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न्यूज क्लिपिंग्स् | हीरा-मन हाट हेराया-- अश्विनी भटनागर

हीरा-मन हाट हेराया-- अश्विनी भटनागर

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published Published on Jul 17, 2016   modified Modified on Jul 17, 2016
पच्चीस साल पहले बाजार खुला था। प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह की उदार नीति के तहत यह नई संरचना बनी थी। उससे पहले हाट लगा करती थी। हर हफ्ते या फिर बड़ी जगहों में हफ्ते में दो बार। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पड़ोस में पंसारी था या फेरीवाले। हफ्ते की हाट में खरीद-फरोख्त तो होती ही थी, साथ में गपशप भी हो जाती थी। विक्रेता ग्राहक को जानता था और ग्राहक बेचने वाले की जरूरतों से परिचित था। मोलभाव आपसदारी में हो जाता था, वास्तविक जरूरत के हिसाब से। इस हाट में अपना ताव नहीं था और न ही उपभोक्ता बादशाह था। दोनों एक ही धरातल पर बैठे थे। हमजोली थे, गरीब थे और घर कैसे चलता है, समझते थे। आपस में गरीबी बांट कर संतोष कर लेते थे।

1991 में हाट बाजार में तब्दील हो गया। उत्पादकों में स्पर्धा होने लगी, क्योंकि बाजार ने उपभोक्ता को अपने यहां का बादशाह (कंज्यूमर इस किंग) घोषित कर दिया। बादशाह की हर इच्छा की पूर्ति सर्वोपरि थी। उत्पादक बाजारू हो गया। कम दामों से लुभा कर ज्यादा माल बेचने और मुनाफा कमाने लगा। इसके चलते हम एक की जगह छह कमीजें खरीदने लगे; पित्जा, बर्गर पसंद करने लगे और नई गाड़ियों से सड़कें भरने लगे। हर तरफ रौनक फैल गई और जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था तेजी से बदली, नए पैसे के नए जोश ने हमें भर दिया। बहुत तेजी से हाट से बाजार बने, फिर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और फिर मॉल और लक्जरी मॉल। हम इनमें धंसने लगे। अंतरराष्ट्रीय कंपनियों की लंबी पगारें कमा-कमा कर हम मॉल कल्चर से घुल-मिल गए। जनरेशन नेक्स्ट हो गए।

वास्तव में पिछले पच्चीस सालों में भारत जितना बदला है, उतना शायद कभी नहीं बदला। बहुत कम समय में उसकी सोच, विश्वास, जीवन शैली, सामाजिक तौर-तरीकों और वैश्विक दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव आया है। 1991 से पहले का भारत अभाव का भारत था- धन का अभाव, डालडा से लेकर मिट्टी तेल का अभाव, आगे बढ़ने के मौकों का अभाव, आत्मविश्वास का अभाव, यहां तक कि दिशाबोध का अभाव। हर दरवाजा बंद था, अर्थव्यवस्था की तरह। सिर्फ एक खिड़की खुली थी- समाजवादी सोच और प्रक्रिया की। इसी खिड़की से कभी-कभी हम झांक कर सर्वहारा क्रांति के सपने बुन लिया करते थे। गरीबी से निपटने के नए तरीके सोच कर प्रसन्न हो लिया करते थे।

1991 ने हमारी अभाव की सोच की लाश, जिसको हम लगभग एक हजार साल से ढो रहे थे, का अंतिम संस्कार चुपचाप कर दिया। बोझ कम होते ही हम खुले आकाश में विचरण करने के लिए आजाद हो गए। वास्तव में नरसिंह राव आर्थिक सुधारवाद लेकर आए थे, पर उससे ज्यादा दूरगामी परिवर्तन वे हमारी जीवन-शैली और सोच में दे गए। उदारीकरण से पहले हम बेचारे थे। उसके बाद खुद मुख्तार हो गए। नए वक्त में योग्यता का वाजिब इनाम मिलने लगा और तेज तर्रार युवक देश में ही नहीं, दुनिया में भी अपनी काबिलियत का झंडा गाड़ने लगे। कमी का खटका खत्म हो गया था। कमा कर गरीबी हटाने की जगह हम संपन्नता बांटने में जुट गए।

