देश-दुनिया की तमाम सरकारों और नीति-निर्माताओं के लिए आज यह याद करने का दिन है कि जनसंख्या और उससे जुड़े मसलों का हल उनकी विकास-नीतियों के मूल में होना चाहिए। भारतीय संदर्भ में देखें, तो 1920 के दशक तक हमारे हिस्से में अत्यधिक जन्म-दर और मृत्यु-दर रही है, पर उसके बाद से इसमें लगातार गिरावट देखी गई। जन्म-दर, मृत्यु-दर और जनसंख्या वृद्धि का परस्पर संबंध किसी देश की जनसंख्या का...
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जहां यह जीत अतीत से जुड़ती है- महेश रंगराजन
साल 1971 के बाद पहली बार कोई प्रधानमंत्री न सिर्फ अपने दम पर दूसरी बार सत्ता में लौटा है, बल्कि बहुमत में भी उसने इजाफा किया है। भारतीय जनता पार्टी इस बार 300 के पार जाकर ठहरी है, जबकि पिछले चुनाव में उसे 282 सीटें मिली थीं। इस एकतरफा जीत का संदेश किसी एक पार्टी या सत्तारूढ़ गठबंधन की विजय तक सीमित नहीं है। यह दरअसल राजनीतिक नेतृत्व के रूप,...
More »राजनीतिक एजेंडे में पर्यावरण क्यों नहीं-- नवरोज के दुबाश
भारत में पर्यावरण की हालत काफी भयावह है। इससे जुड़े आंकडे़ परेशान करने वाले हैं। मसलन, देश की हर पांच में से तीन नदियां प्रदूषित हैं। ज्यादातर ठोस कचरों का निस्तारण नहीं किया जाता; यहां तक कि देश के समृद्ध हिस्सों में भी नहीं। मुंबई में 90 फीसदी, तो दिल्ली में 48 फीसदी कचरों का निस्तारण नहीं हो पाता। फिर, देश की तीन-चौथाई आबादी उन हिस्सों में बसती है, जहां...
More »खुद की अदालत में मीडिया-- मृणाल पांडे
हमारे साहित्य या मीडिया में खुद अपने भीतरी जीवन की सच्चाई जिक्री तौर से ज्यादा, फिक्री तौर से कम आती है. मसलन दर्शक-पाठक भली तरह जान चुके हैं कि मीडिया के भीतर कैसी मानवीय व्यवस्थाएं हैं, खबरें कैसे जमा या ब्रेक होती हैं. पत्रकारों के बीच एक्सक्लूसिव खबर देने के लिए कैसी तगड़ी स्पर्धा होती है. लेकिन, पिछले दो दशकों में उपन्यासों, कहानियों या मीडिया पर लिखे जानेवाले काॅलमों में...
More »पर्यावरण की चिंता जरूरी-- जगदीश रत्तनानी
विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) लगभग आधी सदी पुरानी संस्था है. यह खुद को सार्वजनिक-निजी सहयोग करनेवाले अंतरराष्ट्रीय संगठन के रूप में पेश करती है और वैश्विक आर्थिकी सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है. अपने सफर की शुरुआत में इस मंच ने विश्व की एक हजार प्रमुख कंपनियों के लिए सदस्यता की एक व्यवस्था बनायी थी. स्वाभाविक है कि इसने अपने सालों के सफर में भविष्य पर विचार करने के लिए महंगी...
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