नई दिल्ली। दिल्ली में पिछले साल 16 दिसंबर को हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद आलोचनाओं के घेरे में आई पुलिस ने महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हेल्पलाइन नंबर शुरू करने समेत कई कदम उठाए हैं लेकिन महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कमी आने के बजाए इनमें बढोतरी देखने को मिली है। पिछले 13 वर्षों में इस वर्ष बलात्कार के मामले सर्वाधिक हुए , लेकिन दिल्ली पुलिस का...
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एक साल में कितना बदला देश- मनीषा प्रियम
एक साल पहले दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की एक ऐसी घटना हुई थी, जिसने देश-दुनिया को झकझोर दिया था। तब से अब तक यह देश कई राजनीतिक-सामाजिक बदलावों का गवाह रहा है। ‘बिटिया’ के बलिदान ने ऐसा मंच तैयार किया, जहां देश की राजनीति और उसके निजी एवं बाह्य अंतर्विरोधों पर खुलकर बहस हुई है। वह एक अमानवीय और हृदय विदारक घटना थी। लेकिन उस घटना ने देश में परिवर्तन...
More »दलित-प्रश्न और मीडिया- उर्मिलेश
जनसत्ता 25 अक्तूबर, 2013 : ‘नो वन किल्ड जेसिका’, सिर्फ एक शानदार अखबारी शीर्षक नहीं था। अपराध-दंड प्रक्रिया में व्याप्त विसंगतियों को उद्घाटित कर वह एक जन-अभियान का नारा बन गया, जिसने अंतत: कामयाबी हासिल की। लेकिन मध्य बिहार के लक्ष्मणपुर-बाथे में मारे गए दलित-उत्पीड़ित तबके के अट्ठावन लोगों के बारे में लंबे इंतजार के बाद नौ अक्तूबर को पटना उच्च न्यायालय का जो फैसला आया, उसके बाद ऐसी आवाजें...
More »विकास की आड़ में- अजेय कुमार
जनसत्ता 30 सितंबर, 2013 : यह महज संयोग है कि जिस दिन यानी तेरह सितंबर को सोलह दिसंबर के सामूहिक बलात्कार कांड के चारों दोषियों को अदालत द्वारा मौत की सजा सुनाई जा रही थी, भाजपा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित कर रही थी। मोदी के राज में ही गुजरात का जनसंहार और हजारों महिलाओं और बालिकाओं की इज्जत से...
More »न्याय का नखलिस्तान- रुचिरा गुप्ता
जनसत्ता 18 सितंबर, 2013 : भारत में अगर किसी का पुलिस या न्यायपालिका से कभी पाला पड़ा हो, तो वह अच्छी तरह से जानता होगा कि यह अनुभव कितना क्षोभ और आक्रोश से भर देने वाला होता है। भारतीय न्यायपालिका और पुलिस तंत्र में कई तरह की खामियां हैं। उनमें से कुछ को रेखांकित किया जा सकता है। मसलन, पुलिस अधिकारियों के बीच जवाबदेही का अभाव, खासतौर से महिलाओं और दलितों...
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