संधिकाल की बेला है, न जाने कितनी लंबी खिंचेगी. यह नखलिस्तानों की तलाश नहीं, मरीचिकाओं में भटकने का दौर है. हकीकत कुछ और, मगर बताया जाता है कुछ और. हर टैक्स मूलतः जनता से धन छीन कर सत्ता की तिजोरी भरता है. सरकार अगर जनोन्मुखी न हो, तो जनता का इससे प्रत्यक्ष रूप से कोई भला नहीं होता, खासकर तब, जब उसे उसकी आय या मुनाफे पर नहीं, बल्कि वस्तुओं...
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शाक-मांस के बीच मुल्क- नासिरुद्दीन
हमारे मुल्क के खान-पान का मिजाज मांसाहार नहीं है या इस मुल्क की बड़ी आबादी शाकाहारी है- यह भ्रम है. मिथक है. तथ्य से परे है. फिर भी ऐसा क्यों है कि हमारा मानस इसे मानने को तैयार नहीं होता है. हमें यह क्यों लगता है कि यह मुल्क असलियत में शाकाहारी है और कुछ समूह या समुदाय ही मांसाहारी हैं. सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के जून में आये...
More »देश में कुपोषण की कड़िया--- श्रीशचंद्र मिश्र
ओड़िशा के जाजपुर जिले के एक छोटे-से आदिवासी बहुल गांव में इस साल मार्च से जून के बीच कुपोषण से बारह बच्चों की मौत हो गई। पौने तीन सौ की आबादी वाले इस गांव में पांच से बारह साल के तिरासी बच्चों में एक तिहाई से ज्यादा का कुपोषित होना एक बड़े खतरे की तरफ संकेत करता है। यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। असल स्थिति क्या है, इसका...
More »जातीय संरचना, अहिंसा और अंबेडकर-- अजमेर सिंह काजल
आधुनिक काल में ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब आंबेडकर ने शासन, सत्ता और संस्कृति के विभिन्न केंद्रों में मौजूद जातीय सैद्धांतिकी को चुनौती देकर ऐतिहासिक कार्य किया। सामाजिक समानता का जो अहसास बाबा साहेब आंबेडकर को संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में पढ़ते हुए हुआ, वह हमारे लोकजीवन में कहीं नहीं था। इसलिए शिक्षा प्राप्ति के बाद भारत वापस आने पर उन्होंने इसी लोक जीवन में व्याप्त सदियों पुरानी बीमारियों...
More »फसल का नहीं खेती का बीमा हो!-- बिभाष
खेती की जब बात आती है, तो सभी आकाश की ओर ताकते हैं. अगर माॅनसून का समय और उसकी मात्रा उचित या पर्याप्त नहीं है, तो राजनीति की गति और दिशा दोनों बदल जाती है. बजट से लेकर बाजार तक सब आकाश ही निहारते हैं. कृषि में जोखिम प्रबंध बहुत ही कमजोर है. हरित क्रांति का चाहे जिस तरह से विश्लेषण या आलोचना करें, लेकिन उसने हमारी कृषि को तात्कालिक...
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