बीती 30 जनवरी को शहीद पार्क में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की मूर्ति के सामने खड़ा मैं शहीदों की विरासत के बारे में सोच रहा था। शहीदों की स्मृति अंगारे जैसी होती है, जो सुलगती है, सुलगाती भी है। वक्त के साथ इन अंगारों पर राख की परतें जमती जाती हैं। फिर ऐसा वक्त आता है कि ये अंगारे निरापद हो जाते हैं। ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाते हैं,...
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समाज और राजनीति के रिश्तों का संधान- अभय कुमार दुबे
राजनीतिशास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान रजनी कोठारी के जीवन और कृतित्व के बारे में जाने बिना भारतीय राजनीति और समाज के आपसी रिश्तों के बारे जानना नामुमकिन है. इस लिहाज से उनका विमर्श भारतीय राजनीति की एक पूरी किताब की तरह है, जिसे पढ़ना हर समझदार व्यक्ति के लिए अनिवार्य है. 1969 में प्रकाशित अपनी सबसे मशहूर रचना ‘पॉलिटिक्स इन इंडिया' में उन्होंने दावा किया था कि भारतीय समाज के संदर्भ...
More »बीमा विदेशीकरण की बेचैनी क्यों- अरविन्द मोहन
संसद का सत्र खत्म होते ही कई मामलों में अध्यादेश लाना केंद्र सरकार की बेचैनी को तो बताता ही है, हम सबसे इस बात की मांग भी करता है कि हम जानें कि हमारी सरकार किन सवालों पर इतना बेचैन होकर काम कर रही है। हमने देखा है कि देश भर में धर्म के नाम पर संघ परिवार से जुड़े लोगों और संगठनों ने जिस तरह से हंगामा मचाना शुरूकिया...
More »घर में भी नहीं, तो कहां सुरक्षित हैं बेटियां - सभाषिनी सहगल अली
बदायूं का नाम वर्षों तक एक भयानक तस्वीर के साथ जुड़ा रहेगा-एक पेड़ की डाल पर टंगी दो लड़कियों की लाश। पिछड़े वर्ग की दो चचेरी बहनों के साथ हुए बलात्कार और हत्या के आरोपी ही नहीं, लड़कियों के घरवाले की मदद से इन्कार करने वाले पुलिसकर्मी भी उसी जाति के थे, जिस जाति के प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। क्या इसलिए उन्हें किसी का डर नहीं था? काफी हंगामे के बाद...
More »लोक से कटा गंगा-विमर्श -- अनिल चमड़िया
जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: गंगा के बारे में जो धारणा भारतीय जन-मानस के बड़े हिस्से में सचेतन रूप से खड़ी की गई है, वह केवल धार्मिकता से जुड़ी है। वह धार्मिकता भी बेहद एकांगी है। इस पूरी धारणा ने मानवीय जीवन और खास तौर से समाज की सामूहिक चेतना को बुरी तरह से खंडित किया है। इसने प्रकृति के साथ जीवन के रिश्तों को समझने और उसे समृद्ध करने की...
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