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उलटी प्राथमिकताओं की पटरी

इससे भला कौन इनकार कर सकता है कि बुलेट ट्रेन समय की मांग है। लेकिन जिस देश में 40 हजार करोड़ रुपए की राशि सुरक्षा-उपायों पर खर्च न हो पाने के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों लोग रेल दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हों उसी देश में एक रेलवे मार्ग पर बुलेट ट्रेन दौड़ाने के लिए 1.10 लाख करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं! सवाल धनराशि का नहीं, प्राथमिकताओं का है।...

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आंदोलनों की निरंतरता के दस्तावेज-- शतरुद्र प्रकाश

किसी भी दौर में सरकार की ताकत से लड़ना मजाक नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि सरकार और उसके विरोध के साथ ही लोकतंत्र का विकास हुआ है और भविष्य में भी होता रहेगा। इस वजह से सरकार की मुखालफत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 1971, 1975 और 1977 में थी। क्या वाकई पूरी दुनिया में ऐसी कोई शख्सियत थी, जिसने कानून की अदालत में और...

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बुनियादी ढांचा सुधरने से थमेंगी कीमतें-- रमेश कुमार दुबे

बंपर उत्पादन और तमाम सरकारी उपायों के बावजूद महंगाई दर में बढ़ोतरी से साबित होता है कि वितरण के मोर्चे पर अभी बहुत कुछ करना है। पिछले साढ़े तीन वर्षों में मोदी सरकार ने ग्रामीण सड़कों, सिंचाई, फसल बीमा और बिजली आपूर्ति के क्षेत्र में अहम सुधार किया है लेकिन भंडारण-विपणन ढांचे में सुधार अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है। यही कारण है कि कुछ महीने पहले तक...

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धुंध के लिए सिर्फ किसान जिम्मेवार नहीं-- संजीव पांडेय

पूरे उत्तर भारत को घनी धुंध ने घेर रखा है और इसने लोगों का जीना दूभर कर दिया है। इसकी चपेट में पड़ोसी पाकिस्तान भी है। गांव के मुकाबले शहरों में रहने वालों की मुश्किलें ज्यादा बढ़ी हैं। सड़कों पर निकलना मुश्किल है। रेलगाड़ियां घंटों विलंब से चल रही हैं। दूसरी तरफ दिल्ली से उत्तर भारत के कई राज्यों की तरफ जाने वाली सड़कों पर कई बड़ी दुर्घटनाएं हो चुकी...

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औपनिवेशिक दंश झेलती जनजातियां-- प्रमोद मीणा

वर्ष 1871 में औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार ने भारत की कुछ खानाबदोश और अर्द्ध खानाबदोश जनजातियों को आपराधिक जनजाति अधिनियम (क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट) पारित करके जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया। मुख्यधारा के समाजों से दूर रहने वाली इन जनजातियों को पुश्तैनी रूप से अपराधी मानते हुए उन्हें गैर-जमानती अपराध के दायरे में ला दिया गया। इन जनजातीय समुदायों में थे बावरिया, पारधी, कंजर, सांसी, बंजारा, गरासिया, सहरिया आदि। ये...

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