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कहीं पत्रकारिता की शक्ल अचानक बदलने तो नहीं लगी...?-- सुधीर जैन

पत्रकारिता पर क्या वाकई विश्वसनीयता का संकट आ गया है...? यह सवाल विद्वान लोग उठाते थे, अब जनसाधारण में ये बातें होने लगी हैं। पहले और अब में एक फर्क यह भी है कि पहले अपनी विश्वसनीयता के कारण पत्रकारिता जनता पर जितना असर डालती थी, अब उतना नहीं डाल पाती। अब तो मीडिया का पाठक या दर्शक हाल के हाल उसकी ख़बरों और खयालों पर टीका-टिप्पणी करने लगा है।...

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दकियानूसी कैसे हो गई देशभक्ति? - गिरीश्‍वर मिश्र

वैश्वीकरण के दौर में देश और राष्ट्र जैसे शब्द पुराने पड़ते जा रहे हैं। अंग्रेजी का कंट्री शब्द गंवई क्षेत्र की ओर संकेत करता है। नेशन एक अमूर्त विचार है, जिसका स्वरूप उसके मानने वालों के अपने नजरिए पर ही निर्भर करता है। यह भी एक प्रचलित मत है कि नेशनलिज्म का कोई एक अर्थ नहीं होता, वह एक बहुलार्थी शब्द है जिसका उपयोग किसी भी ढंग से किया जा...

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महिला दिवस की सार्थकता- वीना श्रीवास्तव

हमारे देश में पूरे वर्ष हम चाहे कुछ ना करें, लेकिन किसी ‘खास दिवस' पर ढोल जरूर पीटते हैं. हम जिसके लिए खास दिवस मनाते हैं, पूरे वर्ष उसकी धज्जियां ही क्यों ना उड़ाते रहे हों, मगर खास दिन को ‘शो ऑफ' करना नहीं भूलते. ‘फादर्स डे', ‘मदर्स डे' पर मां-पिता को विश करना और पूरे वर्ष उन्हें जली-कटी सुनाना हमारी आदत है. इसी तरह महिला दिवस भी है. हर...

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लोकसभा में महिला सांसदों की गूंज मांगी 'आजादी'

नयी दिल्ली : महिला दिवस के अवसर पर लोकसभा में आज महिला सदस्यों की आवाज कुछ इस तरह से गूंज उठीं, ‘मुझे अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को पैदा करने की चाहिए आजादी ... मंदिरों, दरगाहों में जाने की चाहिए आजादी ... मनमाफिक कपड़े पहनने की चाहिए आजादी ... चाहिए तमाम सामाजिक कुप्रथाओं से आजादी....' अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर आज संसद में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर...

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जातीय विषमता का जहर और आरक्षण की आग - राजकिशोर

हरियाणा और उसके आसपास का बड़ा इलाका जाट समुदाय की आरक्षण की मांग की आग में झुलस गया। इन मांगों का कभी अंत भी नहीं होगा। समानता व सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण की मांगों के पक्ष में कुछ भी तर्क दिए जाएं, लेकिन मुट्ठीभर लोगों का ही भला करने वाले इस तरीके से न तो समानता आने वाली है और न ही समाज में जातियों का जहर मिटने वाला...

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