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सूचना का अधिकार | आरटीआइ के सहारे विस्थापन के खिलाफ जंग- पुष्यमित्र

आरटीआइ के सहारे विस्थापन के खिलाफ जंग- पुष्यमित्र

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published Published on Oct 4, 2013   modified Modified on Jun 4, 2014

आरटीआइ के जरिये बदलाव की कई कहानियां हमने देखी सुनी है और उनके जरिये इस अधिकार की ताकत को महसूस किया है. मगर इसके जरिये झारखंड में विस्थापन के खिलाफ जो जंग लड़ी गयी हैं, उसकी कोई मिसाल नहीं है. सदियों से विस्थापन का क्रूरतम शिकार रहे झारखंड के आदिवासियों के लिए आरटीआइ एक नयी ताकत बन कर उभरा है. चाहे अर्सेलर मित्तल के स्टील प्लांट का मसला हो या नगड़ी का भूमि विवाद इस कानून के जरिये फैसला लोगों के हक में हुआ और लोगों में नये आत्मविश्वास का संचार हुआ है.

स्टील जाइंट की खिलाफत
सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला झारखंड में विस्थापन के खिलाफ जंग का एक प्रमुख चेहरा हैं. उन्होंने ही सबसे पहले आर्सेलर मित्तल के स्टील प्लांट के खिलाफ विस्थापन विरोधी मुहिम के दौरान आरटीआइ का सहारा लिया था. वे बताती हैं कि आरटीआइ की ताकत से तो वे पहले से ही वाकिफ थीं और हमेशा इसका इस्तेमाल करती रही थीं. गुमला के कई प्रखंडों में उनके आरटीआई के जरिये मस्टर रोल में हेराफेरी उजागर हुआ था. इसी सिलसिले में वे एक बार कामडारा बीडीओ के दफ्तर गयी थीं. वहां उन्होंने एक ऐसा नक्शा देखा जो कामडारा प्रखंड के नक्शे से कुछ अलग था. उन्होंने इस बावत कामडारा बीडीओ से पूछा तो उन्होंने बताया कि यह नक्शा उस जमीन का है जिसे आर्सेलर मित्तल कंपनी स्टील प्लांट के लिए एक्वायर करने वाली है. यह जमीन तत्कालीन रांची और अभी खूंटी जिले के रनिया, तोरपा, कर्रा और गुमला जिले के कामडारा प्रखंड के कुछ गांवों का था. इस पर उन्होंने आरटीआइ के जरिये पूछा कि कंपनी को कौन सी जमीन दी जा रही है? कहां दी जा रही है? कितनी जमीन दी जा रही है? यह खेती की जमीन है या बंजर? जमीन का खाता और खेसरा नंबर बताया जाये.

निकाली एमओयू की कॉपी
जवाब आया तो जाहिर था कि किसानों की जमीन मित्ल की कंपनी को दी जाने वाली थी. वे उस जवाब को लेकर ग्रामीणों के पास गयीं, लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है और वे इस जमीन को किसी सूरत में नहीं छोड़ेंगे. इस तरह मित्तल के स्टील प्लांट के खिलाफ जंग की शुरुआत हुई. इसके बाद आरटीआइ के जरिये अगली जानकारी मांगी गयी कि सरकार ने मित्तल के साथ क्या समझौता किया है. फिर उद्योग विभाग से एमओयू की कॉपी निकाली गयी. उनके जवाब से जाहिर हुआ कि सरकार कंपनी से एमओयू कर रही है जबकि जमीन गांव वालों की है. इस सवाल पर संघर्ष और तेज हो गया.

सरकार ने बेच दी सड़कें और नदियां
आंदोलन से नाराज होकर सरकार ने एक नयी तरकीब निकाली और प्रभावित गांवों में बंजर जमीन, जल स्रोत, सड़कें और गैरमजरुआ जमीन को मित्तल के हाथों बेच दिया और 8 करोड़ रुपये बतौर एडवांस ले लिये. सरकार समझ रही थी कि इससे गांव के लोग दबाव में आ जायेंगे और आंदोलन खत्म हो जायेगा. मगर आंदोलनकारियों ने फिर आरटीआइ के जरिये इस सौदे का विवरण नक्शा समेत मांगा और विवरण मिलने के बाद सवाल उठाया कि पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में जब ग्राम सभा को सर्वोपरि माना जाता है और उसकी मरजी के बगैर कोई काम नहीं हो सकता तो सरकार कैसे गांव की जमीन बेच सकती है?

मित्तल ने घुटने टेके
इतने दबाव के बाद आर्सेलर मित्तल ने घुटने टेक दिये और जमीन का सौदा रद्द करके सरकार से एडवांस वापस करने की मांग करने लगी. हालांकि इस आंदोलन के पीछे लोगों के संगठित होकर सड़क पर उतरने की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. मगर जिस तरह कदम-कदम पर आरटीआई के जरिये मिली सूचना ने लोगों को उत्साहित करने और अपनी बात तर्कपूर्ण तरीके से सरकार के सामने रखने में मदद की उसकी कोई मिसाल नहीं है.

नगड़ी में भी आरटीआइ कारगर
हाल ही में रांची के नगड़ी में भूमि अधिग्रहण के मसले पर हुए आंदोलन में भी आरटीआइ की जबरदस्त भूमिका रही. नगड़ी में किसानों की जमीन पर आइआइएम और लॉ यूनिवर्सिटी स्थापित करने की योजना थी. इसके लिए सरकार वहां के 158 रैयतों की जमीन अधिग्रहण करना चाह रही थी. सरकार का कहना था कि यह जमीन सरकारी है और उन्होंने 1957-58 में इस जमीन को किसानों से खरीदकर अधिग्रहित कर लिया था.

रैयतों ने नहीं लिया था पैसा
इस पर आरटीआइ के जरिये सूचना मांगी गयी कि अधिग्रहित जमीन का ब्योरा और उसकी रसीद की प्रति दी जाये. इसके बाद सूचना मिली कि 158 में से 128 रैयतों ने जमीन का पैसा लेने से इनकार कर दिया था और वह पैसा आज भी सरकारी खजाने में जमा है. फिर पूछा गया कि भूमि अधिग्रहण के कई चरण होते हैं, उन चरणों तक लोगों की सहमति के बगैर पहुंचा नहीं जा सकता. तो कहा गया कि जमीन अधिग्रहण की अर्जेसी थी, अत: इन कदमों को उठाना संभव नहीं था. बताया गया कि जमीन बिरसा विवि के बीज ग्राम के लिए अधिग्रहीत किया गया है.

आइआइएम ने फैसला बदला
इस पर आंदोलनकारियों ने बिरसा विवि में आरटीआइ डाल कर पूछा कि वे इस जमीन का क्या उपयोग कर रहे हैं तो जवाब मिला जब जमीन का पैसा गांव वालों ने नहीं लिया और जमीन एक्वायर नहीं हुई तो उसका उपयोग कैसे करते. इन तथ्यों के सहारे महीनों जबरदस्त आंदोलन चला और अब आइआइएम ने किसी दूसरे स्थान पर संस्थान के लिए जमीन ले ली है. इस संबंध में अदालत की ओर से ग्रामीणों के हक में फैसला नहीं आया, मगर संभवत: नैतिकता के आधार पर आइआइएम ने वहां संस्थान स्थापित करने का फैसला बदल दिया.


http://www.prabhatkhabar.com/news/42165-story.html


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