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कहीं पत्रकारिता की शक्ल अचानक बदलने तो नहीं लगी...?-- सुधीर जैन

पत्रकारिता पर क्या वाकई विश्वसनीयता का संकट आ गया है...? यह सवाल विद्वान लोग उठाते थे, अब जनसाधारण में ये बातें होने लगी हैं। पहले और अब में एक फर्क यह भी है कि पहले अपनी विश्वसनीयता के कारण पत्रकारिता जनता पर जितना असर डालती थी, अब उतना नहीं डाल पाती। अब तो मीडिया का पाठक या दर्शक हाल के हाल उसकी ख़बरों और खयालों पर टीका-टिप्पणी करने लगा है।...

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‘भारत में आजादी’ का अर्थ-- रविभूषण

आजादी की लड़ाई में आजादी के स्वरूप और उसकी अवधारणा को लेकर बीसवीं सदी के बीस के दशक के मध्य से जो विचार-मंथन आरंभ हुआ था, वह 1947 की अधूरी राजनीतिक आजादी या सत्ता-हस्तांतरण के कुछ वर्ष बाद थम गया. रुक-रुक कर वास्तविक और मुकम्मल आजादी की बातें हुईं. ‘संपूर्ण क्रांति' का आंदोलन भी हुआ, पर कुछ समय बाद ही न उसमें गति रही, न शक्ति, और न इच्छाशक्ति ही...

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पत्रकारिता का सुंदरकांड- नासिरुद्दीन

पत्रकारिता के बारे में समालोचना करते वक्त डर क्यों लगता है? क्या इसलिए कि लोकतंत्र के खंभों को पाक दामन माना जाता है? या इसलिए कि ये खंभे काफी ताकत रखते और समय-समय पर ताकत दिखाते भी हैं? अब यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि चौथा खंभा, लोकतंत्र का भार उठाये है या वही लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है. चौथा खंभा यानी पत्रकारिता यानी अखबार, न्यूज...

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हिंसा झेलतीं महिलाओं का मौन- आकार पटेल

आठ मार्च पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर मुझे महिलाओं के विषय में कुछ लिखना उपयुक्त लगा, जो हमारी आबादी में सर्वाधिक कमजोर तथा भेदभाव की शिकार रही हैं. अपने भाषण में जेएनयू का बचाव करते हुए उसके छात्र नेता कन्हैया कुमार ने दो ऐसी बातें कहीं, जो मुझे मालूम न थीं. पहली, यह एक ऐसा विश्वविद्यालय है, जिसके छात्र...

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खुली बहस के परे कोई भी विषय नहीं - मृणाल पांडे

ऋग्वेद (8, 2, 24) में मनुष्य देवताओं से पूछते हैं कि सत्य का साक्षात करने वाले ऋषि तो रहे नहीं, आने वाले समय में उनकी जगह कौन लेगा? देवताओं का जवाब है, आने वाले काल में समान स्तर के अनेक ज्ञानी जब बैठकर अपने-अपने ऊह (तर्क) और अपोह (प्रतितर्क) से हर विषय पर बहस को आगे बढ़ाएंगे तो उनके समवेत तर्क-वितर्क ही अंतिम सच का निर्णय करेंगे। एक अग्रगामी लोकतंत्र...

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