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न्यूनतम मजदूरी का सवाल-- मनींद्र नाथ ठाकुर

बढ़ती महंगाई को देखते हुए देश में क्या न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाया जाना चाहिए? यह सवाल इसलिए भी उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि दिल्ली और ओड़िशा के सरकारों ने इसमें महत्वपूर्ण पहल करने का निर्णय लिया है? पूंजीवादी विकास के तीन आधार हैं और उनमें एक संतुलन बनाये रखने का काम राज्य के जिम्मे होता है. पहला आधार है पूंजी, जिसके मालिकों को इस बात के लिए प्रेरित करना...

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न्याय की प्रतीक्षा में आदिवासी!- सी आर मांझी

भारतीय संविधान के आधार पर आदिवासियों की पहचान को अनुसूचित जनजातियों के नाम से जाना जाता है. परंतु यह सर्वज्ञात है कि भारत की आजादी के पूर्व और आजादी के बाद भी व्यावहारिक दृष्टिकोण से आदिवासी समुदाय में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है. यह समाज अपने स्तर से अपनी असली आदिवासी की पहचान एवं परिचय को संजोकर आदिम परंपरागत निष्ठा, निश्छलता, आदर्श एवं धार्मिक आस्था को बनाये रखा...

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चुनौतियों से जूझता मीडिया-- आशुतोष चतुर्वेदी

मीडिया के खिलाफ एकतरफा फैसला सुनाने वाले आपको बहुत से लोग मिल जायेंगे. मीडिया पर टीका-टिप्पणी करना एक फैशन-सा हो गया है, लेकिन हम सब के लिए यह जानना जरूरी है कि मीडियाकर्मी कितनी कठिन परिस्थितियों में अपने काम को अंजाम देते हैं. पिछले दिनों एक व्हाट्सएप मैसेज वायरल हुआ- पहले अखबार छप के बिका करते थे, अब बिक के छपा करते हैं. इस संदेश...

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गरीबी में गिरावट संतोषजनक--- अजीत रानाडे

अंतरराष्ट्रीय रूप से सुप्रसिद्ध ब्रूकिंग्स संस्थान की एक रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में गरीबी में नाटकीय गिरावट आयी है. मई 2018 के आकड़े लिये जाएं, तो भारत में घोर दरिद्रता की स्थिति में रहनेवालों की संख्या 7.30 करोड़ है, जबकि नाइजीरिया में ऐसे लोगों की तादाद 8.70 करोड़ है. ऐसा पहली बार हुआ है कि अपनी जनसांख्यिक विशालता के बावजूद भारत में अत्यंत निर्धनों की संख्या विश्व में...

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बंगाल में लोकतंत्र का मखौल-- प्रसेनजीत बोस

पश्चिम बंगाल का मौजूदा पंचायत चुनाव पूरी तरह से लोकतंत्र के साथ घटिया मजाक है. फिलहाल राज्य में पंचायत के पदों की संख्या करीब 48 हजार है. साल 1978 से हर पांच वर्ष पर राज्य में पंचायत के चुनाव हो रहे हैं. उस समय से दो बार- 2003 में वाम मोर्चे की सरकार और 2013 में तृणमूल कांग्रेस की सरकार के तहत- सबसे ज्यादा निर्विरोध उम्मीदवार चुने गये थे....

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