किसी भी दौर में सरकार की ताकत से लड़ना मजाक नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि सरकार और उसके विरोध के साथ ही लोकतंत्र का विकास हुआ है और भविष्य में भी होता रहेगा। इस वजह से सरकार की मुखालफत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 1971, 1975 और 1977 में थी। क्या वाकई पूरी दुनिया में ऐसी कोई शख्सियत थी, जिसने कानून की अदालत में और...
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न राजनीति सुधरेगी, न पुलिस --- विभूति नारायण राय
भारतीय पुलिस सेवा में तीन दशकों से अधिक के अपने सफर के दौरान मुझे जिस बात से सबसे अधिक आश्चर्य होता था, वह थी भारतीय जनता के मन मे पुलिस सुधारों को लेकर पसरी हुई उदासीनता। यह देखकर मन उदास हो जाता था कि जिस संस्था से औसत भारतीय नागरिक का सबसे अधिक वास्ता पड़ता है, उसे बेहतर बनाने के लिए किसी तरह का कोई आंदोलन नहीं होता। अधिक से...
More »युवा मन को समझने की चुनौती-- आशुतोष चतुर्वेदी
पिछले दिनों सीबीआइ ने हरियाणा के गुरुग्राम में दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले एक छात्र की हत्या के आरोप में स्कूल के ही 11वीं के एक छात्र की गिरफ्तारी कर पूरे देश को चौंका दिया. कुछ दिनों पहले दूसरी कक्षा के छात्र की स्कूल में हुई हत्या ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था. इसके लेकर धरने प्रदर्शन हुए, कैंडल मार्च हुए और हरियाणा पुलिस ने आनन-फानन...
More »संस्थाओं को सुदृढ़ करने का वक्त - डॉ. भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्रियों में इस बात को लेकर सहमति बन रही है कि आर्थिक विकास की असल कंुजी देश की संस्थाओं में निहित है। सस्ते श्रम से आर्थिक विकास हासिल होना जरूरी नहीं है। जापान में श्रम महंगा है, फिर भी आर्थिक विकास में वह देश आगे है। आवश्यक नहीं कि प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयले अथवा तेल के जरिए भी विकास हासिल हो ही जाए। सिंगापुर में प्राकृतिक संसाधन शून्यप्राय हैं, फिर...
More »अनुच्छेद 35 ए का दंश -- भीम सिंह
अनुच्छेद-35 ए जम्मू-कश्मीर में भारतीय नागरिकों पर एक दोमुंही तलवार है जिसे आज तक देश के बुद्धिजीवियों और राजनीतिकों के संज्ञान में नहीं लाया गया। यह जम्मू-कश्मीर के लोगों के खिलाफ एक साजिश थी, जिसकी शुरुआत हुई 14 मई 1954 को, जब भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने एक अध्यादेश जारी करके अनुच्छेद-35 के साथ ‘ए' जोड़ दिया। भारतीय संविधान के अध्याय-3 में भारतीय नागरिकों को जो मानवाधिकार दिए...
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