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उन पांच दिनों के नाम-- जयंती रंगनाथन

बात 1993 के अक्तूबर की है। पत्रकारों का एक दल लातूर में आए भूकंप का जायजा लेने मुंबई से वहां जा रहा था। उस दल में मैं भी थी। मुंबई से पुणे होते हुए दस घंटे की उस बस यात्रा के बाद जब सब थके-हारे चाय और खाने की तलाश में दो-चार हो रहे थे, मैं ढूंढ़ रही थी दवाई की दुकान। दुकान तो मिल गई, पर जब उससे पूछा,...

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'भारत' वाला बजट, इंडिया वाला नहीं-- संदीप बामजई

उपकार फिल्म का एक गाना है- मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरा मोती... आम बजट 2018-19 पूरी तरह से इस गाने के सच को पूरा करनेवाला लगता है. यह बजट कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शाता है. यानी यह बजट 'भारत' को ज्यादा तरजीह देनेवाला बजट है, 'इंडिया' को कम. ग्रामीण भारत के लिए, गरीब परिवारों के स्वास्थ्य के लिए, राष्ट्रीय राजमार्गों के...

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टीवी चर्चाओं के अर्धसत्य और झूठ - मृणाल पाण्‍डे

शीत सत्र समाप्त हुआ और विपक्ष द्वारा ठप की गई संसद की कार्यसूची में दर्ज तीन तलाक का मुद्दा राज्यसभा में लटका रह गया। हो-हल्ले के चलते लगातार स्थगित किए जाने को मजबूर सदन में मुल्तवी हुई यह बहस, संसद के बाहर खबरिया चैनलों पर आयोजित हुई और दर्शकों का ध्यान खींचती रही। बहस-विमर्श से किसी को खास शिकायत नहीं, लेकिन हर दल, तथाकथित सिविल सोसायटी और बौद्धिक क्षेत्रों के...

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बाल मजदूरी की जड़ें--- देवेन्द्र जोशी

भारत में बालश्रम एक समस्या तो है लेकिन विडंबना यह है कि यहां पहले से ही यह मान कर चला जाता है कि बच्चे इसलिए मजदूरी करते हैं कि इससे उनके परिवार का खर्च चलता है। यह तर्क अपने आप में इसलिए छलावा है कि इसको सच मान लेने का मतलब तो यह होगा कि सबसे गरीब परिवार के प्रत्येक बच्चे को स्कूल की पढ़ाई छोड़ कर काम पर लग...

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सुप्रीम कोर्ट में अभूतपूर्व हलचल-- आशुतोष चतुर्वेदी

किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब भी कोई संकट की घड़ी आती है, तो उस दौरान उसके प्रशासनिक प्रतिष्ठानों की एक तरह से परीक्षा होती है. लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होता है कि ये प्रतिष्ठान कितने गंभीर झटकों को आत्मसात कर सकते हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं अदालतें और उसमें भी सर्वोपरि है सुप्रीम कोर्ट. समय-समय पर अन्य सत्ता प्रतिष्ठानों पर भले ही सवाल उठते रहे हों, लेकिन न्यायपालिका...

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