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पर्दे के पीछे, ‘मिशन आत्मनिर्भर’ की कठपुतली बड़ी कंपनियों की उंगलियों पर थिरकने लगे

-इंडिया टूडे, अब केवल दो कंपनियों की मोबाइल सेवा चलती है. हवाई यात्रा से बेबी फूड तक और मक्खन से लेकर म्युचुअल फंड तक बाजार में एकाधिकार जम गए हैं. उपभोक्ताओं के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. मोबाइल फोन पर मई, 2025 की कोई तारीख दिख रही है. नौकरी की चिंता में मुश्किल से सो पाया, वरुण चौंककर जग गया. आत्मनिर्भरता की आवाजों के बीच बाजार पर एकाधिकार या कार्टेल का खतरा मंडरा...

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झारखंड और महाराष्ट्र चुनावों के बाद महाबली नहीं रही मोदी सरकार

झारखंड में लोकसभा की सिर्फ 14 सीटें हैं. इस लिहाज से राष्ट्रीय राजनीति के लिए इस राज्य का महत्व सीमित माना जा सकता है. लेकिन इस राज्य के विधानसभा चुनाव को लेकर जिस तरह की जबर्दस्त दिलचस्पी नजर आई, वह महत्वपूर्ण है. इस राज्य के चुनाव नतीजों के राष्ट्रीय राजनीति के लिए गंभीर मायने हैं. दरअसल, राष्ट्रीय सरकार को लेकर, बीजेपी और नरेंद्र मोदी की जो कल्पना है, उसका नकार पिछले...

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कम नहीं चुनाव आयोग की शक्तियां- नवीन चावला

भारत में जाति पर बहस राजनीतिक परिणामों की एक निर्धारक है। यह वर्ष 2019 के आम चुनाव सहित भारत में तमाम चुनावों की एक रोचक विशिष्टता है। यह ऐसी निर्धारक है कि मतदाताओं के बीच अति लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चुनाव अभियान में अपनी जातिगत पहचान बतानी पड़ती है। उत्तर और केंद्रीय भारत की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को किसी जाति या बिरादरी विशेष के लिए पहचाना जाता है।...

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उदारीकरण के बाद बनीं आर्थिक नीतियों से ग़रीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ती गई- सचिन कुमार जैन

विकास की पूरी बहस आर्थिक विकास के इर्द-गिर्द सीमित हो गई है. आख़िर इस आर्थिक विकास ने हमें एक ऐसी चमक दी है, जो हमारी आंखों में पड़ती है और फिर हमें असमानता दिखाई देना बंद हो जाती है. वर्तमान विकास मिथ्या सकारात्मकता का सबसे ज़्यादा निर्माण करती है. वर्ष 2018 की फोर्ब्स की रिपोर्ट (जो केवल दुनिया के अमीरों के काम, जीवन शैली और कमाई पर अध्ययन-प्रकाशन करती है) के...

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किसानों का मार्च (पार्ट-2): जमीन पर बेकार हैं कृषि नीतियां, मौजूदा सिस्टम में बड़े बदलाव की जरूरत

कृषि-संकट कोई अचानक आ धमका हो ऐसी बात नहीं. जैसा कि नीति आयोग के एक रिपोर्ट में कहा गया है, समस्या की शुरुआत 1991-92 से होती है- इससे पहले अर्थव्यवस्था के खेतिहर और गैर-खेतिहर क्षेत्र समान गति से बढ़ रहे थे. साल 1991-92 के बाद गैर-खेतिहर क्षेत्र ने ऊंची वृद्धि-दर की राह पकड़ी. यह आर्थिक उदारीकरण का दौर था. गैर-खेतिहर क्षेत्र की वृद्धि दर 8 फीसदी के पार पहुंच रही...

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