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माना कि अच्छे दिन अभी नहीं आए हैं...- तवलीन सिंह

इस लेख को लिखते हुए मुझे दुख होता है, लेकिन लिखना जरूरी है, क्योंकि जिस तरह अरुण शौरी ने पिछले सप्ताह मोदी सरकार की आलोचना की, वह मुझे निजी तौर पर बुरा लगा। मैंने जब से पत्रकारिता की दुनिया में पहला कदम रखा, तब से मैं शौरी साहिब का सम्मान करती आई हूं। संयोग से मुझे अखबार में पहली नौकरी इमरजेंसी लगने से एक महीना पहले मिली थी। उस दौर...

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दिल्ली-मुंबई के करोड़पति किसान- राजीव रंजन झा

बीते मंगलवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह कह कर एक राजनीतिक सनसनी पैदा कर दी, कि सरकार कृषि आय के नाम पर कर योग्य आय छिपाये जाने की जांच कर रही है और अगर इस मामले में ऐसा करनेवालों के नाम सामने आते हैं तो राजनीतिक उत्पीड़न का आरोप न लगाया जाये़ उन्होंने संकेत दिया कि इस संबंध में 'कई महत्वपूर्ण व्यक्ति' संलिप्त हो सकते हैं, जिनकी...

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सपने दुलारने की बाकी कसक-- अलका कौशिक

औरतों के नाम एक दिन की रिवायत हर साल मज़बूत होती जा रही है। कभी स्कूल-कॉलेज के दिनों में यह दिन सिर्फ एक तारीख भर था जिसे रट लेना होता था आधे-एक नंबर की गारंटी की खातिर! फिर बात आगे बढ़ी, कुछ खेल-तमाशे जुड़ने लगे। लिपस्टिक-बिंदी पर छूट, पार्लरों में आफर, ड्रैस पर पेशकश और साड़ी के साथ कुछ इनाम... खर्रामा-खर्रामा महिला दिवस मनाने का चलन बढ़ता रहा। और इसी...

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मांग के बहाने जाटों की ये कैसी मनमानी! - संजय गुप्त

हरियाणा में आरक्षण की मांग को लेकर जाट प्रदर्शनकारियों ने जैसा खौफनाक कहर ढाया और आंदोलन के नाम पर जातीय दंगे सरीखे जो हालात उत्पन्न् किए, उसकी जितनी भर्त्सना की जाए, कम है। आरक्षण आंदोलन का ऐसा भयावह हश्र समाज और राजनीतिक दलों के साथ-साथ नीति-नियंताओं को आगाह करने वाला भी है। आरक्षण की जाटों की मांग नई नहीं है। वे 1995 से ही आरक्षण की मांग करते चले आ...

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आज के समय में इन आवाजों को भी सुनें

बीसवीं सदी के अंतिम दशक से भारत में जो विकासराग आरंभ हुआ, उसकी कुछ अस्फुट ध्वनियां राजीव गांधी के कार्यकाल में 1986 से सुनी जा सकती हैं. अंतिम दशक में जो विकास-दृष्टि, नीति बनी, वह 25 वर्ष में कहीं अधिक शक्तिशाली हो चुकी है. इस राग ने सभी रागों को सुला दिया है. आकर्षक, लुभावने मुहावरों और शब्दजाल का जो सिलसिला डेढ़ वर्ष से जारी है, उसने हमारी चिंतन-प्रक्रिया को...

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