नवउदारवाद के निजामों ने पिछले ढाई दशकों के दौरान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के उदारवादी मूल्यों को चुनौती दी। बाजार के हाहाकार में सामंती मूल्यों को ही स्थापित करने की कोशिश की गई। स्त्रियों, दलितों सहित अन्य दमित वर्गों को समझाया गया कि बाजार सारी गैरबराबरी मिटा देगा। गुजरात का विकास मॉडल अभी बाजार में भुनाया ही जा रहा था कि कलक्टर साहब के दफ्तर के आगे और सड़कों पर...
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दोहरे मानदंडों का नया नमूना - राजीव सचान
गोवध और गोमांस पर पाबंदी के महाराष्ट्र सरकार के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि राज्य के बाहर से गोमांस लाने, रखने और खाने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। हाईकोर्ट के अनुसार शासन को यह तय करने का अधिकार नहीं कि लोग क्या खाएं-पिएं! हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि गोमांस लाने, रखने और खाने पर रोक...
More »खुली बहस के परे कोई भी विषय नहीं - मृणाल पांडे
ऋग्वेद (8, 2, 24) में मनुष्य देवताओं से पूछते हैं कि सत्य का साक्षात करने वाले ऋषि तो रहे नहीं, आने वाले समय में उनकी जगह कौन लेगा? देवताओं का जवाब है, आने वाले काल में समान स्तर के अनेक ज्ञानी जब बैठकर अपने-अपने ऊह (तर्क) और अपोह (प्रतितर्क) से हर विषय पर बहस को आगे बढ़ाएंगे तो उनके समवेत तर्क-वितर्क ही अंतिम सच का निर्णय करेंगे। एक अग्रगामी लोकतंत्र...
More »दुनिया में देश की साख पर बट्टा क्यों? - मेघनाद देसाई
एक ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'सबका साथ, सबका विकास" की भावना के साथ देश-विदेश में भारत की छवि को चमकाने और देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने तथा उसमें सुधार की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं, तब दूसरी ओर देश में राष्ट्रीय मीडिया के एक बड़े हिस्से और खासकर टीवी चैनलों और कुछ अखबारों में नकारात्मक खबरों को न केवल अत्यधिक महत्व दिया जा रहा...
More »पर्यावरण के नजरिए से आहार- रमेश कुमार दुबे
अगर गोमांस (बीफ) के बढ़ते इस्तेमाल को पर्यावरण की दृष्टि से देखा जाए तो इतना विवाद न हो। गहराई से देखा जाए तो आज जलवायु परितर्वन, वैश्विक तापवृद्धि, भुखमरी, नई-नई बीमारियां प्रत्यक्ष रूप से मांसाहार के बढ़ते चलन से जुड़ी हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) के मुताबिक एक मांस-बर्गर तैयार करने में तीन किलोग्राम कार्बन उत्सर्जित होता है। ऐसे में धरती की रक्षा के लिए मांस की बढ़ती...
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