हम ही हम हैं सब जगह. हमारे बिना किसी का काम नहीं चलता. न सरकार की सत्ता चलती है और न ही कंपनियों और बैंकों का धंधा. टैक्स से रूप में मिला जनधन ही सरकार की संजीवनी है और लोगों से मिली जमा ही बैंकों का मूलाधार है. लेकिन विचित्र कालिदासी व्यवस्था है कि सभी अपने मूलाधार को ही काटने में जुटे हैं. इसे रोकने के सरंजाम जरूर हैं. लेकिन...
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बैंकों के फंसे कर्ज पर चुप्पी क्यों- देविन्दर शर्मा
हाल में एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट हैरान करने वाली थी। पिछले तीन वित्त वर्षों के दौरान 29 राष्ट्रीयकृत बैंकों ने 1.14 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को न वसूल हो सकने वाले डूबत खाते में डाल दिया। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, 7.32 लाख करोड़ रुपये का ऋण आश्चर्यजनक रूप से सिर्फ दस कंपनियों को दिए गए था। ये रिपोर्टें ऐसे वक्त में आ रही हैं, जब आर्थिक...
More »कमाई के कंगूरे और गरीबी का गर्त- धर्मेन्द्र पाल सिंह
स्विट्जरलैंड के बर्फीले नगर दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक की पूर्व संध्या पर ब्रिटेन की संस्था ऑक्सफाम ने एक रिपोर्ट जारी की, जिससे पूरी दुनिया में हंगामा मच गया। ‘एन इकोनॉमी फॉर दी 1%' नामक इस रिपोर्ट में बताया गया है कि आज महज बासठ खरबपतियों की संपत्ति 17.6 खरब डॉलर (1187.64 खरब रुपए) है, जो विश्व की आधी आबादी की दौलत के बराबर है। एक प्रतिशत अमीरों...
More »हकीकत और विकास के विरोधाभास- आकार पटेल
हम अपने आर्थिक इतिहास के सबसे विचित्र दौर से गुजर रहे हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री ने हाल ही में कहा कि मौजूदा वर्ष में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर करीब नौ फीसदी रहने का अनुमान है. मौजूदा केंद्र सरकार अब तक की अपनी एक मात्र उपलब्धि का हवाला देते हुए यही कहती रही है कि भारत दुनिया की सबसे तेज गति से उभरनेवाली अर्थव्यवस्था है. यदि...
More »चमक-दमक के पीछे छिपी कालिख को पहचानें - धर्मेंद्रपाल सिंह
आम धारणा यह है कि देश के बाहर जाने वाले काले धन का मुख्य स्रोत नेताओं या बड़े सरकारी अफसरों को मिलने वाली रिश्वत, घरेलू व्यापारियों द्वारा इनवॉइस में हेराफेरी से होने वाली दो नंबर की कमाई या हवाला कारोबार से उपजा पैसा है। लेकिन काले धन पर ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी (जीएफई) की ताजा रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह धारणा पुर्जा-पुर्जा होकर बिखर जाती है। जीएफई की हाल माह में...
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