पुराने समय में ‘कागद की लेखी' और ‘आंखिन की देखी' के बीच अकसर एक झगड़ा रहता था. कागद की कोई लिखाई जिंदगी की सच्चाई से मेल ना खाये, तो फिर कबीर सरीखा कोई ‘मति का धीर' पोथी में समाये ज्ञान से इनकार भी कर देता था. यह अघट तो आधुनिक समय में घटा कि प्रत्यक्ष को मानुष पर और मानुष को आवेगों पर निर्भर मान कर शंका के काबिल मान...
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किसान आत्महत्या का अधूरा सच- देविन्दर शर्मा
गुलाबी तस्वीर पेश करने की तमाम कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के किसान आत्महत्या संबंधी 2014 के आंकड़े कृषि के स्याह पक्ष को ही सामने लाते हैं। वर्ष 2014 में 12,360 किसानों की आत्महत्या का सीधा अर्थ है कि हर 42 मिनट में देश में एक किसान ने आत्महत्या की। हालांकि एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़े को दो श्रेणियों-किसानों एवं कृषि मजदूरों, में बांटने का साहसिक...
More »गांव और गरीब की चिंता कब?- अश्विनी महाजन
भारत सरकार द्वारा वर्ष 2011 में हुई जनगणना के आर्थिक, सामाजिक गणना के आंकड़े हाल ही में प्रकाशित किये गये हैं. ये आंकड़े भारत में गरीबों की वर्तमान दुर्दशा की कहानी बयान कर रहे हैं. चिंता का विषय केवल यह नहीं है कि गरीबों की हालत खराब है, बल्कि वह पहले से तेज गति से बदतर होती जा रही है. गौरतलब है कि अभी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ही ये...
More »किसानों को चाहिए सुरक्षा कवच- बी के चतुर्वेदी
विकट कृषि संकट के चलते किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में हमें इस समस्या पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। किसानों के लिए किसी भी तरह के सुरक्षा तंत्र की रूपरेखा उनकी जरूरतों और समस्याओं की समझ पर आधारित होनी चाहिए। ऐसे किसी तंत्र के लिए विभिन्न पहलुओं पर गौर करना जरूरी है। इसमें से पहला यह कि छोटी जोत की खेती के लिए बड़े पैमाने पर...
More »कारपोरेट खेती से किसका भला होगा- सुभाषचंद्र कुशवाहा
मानो फसलों की बर्बादी और किसानों की आत्महत्या ही काफी न हो, अब एसोचैम ने शोध प्रस्तुत किया है कि कॉरपोरेट और ग्रुप फार्मिंग ही छोटे किसानों को आपदाओं से बचाएगी। एसोचैम किसानों को राहत देने के पक्ष में नहीं है। उसकी मंशा कंपनियों को राहत देने की है। उसके मुताबिक, किसानों की जमीन औने-पौने दामों में कॉरपोरेट को सौंप देनी चाहिए। उसका मानना है कि कृषि ऋण लगातार बढ़ाने...
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