यह एकदम नया अनुभव था। जनरेशन नेक्स्ट ही नहीं, 1991 से पहले की पीढ़ी भी इस से चौंधिया गई। दो खाट बिछाने वाले डबल बेड पर मोटा गद्दा डालने लगे। ज्यादा कमाओ, ज्यादा खर्चो, स्पर्धा करो, आगे बढ़ो और मौज करो- वर्क हार्ड ऐंड पार्टी हार्डर- का मंत्र शाश्वत हो गया था। अद्भुत बदलाव था उनके और नई पीढ़ी के लिए। दोनों खुश थे। देश का आत्मविश्वास पूरी तरह जाग गया था। समाज में खुशहाली का अहसास और नवयुवकों में नित नई प्रगति का जोश भरना 1991 की सबसे बड़ी उपलब्धि है। यह बहुत हद तक पच्चीस साल बाद भी कयाम है। आज जो पच्चीस साल के हैं वे समझते हैं कि जब तक वे अपने को संपन्न नहीं करेंगे, समाज संपन्न नहीं होगा, यानी लोगों से समाज बनता है और फिर उससे और संपन्नता उत्पन्न होती है, न कि इसके उलट तरीके से।

‘मैं पहले'- मी फस्ट- नब्बे के दशक की देन है। अक्सर हम ‘आई, मी, माइसेल्फ' जनरेशन को हिराकत की नजर से देखते थे और अपनी अभाव भरी मनोदशा के तराजू में पसेरी के भाव तोल देते थे। दुख-दर्द ही शायद हम उस समय बांट सकते थे। खुशहाली और उपलब्धियां जब थीं ही नहीं, तो उन्हें बांटना हमें कैसे आता?

1991 ने हमें व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक उपलब्धि हासिल करने के अवसर दिए और उनको बांटना भी सिखाया। इस दशक के पहले ही कुछ सालों में छोटी-छोटी सुस्त पड़ी कंपनियां घर से प्रदेश, देश और फिर अंतर्देशीय हो गर्इं और भारत की प्रतिभा के बूते संपन्नता के कीर्तिमान स्थापित किए। इनफोसिस के जनक नारायण मूर्ति के अनुसार धन अर्जन व्यक्तिगत से जयादा सामाजिक लाभ के लिए जरूरी है। वास्तव में 1991 से पहले पैसे की लालसा हेय दृष्टि से देखी जाती थी। उसके बाद पैसा स्वाभाविक और जरूरी लक्ष्य हो गया।
आर्थिक उदारता के चलते हम सांस्कृतिक और सामाजिक तौर से भी उदारवादी हो गए। नब्बे में नौकरियां खुलीं और महिलाएं अप्रत्याशित संख्या में इनसे जुड़ीं। वे हर तरह का काम करने के लिए उत्सुक थीं। इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं एक साथ आर्थिक प्रक्रिया में हिस्सेदार बनी हों। विकसित देशों में भी महिलाओं की भागीदारी धीरे-धीरे ही बढ़ी थी, अचानक नहीं। महिला भागीदारी और सशक्तिकरण की ओर यह एक ऐतिहासिक कदम था।

इसने बहुत हद तक रूढ़िवादी समाज पर नकेल कसी। आर्थिक स्वतंत्रता से महिलाओं को अपनी तरह से जीवन जीने का हौसला मिला। इससे संयुक्त परिवार की परंपरा, जो पहले ही चरमरा रही थी, पूरी तरह से ध्वस्त हो गई। छोटे परिवार नए फ्लैटों में शिफ्ट हो गए और साथ-साथ वीकेंड मानाने लगे। इन इएमआइ पर लिए फ्लैटों में रहने वाले पति-पत्नी के बीच रिश्ते इतने बदले कि कल तक पति से दो कदम पीछे चलने वाली पत्नी हमकदम ही नहीं, घर का केंद्र बिंदु बन गई। बच्चों का घरों में दबदबा इस कदर हो गया कि वे हर विज्ञापन के केंद्र हो गए। माना जाने लगा कि बच्चे ही मां-बाप की खरीद-फरोख्त तय करने लगे हैं। अच्छा रहन-सहन और अच्छी शिक्षा ने सक्षम भारत की दूसरी पीढ़ी तैयार की।

आज उदारीकरण को पच्चीस साल हो गए हैं। अब हम पलट कर देख सकते हैं कि हम कहां थे और कहां आ गए हैं। दरअसल, हम आज जिन बातों पर इतराते हैं या फिर जिस जीवन शैली/ सोच को स्वाभाविक समझते हैं, वह 1991 की जद्दोजहद का ही नतीजा है। हां, अब भी देश का एक बड़ा हिस्सा गरीब और लाचार है और बाजारीकरण के बहुत से दुष्परिणाम भी हैं, पर इनके चलते भी यह नहीं नकारा जा सकता कि हमारे सामाजिक और आर्थिक इतिहास में 1991 एक निर्णायक मोड़ था, जिसने एक ही झटके में भारत को बदल दिया।


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