप्रदायिक भीड़ है, मगर अब कई प्रकार की भीड़ सामने है.
गोकशी के शक में लिंचिंग के कई मामलों में स्थानीय रूप से संगठित गौ-संरक्षण समूह के लोग भीड़ का नेतृत्व करते हैं और पीड़ितों के खिलाफ हिंसात्मक बनाने के लिए भीड़ को उकसाते हैं. सोशल मीडिया पर नफरत भरे झूठे संदेश फैलाकर भीड़ इकट्ठा कर वारदात को अंजाम देते हैं.


पुलिस निष्क्रिय बनी तमाशा देखती रहती है और अधिकतर मामलों में तो पीड़ितों के खिलाफ ही गौ-संरक्षण कानूनों के तहत आपराधिक मामला दर्ज कर देती है. व्हाॅट्सएप से फैल रही बच्चा चोरी की अफवाह ने मई 2018 से अब तक 29 लोगों की जान ली है. क्या आपको अब भी लगता है कि यह भीड़ एक मिथ्या है, झूठ है?


पिछले चार वर्षों में बढ़ती लिंचिंग की घटनाएं स्थानीय स्तर पर हिंदुत्ववादी संगठनों और समर्थित राज्य-सत्ता से संबंधित रही हैं. दलितों को हजारों सालों से जातीय हिंसा का सामना करना पड़ता रहा है. बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, खैरलांजी आदि भारतीय इतिहास के सबसे काले स्थान हैं, जहां कट्टरवादी गिरोहों द्वारा नरसंहार किया गया था.


अल्पसंख्यकों की लिंचिंग काफी हद तक राजनीति से प्रेरित होती है और राजनीतिक दलों द्वारा उत्पन्न की गयी भीड़ इस हिंसा में शामिल रहती है. इस साल लिंचिंग की शुरुआत तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और असम जैसे राज्यों में हुई है, जो सांप्रदायिक लिंचिंग के सबूत देती है. विडंबना है कि इस हिंसा को आला हुक्मरान सिर्फ एक अपराध मानते हैं.


ऐसे समाज में लोकतंत्र संभव नहीं हो सकता, जो सामूहिक हिंसा को मानदंड के रूप में स्वीकार करता है. फासीवाद लोकतंत्र का विरोध करता है, क्योंकि यह चुने हुए सामाजिक और राजनीतिक समूहों के खिलाफ राजनीतिक उपकरण के रूप में हिंसा का उपयोग करता है. यदि समाज में हिंसा की सामूहिक स्वीकृति से फासीवाद को आसान बना दिया जाता है, तो इसकी सफलता हिंसा को वैध बनाती है.


केंद्र की मौजूदा सरकार की राजनीतिक सफलताओं के बाद से देश में न केवल लोकतांत्रिक संस्थानों की प्रतिष्ठा में गिरावट आयी है, बल्कि लोगों की नैतिकता में भी गिरावट दिख रही है.


आज लोग दूसरों के प्रति बहुत जल्द असंवेदनशील हो जाते हैं और फिर वे लिंचिंग के मौके पर निर्दयी बन जाते हैं. एक बात साफ है कि गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग एक सोची-समझी योजना का नतीजा है. मोदी सरकार आने के बाद से ही हिंदुत्ववादी शक्तियों को बहुत शह मिल रही है.


फेसबुक और व्हाॅट्सएप का आपसी भाईचारे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. पुलिस अब कहती है कि व्हाॅट्सएप पर गायों की रक्तमय छवियों ने दादरी लिंचिंग की घटना को उकसाया. एजेंसियां कितनी आसानी से यह बात कह देती हैं.


मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और मेरठ में हिंसा संभवतः वीडियो क्लिप और मैसेजों के माध्यम से घृणा और नफरत का प्रसार करने की वजह से ही संभव हुई थी. आज भी यह जारी है और इन पर कोई लगाम लगानेवाला नहीं है. क्या अब तक यूपी या राजस्थान या फिर केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा व्हाॅट्सएप पर प्रसारित इन छवियों और संदेशों के स्रोत से संबंधित कोई भी कार्रवाई की गयी है?


राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को सार्वजनिक हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए विशेष प्रयास करने चाहिए. जन अभियान चलाये जाने चाहिए. युवाओं और छात्रों को हिंसा की इस संस्कृति के खिलाफ सजग किया जाना चाहिए. लिंचिंग में शामिल समूहों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए.


गौ-संरक्षण कानून, जो हिंसक गिरोहों के लिए पोषक का कार्य करते हैं, उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए. पुलिस और न्यायालयों को अपराधियों के खिलाफ जल्द-से-जल्द एक स्पष्ट स्टैंड लेना चाहिए. यदि आज सुधारात्मक उपाय नहीं किये गये, तो समाज में लिंचिंग को स्वीकृति मिल जायेगी और बाद में इससे लड़ना मुश्किल हो जायेगा.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1183486.html


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