भारतीय राजनीति में विपक्ष लगातार कमजोर होता जा रहा है। इसे हमें राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व के हिसाब से ही नहीं, इन दलों के सामाजिक आधार के हिसाब से भी देखना होगा। विपक्ष में रहने की आदत और चाहत समाज के आगे बढ़े हुए तबकों में तो कमजोर हुई ही है, गरीबों और पिछड़ों आदि को भी लगातार विपक्ष में बने रहना उनके अस्तित्व के लिए मुश्किल लगता है।...
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पूर्वोत्तर की भीतरी और बाहरी विडंबनाएं- रामचंद्र गुहा
विडंबना और शायद त्रासदी यह है कि हमारे देश के सबसे खूबसूरत हिस्से संघर्ष और हिंसा से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं। इसमें कश्मीर घाटी, मध्य भारत (विशेषकर बस्तर) के जंगल, और पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हैं। मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की धारा का अनुकरण करते हुए 1990 के दशक में मैंने पूर्वोत्तर का दौरा किया था। एल्विन इंग्लैंड में जन्मे और पढ़े-लिखे थे, युवा वय में भारत आए, तो फिर नहीं...
More »प्रत्याशियों को चुनाव में अनुदान का विकल्प- भरत झुनझुनवाला
एनडीए की भारी जीत ने हमारी चुनावी व्यवस्था में पार्टियों के वर्चस्व को एक बार फिर स्थापित किया है। विशेष यह कि चुनाव में जनता के मुद्दे पीछे और व्यक्तिगत मुद्दे आगे थे। यह लोकतंत्र के लिए शुभ सन्देश नहीं है। स्वतंत्रता हासिल करने के बाद गांधीजी ने सुझाव दिया था कि कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर दिया जाए और जनता द्वारा बिना किसी पार्टी के नाम के सीधे अपने...
More »मुद्दों से ज्यादा प्रचार पर भरोसा-- संजय कुमार
चुनाव अभियानों का रूप-रंग हाल के वर्षों में काफी बदल चुका है। हालांकि किसी प्रत्याशी को अब अपने प्रचार के लिए निर्वाचन आयोग दो सप्ताह का ही वक्त देता है, जबकि पहले 21 दिन का समय मिलता था, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अब चुनाव अभियान अतीत की तुलना में कहीं अधिक व्यापक हो गया है। मौजूदा लोकसभा चुनाव के लिए भी आधिकारिक तौर पर चुनाव अभियान की शुरुआत पहले चरण...
More »रूढ़िवादिता और संवैधानिक सुधार-- आकार पटेल
साल 1948 में हिंदू कोड बिल का प्रस्ताव पेश करते हुए भीमराव आंबेडकर ने इस विधेयक के मुख्य मुद्दे के रूप में उत्तराधिकार को रेखांकित किया था. हिंदू उत्तराधिकार कानून दो परंपराओं से आया था, जिन्हें मिताक्षरा और दायभाग के रूप में जाना जाता है. मिताक्षरा के अनुसार, एक हिंदू पुरुष की संपत्ति उसकी नहीं होती है. इसका साझा स्वामित्व पिता, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र का होता है. इन सभी...
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